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हर चुनाव में बनता है मुद्दा, पर उसके बाद भूल जाते हैं सभी
सरकारें कैसे काम करती है, इसे समझना हो तो यह कहानी आप पढ़ सकते हैं. बिना किसी प्लानिंग के कागज मिल स्थापित करने का फैस्ला ले लिया गया. इस पर अब तक 14.50 करोड़ हो गये. पर मिल से एक जिस्ता कागज भी नहीं निकला. हम बात कर रहे हैं सहरसा-मधेपुरा मुख्य सड़क के किनारे […]
सरकारें कैसे काम करती है, इसे समझना हो तो यह कहानी आप पढ़ सकते हैं. बिना किसी प्लानिंग के कागज मिल स्थापित करने का फैस्ला ले लिया गया. इस पर अब तक 14.50 करोड़ हो गये.
पर मिल से एक जिस्ता कागज भी नहीं निकला. हम बात कर रहे हैं सहरसा-मधेपुरा मुख्य सड़क के किनारे बैजनाथपुर में पेपर मिल की. 40 साल पहले कागज मिल सथापित करने का फैसला लिया गया था. तब से अब तक हरचुनाव में यह मिल चुनावी मुद्दा बनता रहा है. लेकिन कोई ठोस नतीजा नहीं निकला.
मिल की मशीनें जंग खाकर बरबाद हो रही हैं. बार-बार मिलने वाले आश्वासन लोगों में कभी क्षोभ तो कभी निराशा के भाव पैदा कर रहा है. चुनाव या किसी नेता या मंत्री की हरेक आवक पर इसकी चर्चा अवश्य होती है. लेकिन सिर्फ आश्वासन के अब तक कुछ हासिल नहीं हुआ. मिल के कर्मियों की उम्मीदें खत्म हो चुकी हैं. उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा है कि वे क्या करें और कहां जायें.
1975 में हुई थी स्थापना : कोसी के विकास और युवाओं को रोजगार से जोड़ने का सपना लिये इस मिल की यात्र शुरू हुई थी. जिला मुख्यालय से पांच किलोमीटर दूर सहरसा-मधेपुरा मुख्य सड़क के किनारे बैजनाथपुर में पेपर मिल स्थापना की सरकारी कवायद वर्ष 1975 में शुरू हुई थी. 48 एकड़ भूमि अधिग्रहण कर बिहार सरकार ने इसे चलाने के लिए निजी और सरकारी सहयोग से बिहार पेपर मिल्स लिमिटेड कंपनी का गठन किया था. इसी कंपनी की देखरेख में मिल स्थापित करने का काम शुरू हुआ था.
लेकिन 1978 में निजी उद्यमियों से करार खत्म होने के कारण काम रूक गया. तत्कालीन सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के अंतर्गत परियोजना को चलाने का निर्णय लिया. जिसके बाद बैजनाथपुर पेपर मिल बिहार राज्य औद्योगिक विकास निगम के स्वामित्व में आ गयी. बिहार सरकार और निगम की आपसी सहमति के बाद विदेश से एक पुरानी मशीन भी खरीदी गयी. 1987 में निगम ने कार्य स्थल को अगले दो साल में तैयार कर देने का लक्ष्य निर्धारित रखा.
लेकिन जरूरत के हिसाब से पैसा नहीं मिलने से अंतत: पूरी परियोजना ही ठप हो गयी. 1996-97 में बैंक ऑफ इंडिया ने 7 करोड़ 40 लाख दिये तो मिल का काम फिर से शुरू हुआ. पर इन पैसों से मिल का 80 प्रतिशत काम ही हो पाया.
14.50 करोड़ खर्च, पर नतीजा कुछ नहीं: वर्ष 2012 में सूबे की तत्कालीन उद्योग मंत्री ने पेपर मिल के निरीक्षण के दौरान बताया गया था कि लगभग दस करोड़ रुपये के वर्किंग कैपिटल से इसे चालू किया जा सकता है.
अब तक जो खर्च हो चुका है , उसमें निगम के 7 करोड़ 78 लाख और बैंक के 6.72 करोड़ रुपये शामिल हैं. अभी मिल को निर्माण क्षेत्र में लगभग 6 करोड़ और वर्किग क्षेत्र में लगभग 4.67 करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी.
(इनपुट: सहरसा से दीपांकर)
कई बार विधानसभा में प्रश्न उठाया. अंत में जवाब भी मिला तो कहा गया कि सरकार के द्वारा इसे चालू नहीं किया जायेगा. किसी बाहर के उद्योगपति से बात कर इसे चालू कराने की पहल की जायेगी.
लेकिन आज तक कोई पहल नहीं हो पायी. वस्तुत: राज्य सरकार के पास उद्योग नीति है ही नहीं. कानून व्यवस्था गिरती जा रही है. ऐसे में कोई उद्योगपति भी नहीं आना चाहते. और तो और यहां कोसी महोत्सव में राज्य के तत्कालीन उद्योग मंत्री मंच से घोषणा करते हैं कि बैजनाथपुर पेपर मिल चालू होगा. लेकिन क्यर हुआ, जनता सब देख व समझ रही है.
डॉ आलोक रंजन, विधायक, सहरसा
जो लोग भी सत्ता में रहे, उन्होंने कभी इसकी सुधि नहीं ली. हां जब तक वे विपक्ष में रहे, उन्होंने हमेशा पेपर मिल के मुद्दे को अपनी प्राथमिकताओं में रखा. कोसी क्षेत्र से दो-दो कद्दावर मंत्री हुए. जब तक विपक्ष में थे, हमेशा सत्ता में आने के बाद पेपर मिल का कार्य शुरू कराने का आश्वासन दिया. लेकिन वे लोग भी कुछ नहीं कर पाये. इस चुनाव में भी यह मुद्दा अवश्य बनेगा.
विनोद कुमार, सीपीएम नेता सह पेपर मिल आंदोलन से जुड़े नेता
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