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मीडिया का भविष्य, भविष्य की मीडिया
– हरिवंश – दरअसल भविष्य के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है. हम सिर्फ ट्रेंड्स (प्रवृत्ति) के आधार पर उसका आकलन भर कर सकते हैं. मैं पूरी मीडिया के बारे में नहीं, सिर्फ प्रिंट मीडिया के बारे में कहना चाहूंगा. इससे मेरा सरोकार रहा है. कुछ चीजें जो मैं देख पाता हूं या जो […]
– हरिवंश –
दरअसल भविष्य के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है. हम सिर्फ ट्रेंड्स (प्रवृत्ति) के आधार पर उसका आकलन भर कर सकते हैं. मैं पूरी मीडिया के बारे में नहीं, सिर्फ प्रिंट मीडिया के बारे में कहना चाहूंगा. इससे मेरा सरोकार रहा है.
कुछ चीजें जो मैं देख पाता हूं या जो कुछ मैंने मीडिया एक्सपर्ट्स (मीडिया विशेषज्ञों) से सुनी है, उसके आधार पर ही मैं आपके सामने कुछ तथ्य रखना चाहूंगा. हाल में ऐसे दो समारोहों में या वर्कशाप में मैं शामिल हुआ, जिनमें वर्तमान में मीडिया के क्या हालात हैं और मीडिया किस ओर जा रही है, इस पर मीडिया के विशिष्ट लोगों को सुनने का मौका मिला. ये लोग सचमुच मीडिया की धारा तय कर रहे हैं.
इसमें से एक समारोह दिल्ली में हुआ था. कुछ महीनों पहले. इंडियन न्यूजपेपर सोसायटी द्वारा आयोजित था. दूसरा जून में वैन (वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ न्यूजपेपर्स) का सम्मेलन हुआ स्वीडेन के गोटेनवर्ग शहर में. पिछले चार सालों से मैं वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ न्यूजपेपर्स (वैन) की बैठकों में जाता रहा हूं. इसमें दुनिया के कोने-कोने से टॉप मीडिया एक्सपर्ट्स आते हैं. इनको सुनने और देखने से जो चीजें मेरी जेहन में आयीं, वे पांच या छह हैं. जो मीडिया की भावी धारा तय कर रही हैं.
पहली कि अब ट्रेडिशनल मीडिया का डेथ तय है. यानी जिस परंपरागत रूप में मीडिया आज तक चलती रही है, उस रूप में आगे वह नहीं चलेगी. यह यथार्थ है. मृत्यु जैसा अवश्यंभावी तथ्य. मुझे लगता है कि यह बदलाव कोई बहुत चिंता की बात नहीं है, क्योंकि यह टेक्नोलॉजी से जुड़ा पहलू है.
जब पहली बार प्रेस लगा यानी गुटेनवर्ग में जब पहला छापाखाना खुला, तो लोग ऐसा कहते हैं कि जो हाथ से किताब तैयार करनेवाले थे या लिखनेवाले थे, वे भी बेरोजगार हो गये थे. इस तरह नयी टेक्नोलाजी ने पत्रकारिता का चेहरा और कलेवर बदल दिया है. इतिहास पलटें, तो पायेंगे कि टेक्नालॉजी हमेशा अपना प्रभाव पैदा करती रही है. नयी टेक्नालाजी, पुरानी टेक्नालाजी की व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करती है.
टेक्नोलाजी में बदलाव की रफ्तार तेज है. और हर टेक्नालॉजिकल बदलाव पत्रकारिता को गहराई से प्रभावित कर रहा है. इसमें, मेरी दृष्टि में अच्छे-बुरे दोनों पक्ष हैं. क्योंकि टेक्नालॉजी हमेशा वैल्यू (मूल्य) निरपेक्ष होती है. पर बदले टेक्नोलॉजी के साथ-साथ जो चीजें चिंता पैदा करती हैं, वे हैं कि पत्रकारिता में कंटेंट्स (विषय वस्तु) कैसे बदल रहे हैं? दूसरा तथ्य यह है कि पत्रकारिता या मीडिया इंडस्ट्रीज (प्रिंट मीडिया भी), इज लेड बाय एड इंडस्ट्रीज टुडे, यानी पत्रकारिता उद्योग में ड्राइवर की कुरसी पर विज्ञापन महकमा है.
