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जुगाली नहीं, ठोस काम की दरकार
बिहार की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कृषि से जुड़ा है. यह राज्य की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, लेकिन आज इसकी हालत क्या है? विधानसभा चुनाव की राजनीतिक गहमागहमी के बीच कुछ सवालों पर गौर करना होगा. क्या बिहार की कृषि की वर्तमान संरचना इस हालत में है कि वह बढ़ती हुई आबादी के लिए […]
बिहार की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कृषि से जुड़ा है. यह राज्य की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, लेकिन आज इसकी हालत क्या है? विधानसभा चुनाव की राजनीतिक गहमागहमी के बीच कुछ सवालों पर गौर करना होगा.
क्या बिहार की कृषि की वर्तमान संरचना इस हालत में है कि वह बढ़ती हुई आबादी के लिए खाद्यान्न जुटा सके. आखिर बिहार में डेयरी, पशुपालन, मछली पालन और कृषि आधारित उद्योगों के विस्तार को राजनीतिक दल मुख्य एजेंडा क्यों नहीं बनाते हैं.
हमारा जोर शहरीकरण और उद्योग पर है, लेकिन क्या खेती की कीमत पर ऐसा किया जाना चाहिए? बिहार की बेहतरी के लिए ये सवाल अब नहीं तो कब उठेंगे?
करीब 76 फीसदी आबादी से जुड़े कृषि क्षेत्र की सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सेदारी न केवल बिहार, बल्कि देश भर में घटी है. देश में जीएसडीपी की हिस्सेदारी महज 16 फीसदी है. बिहार में जीएसडीपी की हिस्सेदारी 22.50 फीसदी है. राज्य के जीडीपी में कृषि की घटती भूमिका का मतलब यह है कि आर्थिक ग्रोथ का फायदा कृषि क्षेत्र में लगे लोगों को नहीं मिला है. किसान से पूछिए, ज्यादातर यही कहेंगे कि खेती फायदे का सौदा नहीं रही.
बिहार जैसे राज्य के लिए इसके खास मायने है, क्योंकि यहां पूरी अर्थव्यवस्था कृषि पर टिकी है. औद्योगिक रूप से बिहार पिछड़ा हुआ है. बिहार में कृषि के सामने कई तरह की चुनौतियां खड़ी हैं. इसके बावजूद कि राज्य सरकार ने कृषि रोड मैप के जरिये भारी भरकम राशि कृषि प्रक्षेत्र में निवेश किया है. भूमि सुधार, बटाइदारी, सिंचाई की व्यवस्था, कृषि उपज का लाभकारी मूल्य जैसी कई चुनौतियों से पार पाना है.
पर्याप्त जल संसाधन और काफी उपजाऊ भूमि के बावजूद देश भर में लंबे समय से एक तरह से कृषि में ठहराव की हालत है.1981-94 के बीच ठहराव की हालत वाली कृषि का वृद्घि दर नौवीं पंचवर्षीय योजना के दौर में तो नकारात्मक 1.4 फीसदी हो गया. इसमें दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौर में महज 0.91 फीसदी की वृद्घि दर्ज की गयी.
1947 के बाद शुरू के वर्षों में देश भर में खेतिहर उत्पादन का विस्तार हुआ. इसके कारणों में बड़ा कारण भूमि सुधारों के पहले चरणों को लागू किया जाना और सिंचाई योजनाओं पर खर्चे का बढ़ाया जाना था.
लेकिन, यह सिलसिला ज्यादा दिनों तक बरकरार नहीं रहा. भारत सरकार द्वारा बड़ी और मध्यम सिंचाई योजना पर पहली पंचवर्षीय योजना के दौरान कुल योजनागत खर्च का 16 फीसदी खर्च हुआ था.
यह घट कर दूसरी योजना के दौरान नौ फीसदी पर आ गया और तीसरी योजना के दौरान और भी कम हो गया. इस कारण से खेती में शुरू हुई विकास की प्रक्रिया पर विराम लग गया.
बिहार में भी भूमि सुधारों के लागू होने का सकारात्मक प्रभाव खेती पर पड़ा और शुरू के 15 वर्षों में कृषि उत्पादन वार्षिक आनुपातिक वृद्घि दर लगभग तीन फीसदी थी. छठे दशक के मध्य तक बिहार की कृषि वृद्घि दर महज चार राज्यों से ही कम था.
