सनल इडामारूकू इंडियन रेसनलिस्ट एसोसिएशन के प्रेसिडेंट हैं, जो कि लगातार काले जादू और अंधविश्वास के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं. कैथोलिक चर्च द्वारा ईशनिंदा का आरोप लगाये जाने के बाद वे स्वत: देश छोड़कर फिनलैंड में रह रहे हैं. सनल इडमारूकू ने अंधविश्वास के मसले पर हाल ही अंगरेजी पत्रिका फ्रंटलाइन को एक विस्तृत साक्षात्कार दिया है. पेश है पंचायतनामा के लिए संतोष कुमार सिंह द्वारा फ्रंटलाइन पत्रिका में प्रकाशित साक्षात्कार का अनुवादित व संक्षिप्त अंश..
एक तरफ यह कहा जा रहा है कि देश आर्थिक प्रगति कर रहा है? वहीं दूसरी ओर देश में अंधविश्वास का बोलबाला है? इसे किस रूप में देखते हैं?
इन दिनों व्यापक तौर पर लोग रेसनलिज्म (तार्किकता) के महत्व को स्वीकार करने लगे हैं. जैसे-जैसे समाज बदलता है, वह बदलाव सभी को प्रभावित करता है. भारत भी इससे अछूता नहीं है, भारत में भी इस तरह के बदलाव परिलक्षित हो रहे हैं. सामाजिक वास्तविकता और मान्यताओं में होने वाला तीव्र बदलाव निश्चित तौर पर कई लोगों को नागवार गुजरता है.
हो सकता है कि उन्हें इस बात का डर हो कि उनकी धारणा और स्थापित मान्यताओं में व्यापक तौर पर बदलाव हो सकता है. इसलिए, एक तरह की असुरक्षा जो उनके मन में घर कर जाती है, इस वजह से भी वे कल्पना लोक में विचरण करने के साथ ही, अपने इर्द-गिर्द एक आवरण ओढकर इसे सुरक्षा चक्र के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं. एक तरफ जहां लोगों के पुरानी मान्यताएं और धार्मिक विश्वास टूट रहे हैं, वहीं नये जमाने के नये ब्रांडों के गुरु उन्हें अपने तरीके से एक विकल्प मुहैया करा रहे हैं, जिसके पीछे कारण उनका तात्कालिक रूझान है.
और इसके परिणाम स्वरूप अंधविश्वासों को बढावा मिल रहा है. यहां तक कि शिक्षित, आगे बढने वाले लोग, शहरी मध्यवर्ग का हिस्सा भी इसका समर्थन कर रहा है. उनका जीवन तेज गति से बदल रहा है, उन्हें नयी प्रकार कीचुनौतियों, अवसरों और विकल्प प्राप्त हैं. कभी-कभी आधुनिक सोच वाले और संवेदनशील लोगों को भी अकस्मात ऐसा महसूस होता है कि उन्हें परंपरागत धार्मिक व्यवहारों का अनुपालन करना चाहिए और वे जीवन की नयी परिभाषा गढते हुए अंधविश्वासों की तरफ मुड़ते हैं. और आधुनिक बाबा ऐसी परिस्थितियों का खूब लाभ उठा रहे हैं.
आखिर लोग अंधविश्वासों की ओर मुड़ने के लिए क्यों मजबूर होते है?
देश के अलग-अलग हिस्सों में विभिन्न स्तरों पर समाज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है. गांवों में जहां नजदीकी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की दूरी कम से कम 20 किलोमीटर है. ऐसे इलाकों में झाड़-फू ंक करने वाले या जादू-टोने करने वालों का प्रभाव ज्यादा होता है. इसके साथ ही वैसे स्थान जहां साक्षरता दर काफी कम है, वहां ऐसे अंधविश्वासों का बोलबाला होता है, जबकि वैज्ञानिक पद्धति या वैज्ञानिक खोज के प्रति लोगों की चेष्टा कम ही होती है. लेकिन साक्षरता और स्वास्थ्य सुविधाओं में कमी ही एक मात्र मानक नहीं है. शहरों में और यहां तक की उच्च शिक्षा प्राप्त लोग भी कभी कभार अंधविश्वास और जादू टोने की गिरफ्त में होते हैं. विकसित समाज और अल्प विकसित समाज में भी विज्ञान और वैज्ञानिक सोच के प्रति आमजनता में व्यापक समझ नहीं दिखती है.
गांव में जब हम अभियान चलाते हैं, कभी-कभार हमारा सामना वैसे युवाओं से होता है जो अशिक्षित हैं, या थोड़े पढे लिखे हैं, उन्हें कभी भी तार्किक सोच या वैज्ञानिक चिंतन पद्धति के विषय में जानकारी प्राप्त करने का मौका नहीं मिला है. उन्हें ऐसे आश्चर्यजनक(मिरेकल) अनुभूति से लगाव होता है, क्योंकि उन्हें ऐसा लगता है कि उनके जीवन में किसी न किसी दिन ऐसी कोई आश्चर्यजनक घटना घटित हो सकती है. इसलिए वे बिना आधार के भी अंधविश्वासों या सुनी-सुनाई बातों पर ज्यादा भरोसा करते हैं. उनका अंधविश्वास तभी कम हो सकता है जब उनकी आंखो के आगे अंधविश्वास के पड़े पदरें को हटाया जाये. इसलिए हमने ऐसी तकनीक विकसित की है कि उन्हें आश्चर्यजनक प्रतीत हो और उनका दिमाग खुले. पढ़े-लिखे लोगों का एक ऐसा समूह भी है जो अंधविश्वास का समर्थक है. पूरी तरह से व्यवस्थित और सुविधा संपन्न जिंदगी व्यतीत करने के बाद भी वह ऐसी धारणाओं और अदृश्य सत्ता पर विश्वास करता है. ऐसा वह ज्ञान की कमी की वजह से नहीं करता है. वह तर्क की तुलना में मिरेकल को ज्यादा तरजीह देता है. वह तर्क और वैज्ञानिक विश्वास पर इन चीजों को ज्यादा तरजीह देता है. इस दो तरह के अतिवादी सोच के लोगों के बीच अशिक्षित ग्रामीण और जिद्दी किस्म के लोगों के बीच बिचौलिये किस्म के ब्रांड अम्बासडर हर जगह दिखते हैं. हमारी मुख्य कोशिश होती है कि पीड़ितों को मुक्त कराया जाये और उनकी चेतना को जगाया जाये, और बड़ी ताकतों को एक्सपोज किया जाये.