संपादकीय नहीं. इसका असर है कि संपादक का महत्व कम हो गया है. बिजनेस करनेवाले का यानी विज्ञापन लानेवाले प्रबंधकों का अखबार जगत में जज्बा बढ़ गया है. इसलिए अब न्यूज का बिजनेस होने लगा है. 2007 में आउटलुक में पिच मेडिसान, जो बड़ी एजेंसी है, उसका एसेसमेंट (अनुमान) छपा था कि विज्ञापन उद्योग कहां जा रहा है? 2007 में यह 17 हजार 690 करोड़ का था. इसका 48 फीसदी प्रिंट मीडिया के पास था. यानी 8,470 करोड़ लगभग प्रिंट मीडिया के पास. मीडिया एक्सपर्ट्स मानते हैं कि 2012 तक यह विज्ञापन उद्योग 20 हजार करोड़ या 22 से 24 हजार करोड़ तक पहुंच जायेगा. यह भारत की जीडीपी (ग्रास डोमेस्टिक प्रोडक्ट यानी सकल राष्ट्रीय उत्पाद) में वृद्धि के अनुपात में निरंतर बढ़ेगा.
अब पत्रकारिता या मीडिया में सारी लड़ाई या प्रतियोगिता का फोकस इस तथ्य पर है कि इस बढ़ते-फैलते विज्ञापन उद्योग में किस अखबार समूह का कितना हिस्सा होगा? यानी पत्रकारिता को अब पूंजी के पीछे दौड़ना है. पहले पत्रकारिता उन सवालों-इश्यूज के पीछे दौड़ती थी, जो देश, समाज या विकास के आड़े आते थे. या देश या समाज के अहम मुद्दे होते थे. अब मुद्दों या सवालों की पत्रकारिता इस दौर में पीछे छूट गयी है. आज के बदले दौर में मुख्यधारा या मेनस्ट्रीम की पत्रकारिता वह होगी, जो अर्थ के पीछे भागे.
यानी अर्थ जिस वर्ग के पास है, उस वर्ग के हितों की बात करें. ऐसे मार्केट में मीडिया किस वर्ग के लिए काम करेगा? उसका झुकाव किधर होगा? इस बात को आप सामान्य ढंग से देख सकते हैं. आज हर अखबार में या जो मुख्यधारा के अखबार हैं, उनका एक ही मकसद है कि एसइसी वन, में हम कैसे सबसे अधिक बिकें? यह शब्द भी हाल के कुछेक वर्षों में अखबार उद्योग या मीडिया का सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र शब्द बन गया है. एसइसी यानी सोसियो इकनामिक क्लासिफिकेशन. आर्थिक आधार पर समाज का वर्गीकरण.
इस आधार पर समाज का अध्ययन, आज विज्ञापन एजेंसियां करती हैं या कराती हैं कि किस अखबार के किस आर्थिक समूह या वर्ग में कितने पाठक हैं? किस आर्थिक वर्ग के कितने पाठक हैं? उच्च मध्यवर्ग के कितने? मध्यवर्ग के कितने? कितने सर्वहारा पाठक हैं? इस पाठक समूह में एसइसी-ए, यानी जो समाज का सबसे समृद्ध वर्ग है. वह कितना है? मध्य वर्ग के बारे में अनुमान है कि भारत में 33 करोड़ लोग हैं. यह वर्ग तेजी से बढ़ रहा है, ऐसा शासक कहते हैं.
अब अखबारों के बीच स्पर्द्धा है कि इस संपन्न समूह में कौन सबसे अधिक कैसे बिकें? यह पत्रकारिता स्वभावगत, चरित्रगत इसी मध्य वर्ग की चिंता करेगी. बात करेगी. इसमें गरीब किसान, आदिवासी या बाकी चीजें हाशिये पर होंगी, या नहीं होंगी या मजबूरी में खबरें बनेंगी, सर्वहारा इसका विषय वस्तु या चिंता का विषय नहीं है.