इसका परिणाम यह हुआ कि इस अवधि में बिहार के प्रति व्यक्ति आय में वृद्घि दर अन्य राज्यों के सम्मिलित औसत प्रति व्यक्ति आय की वृद्घि दर से अधिक थी. छठे दशक के उतरार्ध में कृषि वृद्घि दर की अधोगति शुरू हो गयी.
1952-53 से 1964-65 के बीच कृषि वृद्घि दर 2.67 फीसदी से गिरकर 1969-70 से 1983-84 के बीच महज 0.49 फीसदी रह गयी. बाद के दौर में तो सरकारों ने पंचवर्षीय योजनाओं का मुख्य फोकस कृषि से हटाकर उद्योग पर शिफट कर दिया.
इसका परिणाम यह हुआ कि खेती में सिंचाई और जल संसाधन को नियंत्रित कर बाढ़ के रोकथाम की योजनाओं पर विराम लग गया और खेती पूरी तरह मॉनसून के भरोसे रह गयी. खेती में सरकारी निवेश में निरंतर कमी के बाद निजी निवेश की संभावना भी कम होती गयी.
खेती करने वालों का बड़ा हिस्सा न तो निवेश कर पाने की हालत में है न ही खेती पर अस्थायी अधिकार उसको इसकी इजाजत देता है. हाल में खेती में उत्पादन बढ़ाने का एजेंडा पूरी तरह कृषि उत्पादों के मार्केटिंग और बाजार के लिए उत्पादन पर शिफ्ट हो गया है.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 70 फीसदी से अधिक लोगों की क्रय क्षमता को कृषि क्षेत्र में विकास के जरिए ही आगे बढ़ाया जा सकता है.
पांच सवाल
जीएसडीपी में कृषि की हिस्सेदारी घटी है. वजह क्या, असर किस रूप में?
बढ़ती आबादी के अनुरूप खाद्यान्न के उत्पादन की व्यवस्था क्या है ?
किसान कब तक मॉनसून के आसरे रहेंगे. सभी खेतों को पानी कब तक?
क्या ऐसी व्यवस्था होगी कि किसानों को उनकी उपज का वाजिब मूल्य मिले?
कृषि पर बोझ कम करने के लिए डेयरी, पशुपालन व मत्यस्य पालन का विस्तार क्यों नहीं किया जाता?
भूमि सुधार
बड़े सवाल
किसानों को लाभ नहीं
भूमि सुधार के बारे में भारत सरकार के गृह मंत्रलय द्वारा 1969 में तैयार रिपोर्ट के अनुसार भूमि हदबंदी कानून के 1962 में लागू होने के बावजूद कहीं भी सीमा से अधिक कृषि-भूमि को जब्त करने की कार्रवाई नहीं हुई है.
राज्य के कृषि क्षेत्र की जकड़ी संरचनात्मक बाधाएं इतनी मजबूत थी कि 1952-53 से 1964-65 के बीच कृषि उत्पादन में विकास की दर 2़94 फीसदी रहने के बावजूद इसका कोई लाभ खेती से जुड़े प्रत्यक्ष किसानों और श्रमिकों को नहीं पहुंच पाया.
अमेरिकी विशेषज्ञ ने कहा
भारत सरकार ने 60 के दशक में जमीन के मालिकाने को बिना छुए तकनीक और बीज के आधार पर कृषि को आगे ले जाने की योजना के साथ अमरीकी विशेषज्ञ लेंडेजिन्सकी को बुलाया था.
भूमि असमानता का अध्ययन करने के लिए अमरीका की भूमि संबंधी नीतियों के विशेषज्ञ वुल्फ लेंडेजिन्सकी और प्रोफेसर केनेथ पारसंस भारत आये.
कई राज्यों के अघ्ययन के बाद उन्होंने कहा, ‘किसानों की कटु शिकायतें हमें 1949 में कम्युनिस्ट पूर्व चीन की शिकायतों की याद दिलाती है. यहां भूमि असमानतायें एशिया की अन्य जगहों जितनी ही बुरी या फिर उससे भी खराब है.’
