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झारखंडी भाषा का प्रसार कर रही वंदना

रांची: झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा पिछले 10 वर्षो से राज्य की पारंपरिक भाषा-संस्कृति को समृद्ध कर रहा है. वंदना टेटे इसकी संस्थापक महासचिव हैं. आज अखड़ा न केवल राज्य के आदिवासी लेखकों को एक मंच दे रहा है, बल्कि आदिवासी साहित्य के जरिए राष्ट्रीय परिदृश्य में आदिवासी सवालों पर सार्थक हस्तक्षेप भी कर रहा […]

रांची: झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा पिछले 10 वर्षो से राज्य की पारंपरिक भाषा-संस्कृति को समृद्ध कर रहा है. वंदना टेटे इसकी संस्थापक महासचिव हैं. आज अखड़ा न केवल राज्य के आदिवासी लेखकों को एक मंच दे रहा है, बल्कि आदिवासी साहित्य के जरिए राष्ट्रीय परिदृश्य में आदिवासी सवालों पर सार्थक हस्तक्षेप भी कर रहा है. वंदना पिछले आठ सालों से अपनी त्रैमासिक पत्रिका ‘झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ के जरिए सभी झारखंडी भाषाओं के साहित्य को प्रकाश में ला रही हैं़ नागपुरी में ‘जोहार सहिया’ मासिक पत्रिका और ‘जोहार दिसुम खबर’ नामक पाक्षिक पत्र का प्रकाशन भी कर रही हैं.

फाउंडेशन की ओर से अब तक आदिवासी, क्षेत्रीय और हिंदी भाषाओं में लगभग सवा सौ किताबें प्रकाशित कर चुकी हैं़ वहीं, प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन ने भी वंदना टेटे के नेतृत्व में कई उल्लेखनीय काम किये हैं़ वर्ष 2002 में देश-विदेश तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए ‘खड़िया डॉट इन’ नामक वेबसाइट बनायी़ यह हिंदी, झारखंड की आदिवासी व क्षेत्रीय 10 भाषाओं में भारत की पहली व एकमात्र साइट थी. उनकी मदद से झारखंडी भाषाओं में ‘पांजा’, ‘आखांइन’, ‘गोतिया’, ‘सांगोम’ आदि दर्जन भर पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हुआ. खोरठा, नागपुरी और हिंदी में अनेक वेबसाइटों का निर्माण भी फाउंडेशन द्वारा करवाया गया. आज इसके सारे प्रकाशन ऑनलाइन उपलब्ध हैं और फेसबुक जैसे सोशल साइट्स पर बेहद लोकप्रिय हैं.

साहित्यिक अभिरुचि
1969 में जन्मी वंदना टेटे अपनी माता-पिता की बड़ी बेटी हैं. उन्हें सांस्कृतिक आंदोलन और साहित्यिक अभिरुचि पारिवारिक विरासत में मिली है. उनके नाना प्यारा केरकेट्टा जाने-माने राजनीतिज्ञ, शिक्षाविद्, समाज सुधारक व सांस्कृतिक अगुआ थे. उन्होंने 1930 से 1950 के बीच झारखंड-ओड़िशा के सीमावर्ती इलाकों में जनसहयोग से सैकड़ों स्कूल स्थापित किये, जो आजादी के बाद सरकारी हो गये. देश की वरिष्ठ आदिवासी महिला शिक्षाविद व साहित्यकार डॉ रोज केरकेट्टा वंदना टेटे की मां हैं. वंदना मैट्रिक के बाद से ही सामाजिक कार्यो से जुड़ गयी थीं. रांची वीमेंस कॉलेज से बीए करने के बाद राजस्थान चली गयीं और राजस्थान विद्यापीठ के उदयपुर स्कूल ऑफ सोशल वर्क से 1995 में परिवार एवं बाल कल्याण में मास्टर इन सोशल वर्क की डिग्री हासिल की.

पत्रकारिता में योगदान
हिंदी एवं आदिवासी भाषा ‘खड़िया’ में लेख, कविताएं, कहानियां स्थानीय एवं राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित तथा आकाशवाणी रांची (झारखंड) से लोकगीत, वार्ता व साहित्यिक रचनाएं प्रसारित़ झारखंड आंदोलन की पत्रिका ‘झारखंउ खबर’ (1990-92, रांची) का उप-संपादन. झारखंड की पहली आदिवासी बहुभाषायी (आदिवासी, क्षेत्रीय एवं हिंदी सहित 11 भाषाओं में) त्रैमासिक पत्रिका ‘झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ का नियमित प्रकाशन एवं संपादन 2004 स़े झारखंड की आदिवासी-देशज भाषा ‘नागपुरी’ में मासिक पत्रिका ‘जोहार सहिया’ का नियमित प्रकाशन एवं प्रधन संपादक फरवरी 2007 से. खड़िया मासिक पत्रिका ‘सोरिनानिंग’ का संपादन-प्रकाशन 2008 से. प्रकाशित पुस्तकें :़ पुरखा लड़ाके (आदिवासी इतिहास), किसका राज है (आदिवासी समुदाय के सामाजिक-आर्थिक सवालों पर विमर्श), झारखंड एक अंतहीन समरगाथा (बच्चों के लिए झारखंड के इतिहास पर सचित्र पुस्तिका),असुर सिरिंग (असुर लोकगीतों का संग्रह-संपादन सुषमा असुर के साथ),आदिवासी साहित्य : परंपरा और प्रयोजन (आदिवासी साहित्य सिद्घांत).

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