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‘क्लासिफाइड’ या सच छुपाने की सरकारी तरकीब?

वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में बने द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट ‘राइट टू इंफॉर्मेशन : मास्टर की टू गुड गवर्नेंस’ में ऑफिसियल सिक्रेसी एक्ट, 1923 को खत्म करने की सिफारिश की गयी थी.लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सरकारें को ‘पब्लिक’ और नागरिकों को ‘प्राइवेट’ कहा जाता है, इसीलिए सरकारों से पारदर्शिता की मांग की जाती है […]

वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में बने द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट ‘राइट टू इंफॉर्मेशन : मास्टर की टू गुड गवर्नेंस’ में ऑफिसियल सिक्रेसी एक्ट, 1923 को खत्म करने की सिफारिश की गयी थी.लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सरकारें को ‘पब्लिक’ और नागरिकों को ‘प्राइवेट’ कहा जाता है, इसीलिए सरकारों से पारदर्शिता की मांग की जाती है और लोगों की निजता उनके बुनियादी अधिकारों का आधार होती है.
हालांकि देश की सुरक्षा और हितों के लिहाज से कुछ सूचनाओं को गोपनीय रखना भी आवश्यक होता है. परंतु क्या यह गोपनीयता असीमित और अपरिमित होनी चाहिए? दिलचस्प है कि विभिन्न देशों की अन्य नीतियां भले ही अलग-अलग हों, पर उनके गोपनीयता कानून लगभग एक-जैसे हैं. भारत समेत कुछ देशों के ऐसे ही कानूनों पर एक नजर आज के विशेष में..
सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु या लापता होने से संबंधित सूचनाओं और दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की मांग के कारण केंद्र सरकार ने सूचना के अधिकार कानून, 2005 की व्यवस्थाओं के संदर्भ में ऑफिसियल सिक्रेसी एक्ट, 1923 की समीक्षा का निर्णय लिया है.
समीक्षा पैनल में कैबिनेट सचिव अजीत सेठ के अलावा रिसर्च एंड एनालिसिस विंग, इंटेलिजेंस ब्यूरो, केंद्रीय गृह मंत्रलय और प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारी होंगे. उम्मीद की जा रही है कि इस समीक्षा से न सिर्फ नेताजी से जुड़े रहस्यों से परदा हटेगा, बल्कि सरकारी दस्तावेजों के सार्वजनिक करने के तौर-तरीकों और रवैयों में बदलाव आयेगा.
दुनिया के विभिन्न लोकतांत्रिक देशों में दस्तावेजों को 25 से 30 साल के बाद सामान्यत: सार्वजनिक कर दिया जाता है, लेकिन भारत में ऐसा नहीं है. ऑफिसियल सिक्रेसी एक्ट की आड़ में और राष्ट्रीय सुरक्षा तथा हितों का बहाना बनाकर उन्हें जनता के सामने नहीं रखा जाता है.
सूचना के अधिकार कानून के तहत व्यवस्था है कि सारे गोपनीय दस्तावेज 20 वर्ष के बाद जारी कर दिये जाने चाहिए, लेकिन इसके साथ यह उपबंध भी जोड़ा गया है कि सरकार ऑफिसियल सिक्रेसी एक्ट के तहत फाइलों को डिक्लासिफाइ नहीं भी कर सकती है. उल्लेखनीय है कि यह एक्ट 1923 यानी ब्रिटिश राज के दौरान बनाया गया था, जिसे कई कानूनों की तरह आजाद भारत में भी जारी रखा गया है.
इसमें 1967 में कुछ संशोधन कर कुछ और कड़े प्रावधान जोड़ दिये गये थे. गोपनीय और क्लासिफाइड फाइलों की तो बात छोड़ दें, जिन दस्तावेजों को गोपनीय की श्रेणी से बाहर यानी डिक्लासिफाइ कर दिया जाता है, वे भी लोगों को नहीं मिल पाते हैं.
क्या हैं क्लासिफाइड दस्तावेज?
किसी दस्तावेज में उल्लिखित सूचना की संवेदनशीलता और सार्वजनिक करने से राष्ट्रीय सुरक्षा पर पड़नेवाले असर के आधार पर क्लासिफाइड दस्तावेजों को चार श्रेणियों में रखा जाता है : टॉप सिक्रेट, सिक्रेट, कॉन्फिडेंसियल और रेस्ट्रिक्टेड.