यह बदलाव स्वाभाविक है और चरित्रगत है. इस पत्रकारिता में उन 62 परसेंट युवाओं की बात होगी, जिनके बारे में यह कहा जा रहा है कि 32 वर्ष से कम उम्र के ये युवा भारत में सबसे बड़ी तादाद में होंगे. आज का युवा ही मूल उपभोक्ता है. भोग करने, भोग में डूब कर जीनेवाले इस युवा वर्ग तक पहुंचने के लिए ही विज्ञापन एजेंसियां बेचैन हैं. ये एजेंसियां उन्हीं अखबारों को विज्ञापन देती हैं, जो इस युवा वर्ग में सर्वाधिक पढ़े जाते हैं. इसलिए अखबारवाले चिंतित हैं इस युवा वर्ग के बीच वे अधिकाधिक कैसे पढ़े जायें?
पत्रकारिता इन पर या इस युवा वर्ग पर अब फोकस होगी. अत: इस उपभोक्तावादी समाज में जो अधिक भौतिक सुख के साथ जीना और रहना चाहते हैं. वे ही पत्रकारिता के मुख्य विषय रहेंगे. जो आत्महत्या करनेवाले किसान होंगे, जो हाशिये के लोग होंगे, बेरोजगार होंगे, जंगल में रहनेवाले होंगे वे इस पत्रकारिता में गौण होंगे. पत्रकारिता की इस धारा में आभिजात्य वर्ग की ही प्रमुखता रहेगी. पेज थ्री, जिसका प्रतिनिधित्व करता है. पेज थ्री, पत्रकारिता की बदली धारा का सिंबल है, और यह धारा कहीं और से संचालित हो रही है.
पत्रकारों द्वारा नहीं. बाजार, इस दौर की पत्रकारिता के लिए विषयवस्तु दे रहा है. फैशन, पार्टियां, लक्जरी रहन-सहन के कवरेज इसी कारण महत्वपूर्ण बनते जा रहे हैं. इस मीडिया मार्केट में यह एसेसमेंट है कि भारत में अगर 8 से 9 परसेंट भी जीडीपी ग्रोथ रहा, तो पाठकों की संख्या में बदलाव होगा. इसका पहला निष्कर्ष यह है कि छोटे अखबारों का चलना लगभग असंभव हो जायेगा. क्योंकि इस मार्केट-संचालित मीडिया में जो पूंजी आयी है, वह मीडिया का स्वभाव, स्वरूप , आकार और मिजाज तय कर रही हैं.
दो तरह की पूंजी, मीडिया बाजार में आयी है. एक विदेशी पूंजी. दूसरी शेयर मार्केट की पूंजी. अब एक-एक मीडिया हाउस का मार्केट वेल्यूयेशन होने लगा है. कोई 10 हजार करोड़, कोई 12 हजार करोड़ का मीडिया हाउस बन गया है. मीडिया हाउसों में स्पर्द्धा है कि किसका सबसे अधिक वेल्यूयेशन हो? इस वेल्यूयेशन के पीछे एक राज है. इस आधार पर विदेशी पूंजी भी आती है. यदि किसी मीडिया कंपनी का वेल्यूयेशन 10 हजार करोड़ का है, तो 26 परसेंट तक वह विदेशी पूंजी ला सकती है.
यानी 10,000 करोड़ पर 26 फीसदी हिस्सा. 2600 करोड़ रुपया. 2600 करोड़ आने से उस मीडिया हाउस का मनी मसल पावर (पूंजी की ताकत) बढ़ता है. कमजोर प्रतिस्पर्द्धा को यह पूंजी ताकत खत्म करती है. एक और अंतर आता है. एक बार विदेशी पूंजी आप लाते हैं या शेयर बाजार से पैसा लाते हैं, तो उस पूंजी पर रिटर्न भी देना है. जो पैसा लगाते हैं, वे नियमित लाभांश चाहते हैं. पूंजी लाभ की प्रत्याशा में ही आती है. यह लाभांश लाने के लिए फिर अखबार या चैनल पत्रकारिता की पवित्रता को पहले विदा करते हैं.