प्राथमिक तौर पर आपकी लड़ाई अंधविश्वास के खिलाफ है या फिर धर्म के खिलाफ आपकी लड़ाई है?
मैं धर्म के खिलाफ नहीं हूं. धर्म व्यक्ति की व्यक्तिगत आस्था से जुड़ा हुआ होता है, लेकिन जिस तरह से धर्म का भय दिखाया जाता है, और उस भय की वजह से व्यक्तिगत जीवन प्रभावित होता है, यह गलत है. मैं इन लोगों को इन सब बंधनों से मुक्त कराने की इच्छा रखता हूं, लेकिन अंतिम फैसला व्यक्ति विशेष का ही होता है. हमारा मानना है कि वैसी संस्थाओं और वैसे लोगों पर रोक लगाया जाये जो अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं. कुछ दशकों से यह तथ्य सामने आया है कि दुनिया में हर जगह धार्मिक संस्थाएं नीचे की ओर जा रही हैं. वे या तो नीचे जा रही हैं या केवल सैद्धांतिक तौर पर बनी हुई हैं.
टीवी और इंटरनेट जैसे संचार माध्यमों को काले जादू और अंधविश्वासों को बढावा देने में कितना योगदान है? आखिर इन्हें अंधविश्वासों को खत्म करने के लिए कैसे सफलता पूर्वक इस्तेमाल किया जा सकता है.
टीवी अपने व्यापक नेटवर्क के जरिए देश के दूरदराज के हिस्से में पहुंच रहा है, और इसका व्यापक प्रभाव भी है. अगर ये माध्यम सिर्फ मनोरंजन भी परोस रहे हैं, तब भी ये लोगों के लिए एक बड़ी दुनिया से जुड़ने का माध्यम बन रहे हैं. उन्हें विभिन्न संस्कृतियों के बीच तुलना करने का अवसर मिल रहा है. कुछ टीवी चैनलों ने यह निर्णय लिया कि वे तार्किकता और वैज्ञानिक सोच को बढावा देने वाले रेसनलिस्ट फोर्स और अंधविश्वासों को बढावा देने वाली ताकतों के बीच बहस करायेंगे, तो इससे लोगों में तार्किक सोच के प्रति जागरूकता काफी बढी है और रेसनिल्सट लोगों का सर्मथन भी बढा है. हालांकि कुछ टीवी चैनलों पर रेसनिलिस्ट फोर्स की ताकतों को कम करने के लिए और अदृश्य ताकत और अदृश्य सत्ता को बढावा देने वालों ने चौबीसों घंटे इस तरह के प्रचार-प्रसार का सहारा लिया. लेकिन रेसनलिस्ट ताकतों ने अपने तर्क और वैज्ञानिकता का सहारा लेते हुए इनके हर कुतर्क का जवाब देने का प्रयास किया है. मुङो इस बात की खुशी है कि मैंने विभिन्न टीवी चैनलों पर आयोजित परिचर्चाओं में भाग लेकर लोगों को अंधविश्वास के प्रति सजग किया है.
डॉ दाभोलकर की हत्या के बाद आप भारत में रेसनलिस्ट मूवमेंट का क्या भविष्य देखते हैं? आप खुद भी देश से बाहर स्वनिष्काषित जीवन जी रहे हैं? भारत लौटने की आपकी क्या योजना है?
हिंसा हमेशा भय पैदा करता है. लेकिन आक्रमणों और धमकियों के बावजूद अभी भी बेहतर उम्मीद है. पिछले चार दशकों में जबसे मैं रेसनलिस्ट अभियान के साथ जुड़ा हुआ हू, और ऐसी आश्चर्यचकित करने वाली घटनाओं के विषय में कई तरह का खुलासा किया है; मुङो लगता है कि हाल के वर्षो में लोगों के अंदर वैज्ञानिक सोच और तर्क के साथ किसी बात को स्वीकार करने की प्रवृत्ति बढी है. रेसनलिस्ट प्रभावों को महत्व मिलने में काफी वक्त लगेगा, लेकिन हमें लगता है भारतीय समाज अब मध्ययुगीन सोच और अंधविश्वास को तोड़ते हुए आगे बढ रहा है. केवल आसाराम बापू ही एकमात्र संत नहीं हैं, जिन्हें इन दिनों जनता के कोप का भाजन बनना पड़ रहा है. जनता उन सभी शक्तियों के खिलाफ जागरूक हो रही है जो खुद को ईश्वरीय सत्ता होने का दावा करते हैं. जहां तक मेरे भारत लौटने का प्रश्न है मैं जितना जल्दी संभव हो ऐसा करूंगा, लेकिन मैं इसके लिए अपने जीवन को जोखिम में डालकर खुद को शहीद नहीं बनाना चाहता. यहां रहते हुए भी मैंने अपना काम जारी रखा है.
(फ्रंटलाइन पत्रिका से साभार)