बंद्योपाध्याय बोले..
कृषि में संस्थागत बाधाओं को समझने के लिए गठित बिहार भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट (2008) कहती है कि ‘यह साफ है कि भूमि मालिकाने की एक भारी असमान पैटर्न और बटाईदारी की एक लूट वाली व्यवस्था की वजह से बिहार में संस्थागत बाधा कायम है, जो कृषि विकास के रास्ते में भारी बाधा उत्पन कर रही है.’
अमूल जैसा ब्रांड क्यों नहीं?
14 दिसंबर,1946 को एक डेयरी से शुरू हुआ अमूल (आणंद सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ) आज पूरे भारत और विदेश तक में डेयरी प्रोडक्ट का एक बड़ा ब्रांड बन चुका है.
33 लाख दुग्ध उत्पादक परिवार इससे जुड़े हैं. गुजरात सहकारी दुग्ध वितरण संघ, जो अमूल की मार्केटिंग करता है, का टर्न ओवर 2014-15 में 20733 करोड़ रुपये है. अमूल को एक ब्रांड बनाने के पीछे कूरियन की मेहनत थी.
लेकिन यह टीम वर्क, लग्न और बेहतर सोच का नतीजा भी है. आखिर बिहार में ऐसा क्यों नहीं सकता है. बिहार में भी बिहार स्टेट मिल्क को-ऑपरेटिव फेडरेशन की स्थापना 1983 में हुई. अमूल के तर्ज पर सुधा ब्रांड के नाम से इसके उत्पाद बाजार में हैं.
914 लाख परिवार इससे जुड़े हैं. लेकिन, अमूल की तरह इसका विस्तार नहीं हो पाया है. 2012 की पशुगणना के मुताबिक, बिहार में 366.31 लाख पशु हैं.
पानी यहां, मछली बाहर से?
आंध्रप्रदेश की आमदनी का एक बड़ा स्नेत मछली उत्पादन है. वर्ष 2014-15 में आंध्रप्रदेश में 1978578 टन मछली का उत्पादन हुआ.
करीब दो दशक पहले 1995-96 में आंध्रप्रदेश में 307995 टन मछली का उत्पादन हुआ था. आंध्रप्रदेश ने मछली की अहमियत समझी और इसके जरिये अपनी आमदनी बढ़ाने का उपाय ढूंढ़ा. तालाबों का विस्तार किया गया.
आज वहां सिर्फ तालाबों से ही 121198 टन मछली का उत्पादन होता है. बिहार में भी मछली उत्पादन को लेकर पहल शुरू हुई, लेकिन जितना इसका शोर किया गया, उतना यह जमीन पर नहीं दिखता है. बिहार में करीब साढ़े चार लाख टन मछली का उत्पादन होता है.करीब एक दशक में इसमें सात फीसदी की दर से बढ़ोतरी हुई है.
हालांकि ज्यादातर जिलों में आंध्र से मछली का आयात होता है. इससे बिहार की एक बड़ी राशि आंध्रप्रदेश के किसानों के पास चली जाती है.
मक्का बिहार का, मजे उनके
राज्य के पूर्वी इलाके में मक्का की खेती होती है, लेकिन सुविधा के अभाव में इसका विस्तार नहीं हो पा रहा है.सबसे पहले तो उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाना चुनौती है. खेती का क्षेत्रफल भी बढ़ाना होगा. मक्का के लिए प्रसंस्करण की सुविधा उपलब्ध नहीं है. दूसरा इसके बाजार को लेकर समस्या है. आखिर किसान मक्का का उत्पादन कर इसे कहां बेचें.
वे औने-पौने कीमत में दूसरे राज्य में बेच देते हैं. आखिर बिहार अमेरिका से क्यों नहीं सीख लेता, जो विश्व का सबसे बड़ा मक्का उत्पादक देश है. वहां लगभग आठ करोड़ एकड़ भूमि में आठ करोड़ टन मक्का पैदा होता है, जबकि भारत के 87,62,000 एकड़ में 30,64,000 टन ही मक्का पैदा होता है. बिहार में 6.85 लाख हेक्टेयर में 27.28 लाख टन मक्का का उत्पादन होता है.
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