पूंजी कमाने के इस दबाव में, पत्रकारिता वैल्यू (मूल्य) इथिक्स (आचार संहिता) और इश्यूज (मुद्दे) भूल जाती है. फिर वह ब्लैकमेल और तिजारत के आरोपों से घिरने लगती है. और इस तरह अपनी विश्वसनीयता खो देती है. यही इंडियन मीडिया के साथ आज हो रहा है. मीडिया ने अपनी विश्वसनीयता खोयी है, उसके पीछे के कारण यही है. अब संपन्न न्यूजपेपर हाउस मुफ्त में अखबार पढ़ाते हैं या कम कीमत पर. अगर एक अखबार का रोजाना लागत मूल्य 65 रुपये है, तो वह संपन्न घराना एक रुपया में पाठक को पढ़ायेगा.
क्योंकि उसके पास पूंजी है. एक रुपये में अधिक पाठक होंगे. जिनके पाठक अधिक होंगे, उन्हें विज्ञापन भी अधिक मिलेगा. जिन अखबार घरानों के पास पूंजी नहीं है, वे अधिक कीमत पर अपना पत्र बेचेंगे. फिर पीछे छूट जायेंगे. इस तरह पूंजी संपन्न पेपर हाउस मार्केट में मोनोपोली की स्थिति में रहेगा. यह एक व्यावसायिक चक्र है, जो हमेशा पूंजीसंपन्न के पक्ष में काम करता है. हिंदी इलाकों के दर्जनों पुराने स्थापित अखबार इस चक्र में बंद हो चुके हैं.
हमारे समाज में संपन्न अखबारों ने नया चलन कर दिया है. एक मुफ्त बाल्टी लेने के लिए, पाठक अब घंटों लाइन में खड़े रहते हैं. पूंजी संपन्न अखबार ऐसे पाठक गिफ्ट स्कीम से पेपर बेचते हैं. स्पष्ट है कि जहां लोभ होगा, वहां तो इसी चरित्र की मीडिया होगी.
जो बिकने के लिए, सौदेबाजी के लिए या ब्लैकमेल होने के लिए तैयार रहेगी. हमको अपने समाज के चरित्र के बारे में भी देखना चाहिए. मीडिया को गाली देने के पहले समाज का चरित्र कैसे बदल रहा है, इस पर गौर करना चाहिए. जब विदेशी पूंजी और शेयर मार्केट से पूंजी अखबारों के पास आयेगी, तो वे मुफ्त में अखबार पढ़ायेंगे. अभी कुछ घराने पढ़ा रहे हैं.
दूसरा, ऐसे पूंजीसंपन्न अखबार घराने बड़े पैमाने पर फैलाव (एक्सपेंशन) भी करेंगे. क्योंकि उनके पास विस्तार के लिए पूंजी उपलब्ध है. मीडिया विशेषज्ञ मानते हैं कि आज पटना या लखनऊ या भोपाल जैसे शहर में एक अखबार खोलने में न्यूनतम 100 करोड़ लगेंगे और इस निवेश पर रिटर्न की प्रत्याशा? आम तौर से 4-5 वर्षों बाद?
ऐसी स्थिति में छोटे और मझोले अखबार खत्म होंगे ही. वे कहां से पूंजी लायेंगे विस्तार के लिए या मुफ्त अखबार बांटने के लिए? हर क्षेत्र में आज बड़े पैमाने पर अखबार खुल रहे हैं, चैनल खुल रहे हैं, इनका बिजनेस मॉडल क्या है, यह मैंने बताया. बड़ी पूंजी बड़े घरानों के पास आयेगी, तो वे अपनी पूंजी से और अखबार खोलेंगे. बड़े प्रचार-प्रसार से खोलेंगे. पाठकों को पढ़ने के लिए पैसे भी देंगे. गिफ्ट भी देंगे. आपने देखा कि लुधियाना से लेकर भोपाल तक हर जगह सबक्रिप्शन स्कीम चलते हैं. अन्य जगहों पर भी.
