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लगातार गिरता सोना : गिरावट के 5 बड़े कारण

सोना कीमती धातु होने के साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था में मुद्राओं के मूल्य-निर्धारण के प्रमुख आधारों में भी है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में इस सप्ताह सोने की कीमतों में भारी गिरावट हुई है और निकट भविष्य में इसमें उल्लेखनीय सुधार की गुंजाइश भी नहीं दिख रही है. कीमतों में यह कमी वैश्विक बाजार में पांच सालों और […]

सोना कीमती धातु होने के साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था में मुद्राओं के मूल्य-निर्धारण के प्रमुख आधारों में भी है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में इस सप्ताह सोने की कीमतों में भारी गिरावट हुई है और निकट भविष्य में इसमें उल्लेखनीय सुधार की गुंजाइश भी नहीं दिख रही है. कीमतों में यह कमी वैश्विक बाजार में पांच सालों और भारतीय बाजार में चार सालों के सबसे कम स्तर पर है.
लेकिन अर्थव्यवस्थाओं पर इसके असर को लेकर जानकारों में कोई चिंता नहीं है क्योंकि बाजार के मानक भी बदल रहे हैं और निवेशकों की प्राथमिकताएं भी. निवेश के बेहतर विकल्प और लाभ के लिहाज से सोना पिछड़ता दिख रहा है. कीमतों में गिरावट के कारणों और उसके संभावित असर की विवेचना समेत सोने से जुड़ी महत्वपूर्ण सूचनाओं के साथ समय की प्रस्तुति..
सोने की कीमतों में पिछले कुछ वर्षो से हो रही गिरावट के मद्देनजर यह कयास लगाया जा रहा है कि इस साल के आखिर तक कीमतें एक हजार डॉलर प्रति औंस के आसपास आ सकती हैं. इस धातु के कारोबार में लगे निवेशों में बीते शुक्रवार (24 जुलाई, 2015) को भारी बिकवाली दर्ज की गयी, जो पिछले दो वर्षों में सबसे अधिक रही. इस कमी के पीछे के प्रमुख कारणों पर एक नजर..
अमेरिकी डॉलर की मजबूती
अमेरिकी अर्थव्यव्यवथा में बेहतरी के लगातार आ रहे आंकड़ों के चलते अमेरिकी डॉलर में तेजी बनी हुई है. इसका नकारात्मक असर सोने की खरीद पर पड़ा है. डेली टेलीग्राफ के अनुसार, डॉलर की कीमत आमतौर पर वस्तुओं की कीमत पर उल्टा प्रभाव डालती है. ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि अन्य वस्तुओं की तरह अंतरराष्ट्रीय बाजार में सोने की कीमत डॉलर में आंकी जाती है.
इसका अर्थ यह हुआ कि जब डॉलर महंगा होता है, तो निवेशक की खरीद क्षमता कम हो जाती है तथा वस्तु की कीमत बढ़ जाती है, जिससे उसकी मांग घट जाती है और इसके फलस्वरूप उसकी कीमत घटने लगती है. हालांकि सोने की कीमत घटने के पीछे डॉलर का बढ़ना एकमात्र कारण नहीं है.
द इकोनॉमिस्ट का कहना है कि सोने की कीमतों में कमी का कारण यह भी है कि निवेशक मुद्रा की गतिविधियों के अनुरूप धातु का वास्तविक मूल्य निर्धारित करने लगते हैं. दरअसल, अगर डॉलर बढ़ता है, तो किसी भी परिसंपत्ति की कीमत डॉलर में ही बतायी जाती है. अगर यह निवेशक की बाजार की समझ के विपरीत है तो वे परिसंपत्तियां बेचने लगते हैं, ताकि बाद में उन्हें नुकसान न उठाना पड़े.
