निजीकरण ही एकमात्र विकल्प है
एयर इंडिया के निजीकरण का मामला पिछली बार तब उठा था था, जब इसके सुधार पैकेज को कैबिनेट ने मंजूरी दी थी. लेकिन उस समय एयर इंडिया की स्थिति इतनी दयनीय थी कि आम धारणा यही बनी थी कि कोई भी निवेशक इसको खरीदने के लिए आगे नहीं आयेगा.
छह महीने या उससे भी ज्यादा की तनख्वाह नहीं दी गयी थी. एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस के बीच विलय सिर्फ कागजी स्तर पर हुआ था और प्रबंधन और कर्मचारियों के बीच का रिश्ता काफी खराब था. हर साल कम से कम दो बार हड़ताल हो रही थी. एयर इंडिया, तेल कंपनियों और एयरपोर्ट के बकाये का भी भुगतान नहीं कर पा रहा था. ऐसे मामले भी देखने में आये थे कि हवाई जहाज को उड़ान भरना था, लेकिन लेकिन तेल कंपनियों ने तेल भरने से इनकार कर दिया था.
एयर इंडिया की स्थिति में सुधार हुआ है. अब स्थिति ऐसी है कि लोग इसे खरीदने के बारे में सोच सकते हैं. हां समस्याएं हैं, लेकिन एयर इंडिया के पास मूल्यवान परिसंपत्ति भी है. इसके पास अपने हवाई जहाज हैं. दुनियाभर में इसके कार्यालय हैं. इसके पास द्विपक्षीय अधिकार हैं. लैंडिंग अधिकार हैं. सरकार को इस सवाल का सामना करना होगा कि क्या हम एयर इंडिया की सेहत को सुधारने के लिए और 30,000 हजार रुपये खर्च करने को तैयार हैं या हम इस पैसे को खाद्य सुरक्षा या शिक्षा पर खर्च करना चाहते हैं. कर आदि चुकाने से पहले एयर इंडिया का कुल घाटा पिछले साल 2300 करोड़ था. इस साल इसके 1,000 करोड़ रहने की उम्मीद है. लेकिन इसके बावजूद इस साल एयर इंडिया को 4,000 करोड़ का नुकसान होगा.
इसलिए मेरा दृढ़ मत है कि सरकार को एविएशन के धंधे से बाहर निकल जाना चाहिए. लोगों का जुड़ाव एयर इंडिया से है. उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि एयर इंडिया पर किसका स्वामित्व है.
देखिए, अगली सरकार के पास क्या विकल्प है. तब तक 30,000 करोड़ रुपये (बेल आउट का पैसा) खत्म हो चुके होंगे. योजना यह है कि एयर इंडिया को 2018 तक मुनाफे में ले आया जाये. मुङो नही पता यह मुमकिन होगा या नहीं. सरकार बेलआउट पैकेज का अधिकांश पैसा दे चुकी है. सिर्फ 35,00 करोड़ रुपया दिया जाना बाकी है. इसलिए अगली सरकार को यह देखना होगा कि क्या उसे इस एयरलाइंस के बिजनेस में रहना है कि नहीं.
(‘द इकोनॉमिक टाइम्स’ को दिये गये साक्षात्कार का एक अंश)