100 रुपये में साल भर अखबार पढ़ें, जैसे स्कीम. साथ में गिफ्ट भी. क्योंकि इन अखबार घरानों के पास मनी पावर है. उस मनी पावर से ये आपको अखबार मुफ्त में पढ़ा सकते हैं, लेकिन जो मुफ्त में अखबार पढ़ते हैं, क्या वे पाठक कभी यह सोचते हैं कि हमारा समाज कहां जा रहा है? हम कहां जा रहे हैं? हमारा परिवार कहां जा रहा है? मध्य वर्ग के हम 33 करोड़ लोग यह नहीं सोचते हैं. इस पतन के लिए यह मध्य वर्ग बराबर का दोषी है. अगर मीडिया को बदलना है, तो 33 करोड़ मध्यवर्ग के भारतीय लोगों को भी अपने सरोकार के बारे में सोचना होगा.
धड़ल्ले से विदेशी पूंजी आने का क्या कारण है? विशेषज्ञ मानते हैं, कि भले ही प्रति 1000 आबादी पर अखबारों के 117 पाठक भारत में हैं. पर जिस गति से लिटरेसी बढ़ रही है, उससे पाठक बढ़ेंगे. ये विशेषज्ञ मानते हैं कि यह जो 8 परसेंटया 9 परसेंट जीडीपी ग्रोथ है, उसे बढ़ती लिटरेसी के साथ जोड़ कर देखें, तो भारत में यह 33 करोड़ का मध्य वर्ग भविष्य में बढ़ेगा.
करोडों नये पाठक होंगे. अखबारी बिजनेस की भाषा में ये सभी पोटेंसियल रीडर हैं. भविष्य के नये पाठक. विदेशों में प्रति 1000 आबादी पर 250 से 540 के बीच अखबारों के पाठक हैं. अत: भारत में भी मध्य वर्ग बढ़ने पर करोड़ों नये पाठक होंगे. इसलिए बड़े पैमाने पर नये अखबार आ रहे हैं.
नये चैनल आ रहे हैं. एक विशेषज्ञ के अनुमान के अनुसार हिंदी अखबारों के नये संस्करण खोलने, आधुनिक बनाने और क्वालिटी ठीक करने के क्रम में 10,000 करोड़ से अधिक के निवेश गुजरे वर्षों में हुए हैं. अखबार घरानों के बीच यह मर्जर, एक्वीजीशन या पार्टनरशिप का दौर है. यह पार्टनरशिप होना ही है. या कमजोर अखबार बिकने ही हैं. या बंद होते हैं. इसको आप रोक नहीं सकते, क्योंकि इसके पीछे विदेशी पूंजी और शेयर मार्केट की पूंजी का क्रिटिकल रोल है.
एक और आंकलन है कि मुफ्त में अखबार बंटने लगेंगे, तो इसके लिए पैसे कहां से आयेंगे? इन मीडिया विशेषज्ञों का आकलन है कि विज्ञापन पर अभी भारत में जीडीपी का 0.38 फीसदी खर्च हो रहा है.
भारत में जब मध्य वर्ग बढ़ेगा, उपभोक्ता बढ़ेंगे, तो विज्ञापन पर खर्च भी बढ़ेगा. अत: भारत का विज्ञापन बाजार काफी बड़ा हो जायेगा. इस बड़े बाजार पर किसका कितना कब्जा या हिस्सा होगा? सारी लड़ाई इसके लिए है. इस इक्वीजीशन, मर्जर या पार्टनरशिप (खरीदना, मिला लेना, हिस्सेदारी) के क्रम में छोटे-छोटे अखबार बिकेंगे या बंद होंगे या बड़े अखबारों के अंग बनेंगे.
इस तरह मीडिया वर्ल्ड में नये ताकतवर घराने उभरेंगे. इस मीडिया में इतने बड़े ताकतवर घराने उभर रहे हैं कि कल कोई छोटा अखबार, जो पहले विचारों के आधार पर चलता था, नहीं चलेगा. पहले अपना घर गिरवी रख कर लोग अखबार निकालते थे. अब वह असंभव हो जायेगा. कम पूंजीवाले या विचार प्रधान सामान्य लोग अखबार नहीं निकाल सकेंगे. 5-7-8 बड़े घराने बचेंगे जो मीडिया को कंट्रोल करेंगे.