ब्याज दरों में वृद्धि
अमेरिका से लगातार इस बात के संकेत आ रहे हैं कि फेडरल रिजर्व बैंक ब्याज दरों में वृद्धि कर सकता है. अभी आधार दर 0.25 फीसदी है. माना जा रहा है कि यह बढ़ोतरी इसी वर्ष कर दी जायेगी. ऐसी स्थिति में आमदनी नहीं कर सकनेवाली परिसंपत्तियों का आकर्षण कम होना स्वाभाविक है.
सोना न तो कोई लाभांश देता है और न ही इससे कोई आय होती है. ऐसे में इस धातु को रखने के अवसर खर्च भी हैं. जब ब्याज दर कम होंगे तथा सोने की कीमतें बढेंगी, तब बुरे समय में इससे भुगतान किया जा सकता है. लेकिन, जब बाजार में तेजी हो, ब्याज दरें बढ़ रही हों, वसूली अधिक हो रही हो, तब सोने को रखने के खर्च भारी लगने लगते हैं.
चीन भी एक कारक
‘द टाइम्स’ इस प्रकरण में चीन को भी एक कारक मानता है. आंकड़ों के अनुसार, चीन अपेक्षित मात्र में सोने की खरीद नहीं कर रहा है. उल्लेखनीय है कि चीन की आकांक्षा डॉलर की तर्ज पर अपनी मुद्रा को रिजर्व मुद्रा बनाने की है.
चीन का स्वर्ण भंडार 57 फीसदी बढ़ा है, लेकिन जितनी उम्मीद की जा रही थी, उससे यह लगभग आधा ही है. कुल रिजर्व के लिहाज से देखें, तो चीन का हिस्सा वास्तव में कम ही हो रहा है. सोने की कीमतों में बीते सालों में जो उछाल आया था उसके पीछे यही अनुमान काम कर रहा था कि चीन भारी मात्र में सोने की खरीद कर सकता है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. मौजूदा स्थिति में इस कारक की भी बड़ी भूमिका है.
बुरी खबरों में कमी
कम-से-कम अभी के लिए यूनान पतन की गर्त में जाने से बच गया है. वैश्विक अर्थव्यवस्था में बेहतरी हो रही है और पश्चिमी देश वृद्धि का रुख कर रहे हैं. वैश्विक आर्थिक महासंकट की भविष्यवाणियां नाकाम हुई हैं. ऐसे समय में लोग सोने को निवेश के सबसे सही विकल्प के रूप में नहीं देख रहे हैं, जैसा कि संकट के समय आम तौर पर होता है.
तकनीकी व्यापार
बाजार में किसी तेज गिरावट का एक कारक अक्सर विश्लेषणों में छोड़ दिया जाता है. द टेलीग्राफ के अनुसार, ढेर-सारे लेन-देन ऑटोमैटेड तरीके से किये जाते हैं.
इसमें ऐसे सॉफ्टवेयर होते हैं, जो कीमतों के उतार-चढ़ाव की स्थिति में तय स्तर पर खरीद-बिक्री करने लगते हैं, ताकि बड़े निवेशों में नुकसान न हो. सोना इतना नीचे चला गया है, जहां ‘स्टॉप-लॉस’ कारोबार शुरू हो जाता है, जिससे बिकवाली में और भी तेजी आने लगती है. विडंबना यह है कि ये प्रोग्राम नुकसान को सीमित रखने के इरादे से बनाये गये हैं, लेकिन असलियत में ये अक्सर बाजार के उतार-चढ़ाव को बढ़-चढ़ कर आकलन कर लेते हैं. इससे छोटे-मोटे नुकसान बढ़ जाते हैं.
भारत के स्वर्ण भंडार का मूल्य 44 फीसदी घटा
सोने की कीमतों में भारी गिरावट के मद्देनजर भारतीय रिजर्व बैंक के पास जमा स्वर्ण भंडार की कीमतें 2011 के चरम स्तर की तुलना में 44 फीसदी घट गयी हैं. भारत के इस केंद्रीय बैंक के पास 557.75 मिट्रिक टन सोने का भंडारण है.