अति गोपनीय सूचनाएं वह हैं जिनके खुलासे से राष्ट्रीय सुरक्षा या राष्ट्रीय हितों को अत्यधिक नुकसान पहुंच सकता है. इसमें देश के सबसे गंभीर रहस्य शामिल हैं. सिक्रेट श्रेणी में ‘अत्यंत महत्वपूर्ण मामले’ आते हैं जिनके सार्वजनिक होने से देश की सुरक्षा या हितों को ‘गंभीर नुकसान’ हो सकता है या सरकार के लिए गंभीर परेशानी खड़ी हो सकती है. आम तौर पर वर्गीकरण की यह सबसे उच्च श्रेणी है.
कॉन्फिडेंसियल सूचनाएं अपेक्षाकृत कम गंभीर श्रेणी में आती हैं. रेस्ट्रिक्टेड उन सूचनाओं को कहा जाता है, जो सिर्फ आधिकारिक प्रयोग के लिए होती हैं, जिन्हें आधिकारिक प्रयोग की सीमा के बाहर प्रकाशित या साझा नहीं किया जा सकता है. जो दस्तावेज इन चार श्रेणियों में नहीं आते, उन्हें ‘अनक्लासिफाइड’ माना जाता है.
वर्गीकरण के आधार
केंद्रीय गृह मंत्रलय द्वारा जारी विभागीय सुरक्षा निर्देशों के तहत दस्तावेजों का वर्गीकरण किया जाता है. कई बार सूचना के अधिकार कानून के तहत जानकारी मांगे जाने के बावजूद गृह मंत्रलय ने इन निर्देशों या वर्गीकरण के आधारों की जानकारी मुहैया नहीं करायी है.
सितंबर, 2010 में प्रकाशित केंद्रीय सचिवालय मैनुअल ऑफ ऑफिस प्रोसिजर (13वां संस्करण) में क्लासिफाइड दस्तावेजों के रख-रखाव के बारे में जानकारी दी गयी है, परंतु इसमें दस्तावेजों के वर्गीकरण के आधारों का कोई उल्लेख नहीं है. टॉप सिक्रेट दस्तावेज संयुक्त सचिव स्तर से और सिक्रेट दस्तावेज उप सचिव स्तर से नीचे नहीं भेजा जाता है.
डिक्लासिफिकेशन
पब्लिक रिकार्ड्स एक्ट, 1993 और पब्लिक रिकॉर्ड्स रुल्स, 1997 की व्यवस्थाओं के अनुसार, जिस विभाग से संबंधित दस्तावेज होता है, उसका अधिकारी, जो उप सचिव से नीचे स्तर का न हो, दस्तावेज को डिक्लासिफाइ कर सकता है. जिस दस्तावेज को सुरक्षित रखने की जरूरत होती है, उसे राष्ट्रीय अभिलेखागार भेज दिया जाता है. हर पांच साल में दस्तावेजों की समीक्षा होती है और 25 वर्षों से अधिक पुरानी फाइलें अमूमन राष्ट्रीय अभिलेखागार में स्थानांतरित कर दी जाती हैं.
परंतु कुछ दस्तावेज संबंधित विभाग में ही रख लिये जाते हैं, जैसे प्रधानमंत्री कार्यालय ने परमाणु परीक्षण से जुड़ी फाइलों को अभिलेखागार में नहीं भेजा है. सरकार ने हाल में पब्लिक रिकार्ड्स एक्ट की समीक्षा का इरादा व्यक्त किया है.
ऑफिसियल सिक्रेट एक्ट और सूचना का अधिकार
सूचना का अधिकार कानून के अनुसार सिक्रेसी एक्ट से टकराव की स्थिति में यदि क्लासिफाइ के आधारों से अधिक महत्वपूर्ण व्यापक जनहित हैं, तो दस्तावेज को जारी किया जायेगा.