इन बड़े देशी मीडिया घरानों को प्रभावित करेंगे, वे विदेशी घराने, जिनकी पूंजी इन भारतीय मीडिया घरानों में लगी होगी. हाल में विश्व प्रसिद्ध इकानामिस्ट पत्रिका में बड़ी दिलचस्प बहस छपी. बंबई या भारत की मीडिया के बारे में. कैसे मीडियावाले अपना कंटेंट बेच रहे हैं. अखबार घरानों के आरोप-प्रत्यारोप उसमें छपा. अब खुले रूप में इस विषय पर बहस हो रही है.
चोरी छुपे नहीं. अखबार कंटेंट बेचते हैं. पैसा कमाते हैं, क्योंकि मीडिया का मकसद या मूल चरित्र बदल गया है. इससे मीडिया की क्या छवि बन रही है? पहले दबी जुबान कंटेंट बेचे जाते थे. अब चुनावों में, 1995 से जो प्रक्रिया शुरू हुई महाराष्ट्र-मध्यप्रदेश से, वह देश के लगभग सारे राज्यों में फैल रही है. चुनावों में विज्ञापन प्रचार की सीमा है. एक प्रत्याशी या दल निश्चित बजट ही प्रचार पर खर्च सकता है. खर्च की सीमा तय है. चुनाव आयोग यह वाच करता है.
अत: अखबारवालों ने नयी विधि निकाल ली है. ब्लैक में विज्ञापन का पैसा लेकर उतनी जगह में न्यूज छाप देना. यानी पैसे देकर संपादकीय रिपोर्ट लिखवाना. आप कल्पना कर सकते हैं कि कंटेंट कितनी पवित्र चीज है? वह अखबारों की आत्मा है. वह सच है, जिसे पढ़ने के लिए लोग अखबार खरीदते हैं, उस पर भरोसा करते हैं. जब आत्मा ही बिकने लगे यानी खबर ही बिकने लगे, तो बचा क्या? एडवरटोरियल अलग इश्यू है. संपादकीय लिख कर विज्ञापन के रूप में बेचना.
मीडिया अब एक बडी इंडस्ट्री बन रही है. अभी प्राइसवाटर हाउस कूपर्स रिपोर्ट आयी है. उनका एस्टीमेट है कि न्यूजपेपर इंडस्ट्रीज भारत में सन 2012 तक 243 बिलियन की होगी. एक बिलियन में शायद साढ़े 4 हजार करोड़ होते हैं. तो आप इसे गिन सकते हैं.
अगली चीज, यह बता रहा हूं कि अभी हाल में फाइनेंसियल टाइम्स के चीफ एक्स्क्यूटिव ने बड़ी सटीक टिप्पणी की है. उसको एक लाइन में मैं बता रहा हूं. कोट करूंगा. वह यह है कि न्यूजपेपर कंजम्शन इज गोइंग अप इन इंडिया. कंजम्शन यह बताता है कि भारत में न्यूजपेपर इंडस्ट्री कैसे विकसित हो रही है? यानी भारत की मीडिया, पश्चिमी मीडिया की नजर में उपयोग की चीज है. पर भारतीय मीडिया का चरित्र अतीत में उपभोग का नहीं ‘वाचडाग’ का रहा है. भारत के मीडिया में होते परिवर्तन के लगभग पांच-छह संकेत मैंने गिनाये.
अगर एक लाइन में इस बदलाव को समझना हो, तो विष्णुराव पराड़कर जी का एक मशहूर कथन है. वृंदावन के पत्रकार सम्मेलन में उन्होंने कहा था कि पत्रकारिता में बहुत सारे पैसे आ जायेंगे. रंगरोगन हो जायेगा, सुंदर रंगीन छपाई हो जायेगी, पर पत्रकारिता की आत्मा निर्जीव हो जायेगी. एक लाइन में सारी चीजों का यह श्रेष्ठ निष्कर्ष है. यह निष्कर्ष निजी है. हो सकता है कि मैं गलत हूं. लेकिन यह छह चीजें मीडिया का ट्रेंड तय कर रही हैं.