इस महीने की 20 तारीख को सोने की कीमत 1,072.35 प्रति औंस हो गयी थी, जो पांच वर्षों का सबसे न्यूनतम स्तर था. इस आधार पर रिजर्व बैंक के स्वर्ण भंडार की कीमत 21.1 बिलियन डॉलर हो गयी, जो सितंबर, 2011 के 37.8 बिलियन डॉलर से 44.18 फीसदी कम है. सितंबर, 2011 में सोने का मूल्य 1,921.15 प्रति औंस तक जा पहुंचा था. पिछले गुरुवार को सोना बुधवार की दर से 0.33 फीसदी सुधर कर 1,098.27 प्रति औंस तक पहुंचा था.
सोना भारतीय रिजर्व बैंक के विदेशी मुद्रा भंडार का प्रमुख घटक है. इसके अलावा अन्य घटक विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियां, विशेष निकास अधिकार और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में रखा गया कोष हैं. मूल्य के आधार पर सोना कुल भंडारण का 5.4 फीसदी हिस्सा है.
यदि दीर्घकालिक दृष्टि से देखा जाये, तो तकनीकी रूप से मूल्य में गिरावट केंद्रीय बैंक के लिए बड़ी चिंता की बात नहीं होनी चाहिए. पिछले सालों में रिजर्व बैंक के स्वर्ण भंडार का मूल्य कई गुना बढ़ा भी था, जब सोने का भाव लगातार चढ़ रहा था. इस लिहाज से सोने के मूल्य में कमी मामूली है. केंद्रीय बैंक का स्वर्ण भंडार कई सालों से लगभग स्थिर बना हुआ है.
वैश्विक स्तर पर केंद्रीय बैंक सोने को एक सुरक्षित साधन के रूप में अपने पास रखते हैं, जो वित्तीय संकट के समय उन्हें बचा सके. रिजर्व बैंक के कुल भंडार में सोने का हिस्सा 2008 में गिर कर तीन फीसदी से कम हो गया था, जबकि 1994 में यह 20 फीसदी के स्तर तक पहुंच गया था.
जब 2008 में सोना भंडार में कम हो गया था, तो रिजर्व बैंक ने नवंबर, 2009 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 200 टन सोना खरीदा था. इस खरीद के बाद भंडार में सोने का हिस्सा आठ फीसदी तक हो गया था. रिजर्व बैंक अपने पास रखे सोने की कीमत हर महीने के आखिर में लंदन स्टॉक एक्सचेंज के मासिक औसत के 90 फीसदी मूल्य के आधार पर आंकता है.
किसी भी केंद्रीय बैंक के लिए वित्तीय संकट या भंडार में कमी की स्थिति में सोना बेचना या गिरवी रखना अंतिम उपाय होता है. भारत के मामले में भी रिजर्व बैंक ने 67 टन सोना 1991 में भुगतान का संकट होने पर यूनियन बैंक ऑफ स्विट्जरलैंड के पास, तथा विदेशी मुद्रा भंडार में 605 मिलियन डॉलर डालने के लिए बैंक ऑफ इंग्लैंड के पास गिरवी रखा था. जनवरी, 1991 में देश का विदेशी मुद्रा भंडार महज 1.2 बिलियन डॉलर रह गया था. तब से भारत के मुद्रा भंडार की स्थिति बहुत सुदृढ़ हुई है और अभी हमारे पास 354 बिलियन डॉलर मुद्रा है.