यूपीए सरकार के दौरान वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में बने द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट ‘राइट टू इंफॉर्मेशन : मास्टर की टू गुड गवर्नेंस’ में ऑफिसियल सिक्रेसी एक्ट, 1923 को खत्म करने की सिफारिश की गयी थी, पर उसे इस तर्क के आधार पर अस्वीकार कर दिया गया था कि यह ‘एकमात्र ऐसा कानून है जो जासूसी, अनाधिकृत रूप से दस्तावेज रखना और सुरक्षा से जुड़े संवेदनशील सूचनाओं का संचार से संबंधित है.’
सुधार आयोग ने यह भी सुझाव दिया था कि विभागीय सुरक्षा निर्देशों को भी संशोधित किया जाये और ऐसी सूचनाओं को ही सुरक्षा क्लासिफिकेशन दिया जाये जिन्हें सूचना का अधिकार कानून से छूट की जरूरत है. इस पर सरकार का कहना था कि इस कानून के आधार पर दस्तावेजों को वर्गीकृत करना संभव नहीं है.
डिक्लासिफिकेशन के अमेरिकी कानून
संयुक्त राज्य अमेरिका में ब्रिटेन या भारत के ऑफिसियल सिक्रेट्स एक्ट की तरह कानून नहीं हैं. वहां अनेक कानून है जो सामूहिक रूप से क्लासिफाइड दस्तावेजों और सूचनाओं की सुरक्षा करते हैं.
ऐसे कानूनों में एस्पिनॉज एक्ट, 1917; इंवेंशन सिक्रेसी एक्ट, 1951; एटॉमिक एनर्जी एक्ट, 1954 और इंटेलिजेंस आइडेंटिटीज प्रोटेक्शन एक्ट, 1982 प्रमुख हैं.
अमेरिका में ऐसी सूचनाएं क्लासिफाइड की श्रेणी में आती हैं, जिन्हें कॉन्फिडेंशियल, सिक्रेट या टॉप सिक्रेट के रूप में चिंहित नहीं किया गया है.
जब इन श्रेणियों को हटा लिया जाता है, तो वैसी सूचनाएं डिक्लासिफाइड मानी जाती हैं. अमेरिकी सरकार ‘संवेदनशील लेकिन डिक्लासिफाइड’, ‘संवेदनशील सुरक्षा सूचना’, ‘क्रिटिकल प्रोग्राम इंफॉर्मेशन’, ‘फॉर ऑफिसियल यूज ऑनली’ या ‘लॉ इंफोर्समेंट सेंसिटिव’ जैसी संज्ञाएं उन दस्तावेजों और सूचनाओं के लिए प्रयुक्त करती है जो क्लासिफाइड की श्रेणी में तो नहीं आते, पर उनका प्रयोग या उन तक पहुंच रेस्ट्रिक्टेड होता है.
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 29 दिसंबर, 2009 को एक आदेश पारित कर क्लासिफाइड दस्तावेजों के संबंध में सभी पूर्व कानूनों और नियमों को सुसंगत बनाने का प्रयास किया था.
इस आदेश को एक्जेक्यूटिव ऑर्डर 13526 के रूप में जाना जाता है. इस आदेश का उद्देश्य राष्ट्रीय सुरक्षा से संबद्ध सूचनाओं के क्लासिफिकेशन, संरक्षा और डिक्लासिफिकेशन के लिए एक समुचित ढांचा बनाना था.
इस आदेश में किसी सूचना के 10 से 25 वर्ष तक क्लासिफाइड रखे जाने की व्यवस्था है और इसमें स्पष्ट कहा गया है कि कोई भी सूचना अनंत काल तक क्लासिफाइड श्रेणी में नहीं रखी जा सकती है.
लेकिन अमेरिकी सेना, विदेशी सरकारों की सूचनाएं, इंटेलिजेंस गतिविधियां, विदेशी संबंध व गतिविधियां, राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी वैज्ञानिक, तकनीकी या आर्थिक सूचनाएं, परमाणु सूचनाएं, महाविनाश के हथियारों आदि से संबद्ध दस्तावेजों के बारे में निर्णय इस आदेश के 25 वर्ष की समय-सीमा से बाहर रखे गये हैं तथा उन्हें सार्वजनिक करने का निर्णय सूचना की संवेदनशीलता पर निर्भर करता है.