अब भविष्य की मीडिया में क्या होगा? क्या नये परिवर्त्तन दिखाई देंगे? दुनिया में लोग यह मान रहे हैं कि प्रिंट मीडिया धीरे-धीरे कमजोर होगा. मगर भारत में आने वाले 5-10 वर्षों में यह मीडिया बढ़ेगा.
प्रिंट मीडिया में भी रीजनल मीडिया जिसे हम भाषाई अखबार मानते हैं, बढेंगे. फैलेंगे, पर भाषाई अखबारों में जो ट्रेंड दीख रहा है. अगर ऐसा चलता रहा, तो 5-6 बड़े घराने, पावरफुल होंगे. ये किसी भी छोटे अखबार या पत्र पत्रिका का चलना बंद कर देंगे. ऐसे-ऐसे घराने हैं, जिनके किस्से मैं आपको बताऊंगा तो आप हतप्रभ हो जायेंगे. हॉकरों से अखबार बंटने नहीं देंगे. पाठकों को भारी लोभ, छूट या पुरस्कार देकर अपना अखबार पढ़ायेंगे. सस्ता या मुफ्त अखबार देकर अपनी पाठक संख्या सबसे आगे रखेंगे.
भविष्य में जो आनलाइन पेपर ई-मेल या ई ब्लाग्स आ रहे हैं, इसमें शायद उन लोगों की जगह बचेगी, जो अपनी बात कहना चाहते हैं. एफएम रेडियो भी तेजी से आनेवाले वर्षों में फैलेगा.
लगभग 200 नये चैनल खोलने के लिए आवेदन भारत सरकार के पास पड़े हुए हैं. पास होने के लिए. रूपर्ट मेर्डोक भी कई रीजनल चैनल लेकर आ रहे हैं भारत में. वे दुनिया के ‘मीडिया मोगल’ कहे जाते हैं. दुनिया के मीडिया बादशाह. हिंदी में टेब्लायड अखबार तेजी से बढ़ रहे हैं. समाज की युवा पीढ़ी इसे बड़ी तादाद में पढ़ रही है.
जिन-जिन जगहों से यह टेब्लायड निकल रहा है, इसे गौर से देखना चाहिए. इसी तरह हिंदी में बिजनेस पत्रकारिता (पिंक पेपर) बढ़ेगी. अब अंग्रेजी के बिजनेस पेपर, बिजनेस स्टैंडर्ड और इकानामिक टाइम्स के हिंदी संस्करण निकल रहे हैं. भास्कर समूह अपना बिजनेस अखबार निकाल चुका है.
जागरण समूह निकालने की प्रक्रिया में है. लेकिन इस नई पत्रकारिता के कंटेंट क्या होंगे. यह बहस का या चिंता का विषय है. इस समारोह में बैठे-बैठे सोच रहा था, अमृतलाल बेगड जी के बारे में. सुना कि वह यहां हैं, तो अंदर से मुझे कितनी प्रसन्नता हुई, नहीं कह सकता. उनकी नर्मदा परिक्रमा पुस्तिका को न जाने मैंने कितनी बार पढ़ी है?
इसे पढ़ कर क्या सुख मिलता है, वह शब्दों में नहीं कह सकता? जब दोबारा उन्होंने नर्मदा परिक्रमा की, तो शायद नया ज्ञानोदय ने उनके वृतांत को सीरियलाइज किया. उसके पुराने अंकों को भी मंगा कर मैंने पढ़ा. क्योंकि जो वर्णन है नदी, पानी, पहाड़, प्रकृति का, संवेदना का, इनकी जगह शायद नई मीडिया में न हों. क्योंकि नई मीडिया बिजनेस की बात करेगी. ह्यूमन टच के साथ उसका सरोकार कम होगा.