स्नेत : फस्र्ट पोस्ट
वैश्विक वैश्विक स्तर पर वित्तीय सेवाएं मुहैया करानेवाली जापानी संस्था नोमुरा ने कहा है कि सोने की गिरती कीमतों से भारत के चालू खाते के घाटे या घरेलू मुद्रा पर फिलहाल किसी दबाव की संभावना नहीं है क्योंकि अब इस धातु का असर बहुत कम हो गया है. इस कारण यह परिघटना किसी चिंता की बात नहीं है. संस्था के अनुसार, 2009 से कम मुद्रास्फीति, रिजर्व बैंक की बढ़ती साख और वित्तीय परिसंपत्तियों के ठोस प्रदर्शन ने निवेश के रूप में सोने के महत्व को कम कर दिया है.
सोने की घरेलू कीमतें चार साल में सबसे कम दर पर करीब 23 हजार रुपये प्रति 10 ग्राम के आसपास हैं. सोने की कीमत और मांग में संबंध 2009 से ही ‘नकारात्मक’ से ‘सकारात्मक’ हो गया है. इसके लिए अनेक कारक जिम्मेवार रहे हैं जिनमें सोने को पूरी तरह से एक उपभोक्ता वस्तु न मान कर निवेश परिसंपत्ति के रूप में देखा जाना मुख्य है.
नोमुरा के अनुसार, रुपया के हिसाब से शेयर में निवेश सोने में निवेश से अधिक लाभकारी हुआ है. हालांकि इस संस्था ने माना है कि साल के आखिर में मांग बढ़ सकती है, लेकिन इससे उसके रुपये के मध्यावधि अनुमान पर असर नहीं होगा. फिलहाल रुपया 63 रुपया प्रति डॉलर के दर के आसपास बना हुआ है.
नोमुरा ने कहा है कि अर्थव्यवस्था में क्रमिक सुधार के साथ भारत का बाह्य नुकसान की संभावनाएंकम हो रही हैं तथा रिजर्व बैंक के रुपये के कारोबार में कम-से-कम हस्तक्षेप भी उचित संकेत हैं. आंकड़ों से यह भी रुझान मिल रहे हैं कि सोने की मांग में कमी बनी हुई है. नोमुरा ने इसके लिए ग्रामीण आमदनी की कमी और कमजोर मॉनसून को उल्लेखनीय कारण माना है, क्योंकि सोने की बहुत अधिक खरीद ग्रामीण आबादी ही करती है.
(स्नेत : द टाइम्स ऑफ इंडिया)
भारत की अर्थव्यवस्था पर तत्काल असर नहीं
शंकर अय्यर
आर्थिक मामलों के जानकार
सोने की कीमतों में आ रही गिरावट के कई कारण हैं. अकसर देखा गया है कि विश्व अर्थव्यवस्था में जब कोई मुद्दा सामने आता है, तब निवेशक अपना पैसा सुरक्षित जगह लगाने लगते हैं. वर्ष 2008 में आयी आर्थिक मंदी के समय डॉलर सुरक्षित करेंसी नहीं थी, उस समय लोग सोने में निवेश को सुरक्षित मानने लगे.
मौजूदा समय में डॉलर की स्थिति अच्छी है. यही नहीं अमेरिका का फेडरल बैंक ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी करनेवाला है. इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था में संशय की स्थिति बनी हुई है. ऐसे हालात में लोग सोने में पैसा निवेश करने की बजाय दूसरी चीजों में निवेश कर रहे हैं.
हमेशा यही देखा गया है कि जब डॉलर मजबूत होता है, तब कमोडिटी की कीमतें कमजोर हो जाती हैं और जब डॉलर कमजोर होता है, तब सोने की कीमत बढ़ जाती है. निवेश के लिए डॉलर को सबसे सुरक्षित माना जाता है, लेकिन जब यह कमजोर होता है, तो पैसा सोने में निवेश होने लगता है.
सोने की कीमत में आ रही लगातार गिरावट का तत्काल भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोई असर नहीं पड़ेगा. लेकिन, अगर लंबे समय तक इसकी कीमतों में गिरावट का दौर जारी रहता है, तब इसका कुछ असर पड़ने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है. देश में अगले कुछ महीनों में शादी और त्योहरों का मौसम आनेवाला है. ऐसे में सोने की मांग में वृद्धि की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है. चीन और भारत सोने के बहुत बड़े उपभोक्ता हैं.
