मुद्दा
जुवेनाइल जस्टिस पर यह चुप्पी क्यों ?
भाग-2
स्वाति पराशर
बात सिर्फ दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले की नहीं है, अगर गौर करें तो ऐसे कई मामले हमें मिलेंगे, जहां आरोपी की उम्र सीमा 18 वर्ष से कम होती है. दिल्ली मामले के बाद बाल अपराध कानून में बदलाव को लेकर मांगें तेज हो गयी थीं. इसने एक बड़े वर्ग में रोष पैदा किया था.
आपराधिक गतिविधियों में 16 से 18 वर्ष के किशोरों की सक्रियता बढ़ने के कारण किशोर न्याय अधिनियम (जुवेनाइल जस्टिस एक्ट) में बदलाव लाने के लिए जनहित याचिकाएं दायर होने लगीं.मांगें की जा रही थीं कि किसी किशोर पर एक वयस्क की तरह कानूनी कार्रवाई होने की न्यूनतम आयु सीमा 16 साल की जाये, जो अभी 18 साल है. मगर वक्त के साथ-साथ ये फाइलें और मांगें धीमी पड़ गयी.
कुछ लोगों ने इस कानून को सही ठहराया और तर्क दिया गया कि हम इससे बेहतर नहीं कर सकते थे. देश के कानून को सभी मामलों में सही ठहराने के इस सिद्धांत से मैं भी सहमत होती मगर तब, जब कानून के समक्ष हर अपराधी को समान रूप से पेश किया जाता. लेकिन भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जहां जनता के हित के लिए सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक फैसले को भी उलट दिया जाता है.
(खास कर जब फैसला महिलाओं के हित में हो, जैसा कि शाह बानो, अरुणा शानबाग, अमानत के केस के साथ हुआ).
हम में से कइयों ने कश्मीरी आतंकवादी अफजल गुरु को विश्वसनीय साक्ष्य के अभाव में फांसी देने की मांग का विरोध भी किया था, लेकिन हमारे सामने यह विचार रखा गया कि समाज को संतुष्ट रखने के लिए उसे फांसी की सजा दी जानी जरूरी है. लगता है अब हमारे देश का कानून अब सिर्फ अमीर और प्रभावशाली लोगों को बचाने भर के लिए रह गया है. महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा और अपराध रोकने के लिए कई बार लोगों ने कड़े कानून बनाने के लिए सड़कों को जाम किया, दुष्कर्मियों के खिलाफ नारे लगाये, लेकिन हमारी न्यायपालिका ने इस पर विचार करने की भी चेष्टा नहीं की.