लेकिन इन सारे बदलावों या संभावित बदलावों के बीच एक चीज मुझे बार-बार लगती है कि भविष्य की मीडिया के बारे में जितना आकलन एक्सपर्ट कर रहे हैं, उसमें एक चीज वे भूलते हैं. मैं इस बात से फर्क करता हूं कि मीडिया समाज को बदलती है, यह धारणा गलत है.
हम मीडियावालों ने यह भ्रम बनाया है. समाज को राजनीति ही बदलती है. और वह राजनीति जो आइडिया, थॉट और विचारों से प्रभावित हो, वह नयी दिशा देती है. आजादी के पहले भारत की मीडिया में चमक इसलिए आयी कि यहां पर गांधी जी पैदा हुए, अरविंद पैदा हए, पूरी एक गौरवशाली पीढ़ी आयी. अगर गांधी जैसे कोई व्यक्ति नया विचार लेकर आये, तो मीडिया भी बदलेगा. समाज भी बदलेगा. मेरी दृष्टि में आज राजनति में कोई धारा नहीं रह गई है.
कोई आइडियालॉजी है नहीं. धुर वाम और धुर दक्षिण विचारों या राजनीतिक दलों में कोई फर्क नहीं रह गया है. सब एक तरह दिखते हैं क्योंकि किसी के पास आइडियालॉजी नहीं है. यह जो ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया है. इसमें मार्केट-लेड इकानामी है. इसके पास मार्केट का विचार है, कंजम्शन का विचार है, भोग का विचार है. इसलिए कोई नया विचार पनपे, तभी समाज में मीडिया को आप बदल पायेंगे. पर मीडिया बदलेगी. एक उम्मीद है. दुनिया में बड़े क्राइसिस हैं . अनेक. पर लोग जिनको गौर नहीं कर रहे हैं.
यह जो तेल का भाव बढ़ रहा है, बड़ा संकट है. 1967 में रोम में एक क्लब ऑफ रोम बना, जिसने पहली रिपोर्ट प्रकाशित की, लिमिट्स टू ग्रोथ. उसमें दुनिया के टाप नोबेल पुरस्कार पानेवाले वैज्ञानिक थे. बाद में उस पुस्तिका को फिर संशोधित किया गया. पाया गया कि जितने नेचुरल रिसोर्सेज हैं, वे धीरे-धीरे खत्म हो जायेंगे. जब वे खत्म हो जायेंगे, तो क्या स्थिति बनेगी? स्थिति खाद्यान्न संकट का है. पर्यावरण संकट का है. यदि किसी ने भविष्य को देखा कि मनुष्य प्रकृति के साथ तादात्मय बना कर कैसे जी सकता है, तो वह हैं सिर्फ गांधी. गांधी के आर्थिक विचारों को जेसी कुमारप्पा ने लिखा है.
यदि भविष्य के समाज को बचना है, भविष्य की दुनिया को बचना है तो उस गांधी के आर्थिक दर्शन की ओर लौटाना ही पड़ेगा, अगर उस आर्थिक मॉडल पर लौटते हैं, गांधी के आसपास, तो नये विचार जनमेंगे और मीडिया भी बदलने को बाध्य हो जायेगी. मीडिया के पास कोई रास्ता नहीं होगा. ऐसी धारा जिस दिन प्रभावी होगी, उस दिन मीडिया का चरित्र बदलेगा. यह धारा कब प्रभावी होगी? जब गांधी के आर्थिक विचार प्रभावी होंगे. आर्थिक विचार, सचमुच दुनिया को प्रभावित करते हैं. बदलते हैं.
जब समाज का पूरा तानाबाना ऊपर से नीचे तक पलट जायेगा, तब 33 करोड़ मध्य वर्ग से बाहर के जो लोग हैं, उनकी बातें, पीड़ा और दर्द मीडिया में गूंजेंगे, तब मीडिया का चरित्र बदलेगा. मीडिया को बदलने का एकमात्र और एकमात्र रास्ता है, विचारों पर समाज और राजनीति को लौटाना. विचारों के आसपास की राजनीति करना. सप्रे संग्रहालय द्वारा भोपाल में आयोजित गोष्ठी में दिया गया भाषण. जून 2008 में.
दिनांक : 13-08-08
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