लेकिन, चीन की अर्थव्यवस्था में तेजी नहीं देखी जा रही है. कोई भी अर्थव्यवस्था एक स्तर पर पहुंचने के बाद वहां मांग कम होने लगती है. चीन में भी सोने की मांग कम हो गयी है.
चीनी लोग सोने की बजाय शेयर बाजार में बड़े पैमाने पर निवेश कर रहे हैं. भारत के मुकाबले चीन में शेयर बाजार में निवेश करनेवाले लोगों की संख्या काफी अधिक है. यूनान संकट के समाधान और चीन के शेयर बाजार में आयी स्थिरता के कारण चीनी शेयर बाजार में निवेश बढ़ा.
दरअसल, चीन के शेयर बाजार में अस्थिरता के दौर में 12 जून से जुलाई के पहले हफ्ते तक 3 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हुआ. बाद में स्थिति सुधरने पर नुकसान की भरपायी के लिए वहां के लोगों ने सोने के बजाय शेयर बाजार में निवेश करना शुरू कर दिया.
इसके अलावा घरेलू स्तर पर सोने की खरीद में कमी की वजह है एक लाख की खरीद पर पैन कार्ड की जरूरत. इससे खरीदार के मन में शंका है कि सरकार उन पर नजर रख रही है. भारत में सोने के प्रति लोगों का आकर्षण काफी पुराना है.
यही कारण है कि भारत सोने का सबसे बड़ा आयातक देश है. वर्ष 2008 में भारत में सोने की 679 टन मांग थी, जो 2011 में बढ़ कर 975 टन हो गयी. लेकिन इसकी मांग में थोड़ी कमी आयी. सरकार ने सोने के आयात पर रोक लगाने के लिए आयात शुल्क भी बढ़ाया था. सोने की बढ़ती मांग से देश का चालू बचत घाटा काफी बढ़ गया था. लेकिन अब सोने की कम होती कीमतों से सरकार का आयात खर्च कम होगा. भारत में सोने की दो-तिहाई खरीद ग्रामीण क्षेत्र में होती है.
लेकिन, मॉनसून के कमजोर होने की आशंका के कारण सोने की मांग पर असर पड़ा है. ऐसा नहीं है कि कम होती कीमतों से सोने की चमक फीकी पड़ जायेगी. अगर मॉनसून अच्छा रहा, तो एक बार फिर इसकी मांग में तेजी आयेगी. मध्यवर्ग के लोग भी कम होती कीमतों को देखते हुए सोना खरीदेंगे.
(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)
गिरावट से पूर्व सोने के भाव की स्थिति
अगर दीर्घकालीन परिदृश्य को देखें, तो 1980 के बाद करीब तीन दशकों तक सोने की कीमतों में बहुत मामूली वृद्धि हुई थी. मुद्रास्फीति के साथ उस वृद्धि को समायोजित करें, तो और भी कम प्रतीत होती है. लंदन में 21 जनवरी, 1980 को सोने की कीमत 850 डॉलर प्रति औंस निर्धारित की गयी थी.
उसके बाद पहली बार सोना उस दाम के पार तीन जनवरी, 2008 को पहुंचा और उसी वर्ष मध्य मार्च तक एक हजार डॉलर की सीमा पार कर गया. वर्ष 2008 के अक्तूबर के अंत तक वित्तीय संकट के कारण उसकी कीमत में भारी गिरावट दर्ज की गयी और वह 700-750 डॉलर के स्तर तक आ गिरा.
स्थिति में सुधार के साथ सोना भी मजबूत हुआ और पांच सितंबर, 2011 को उसकी कीमत 1,895 प्रति औंस तक जा पहुंची. लेकिन उसके बाद वह 1,100 डॉलर से थोड़ा ऊपर के स्तर पर बना रहा. भारत में 24-कैरेट सोने की कीमत 28 अगस्त, 2013 को मुंबई में 33,265 रुपये प्रति 10 ग्राम तक पहुंच गयी थी. इस सप्ताह बुधवार को यह कीमत 24,820 रुपये रही, जो कि छह अगस्त, 2011 के बाद सबसे कम है.
भारत में क्यों गिर रही है सोने की कीमत?
भारत सोने की अपनी जरूरत का अधिकांश आयात करता है. इस कारण स्वाभाविक रूप से अंतरराष्ट्रीय बाजार में गिरावट से यहां भी कीमतों में कमी हो जाती है. रुपये का मूल्य भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. जब 28 अगस्त, 2013 को मुंबई में सोने की कीमतें 33,265 रुपये प्रति 10 ग्राम के स्तर तक पहुंच गयी थीं, उसी दिन दिन भर के कारोबार में रुपया भी डॉलर की तुलना में 68.85 रुपये तक गिर गया था. भारत में निवेश के विकल्प के रूप में सोने की मांग बढ़ गयी, क्योंकि बाहरी और आंतरिक रूप से रुपये को एक कमजोर मुद्रा के रूप में देखा जाने लगा. आज स्थिति तब से बिल्कुल भिन्न है.
रुपया मजबूत बना हुआ है और मुद्रास्फीति भी पहले की तुलना में कम है. ऐसे में सोने को बेहतर विकल्प के रूप में नहीं देखा जा रहा है. सोने के कारोबार से संबंधित फंडों से बड़ी बिकवाली इस बात का एक सबूत है. आभूषण बनाने में प्रयुक्त होने के तथा बचत के साधन (पर शायद बहुत लंबे समय के लिए नहीं) के अलावा सोने की उपयोगिता बहुत न्यून है. जमीन से किराया, शेयरों से लाभांश या बॉंड से ब्याज की तरह सोना कोई आय भी मुहैया नहीं कराता.
क्या कीमतें निकट भविष्य में बढ़ सकती हैं?
कम-से-कम निकट भविष्य में ऐसी संभावना नहीं है. डॉलर मजबूत बना हुआ है और अमेरिकी फेडरल रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में बढ़ोतरी की संभावनाएं लगातार अपरिहार्य होती जा रही हैं. डॉलर की ठोस स्थिति एक हजार डॉलर प्रति औंस की सोने की औसत कीमत की परीक्षा ले सकती है.
यूनान के डिफॉल्ट होने या यूरो जोन से निकलने का खतरा फिलहाल टल जाने तथा ईरान के साथ वैश्विक महाशक्तियों के परमाणु करार होने से सोने के लिए कोई बहुत सुरक्षित जगह बची नहीं है. जहां तक भारत का सवाल है, ग्रामीण भारत में गिरती क्रय क्षमता सोने की कीमत के लिए बड़ी नकारात्मकता है. भारत में सोने की मांग का दो-तिहाई गांवों से ही आती है.
ऐसे में फसलों की कम कीमत और मॉनसून को लेकर बनी अनिश्चितता अओने-चांदी के कारोबारियों और आभूषण व्यापारियों के लिए अच्छी खबर नहीं है. लेकिन यह देश के भुगतान संतुलन के लिए बुरी स्थिति नहीं है.
वर्ष 2011-12 और 2012-13 में सोने काआयात 55-56 बिलियन डॉलर के साथ अपने चरम पर था, और यह तेल आयात के साथ चालू खाता घाटे का मुख्य कारण था. पिछले दो वर्षों से यह गिरकर 29-34 बिलियन डॉलर के स्तर पर आ गया है. इस वर्ष इसमें और भी कमी हो सकती है.
स्नेत : द इंडियन एक्सप्रेस.

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