इस आदेश में यह भी स्पष्ट किया गया था कि इसके नियम एटॉमिक एनर्जी एक्ट, 1954, नेशनल सिक्यूरिटी एक्ट, 1947, अमेरिकी संविधान, फ्रीडम ऑफ इंफॉर्मेशन एक्ट, और प्राइवेसी एक्ट, 1974 की व्यवस्थाओं के ऊपर नहीं हैं. ओबामा के आदेश के बाद एक नेशनल डिक्लासिफिकेशन सेंटर की स्थापना की गयी है जो सार्वजनिक करने से पहले दस्तावेजों का निरीक्षण करती है.
ब्रिटेन में संवेदनशील सरकारी सूचनाओं को क्लासिफाइड करने के लिए दिसंबर, 2012 में एक नयी व्यवस्था बनायी गयी है जिसे अप्रैल, 2014 से लागू कर दिया गया है. इसे गवर्नमेंट सिक्यूरिटी क्लासिफिकेशंस पॉलिसी (जीएससीपी) कहा जाता है.
इससे पहले सरकारी संस्थाएं गवर्नमेंट प्रोटेक्टिव मार्किंग स्कीम के तहत दस्तावेजों को अनक्लासिफाइड, प्रोक्टेक्टेड, रेस्ट्रिक्टेड, कॉन्फिडेंशियल, सिक्रेट और टॉप सिक्रेट श्रेणियों में बांटा जाता था. नयी प्रणाली में क्लासिफिकेशन के तीन रूप रखे गये हैं- ऑफिसियल, सिक्रेट और टॉप सिक्रेट. इसमें डिक्लासिफाइड श्रेणी नहीं रखी गयी है.
ब्रिटेने में प्रसिद्ध ‘तीस वर्षीय कानून’ के तहत कैबिनेट के दस्तावेजों को 30 वर्ष के बाद सार्वजनिक कर दिया जाता है.1958 के पब्लिक रिकॉर्डस एक्ट के अनुसार यह समय सीमा 50 वर्ष थी जिसे 1967 में संशोधित कर 30 वर्ष कर दिया गया है. इस व्यवस्था में फ्रीडम ऑफ इंफॉर्मेशन एक्ट, 2000 के द्वारा बड़े बदलाव किये गये और यह व्यवस्था कर दी गयी कि 30 वर्ष के बाद दस्तावेजों को नेशनल आर्काइव में भेज दिया जायेगा, जहां इस कानून में उल्लिखित छूटों के मद्देनजर ही दस्तावेजों को सार्वजनिक किया जायेगा. यह कानून एक जनवरी, 2005 से पूरी तरह प्रभावी है.
ब्रिटेन की सरकार समय सीमा में कमी की दिशा में प्रयासरत है. कंस्टीट्यूशनल रिफॉर्म एंड गवर्नेंस एक्ट, 2010 के तहत दस्तावेजों को डिक्लासिफाइ करने के लिए 20 वर्ष की सीमा बनाने का प्रस्ताव विचाराधीन है.
कनाडा में मौजूदा स्थिति
कनाडा में 30-वर्षीय नियम के अनुसार कैबिनेट रिकॉर्ड्स को सार्वजनिक करने का जिम्मा प्रिवी कौंसिल ऑफिस को है. इस संस्था ने 1980 के दशक के शुरू में दस्तावेजों को नेशनल आर्काइव में हस्तांरित करना शुरू किया था. वर्ष 2004 में आर्काइव का नाम बदल कर लाइब्रेरी एंड आर्काइव्स कनाडा कर दिया गया.
यहां से कोई भी कनाडाई नागरिक उपलब्ध सूचना को प्राप्त कर सकता है.वर्ष 1937 से 1952 के बीच के दस्तावेजों को एक साथ सार्वजनिक करने के बाद प्रिवी कौंसिल ऑफिस ने वार्षिक स्तर पर दस्तावेज सार्वजनिक करना शुरू किया था. लेकिन प्रधानमंत्री स्टीफेन हार्पर के सत्ता संभालने के दो वर्ष बाद 2008 में हर साल दस्तावेज जारी करने की परंपरा रोक दी गयी है. लाइब्रेरी एंड आर्काइव्स कनाडा में सबसे ताजा दस्तावेज 1976 के हैं जबकि नियमानुसार 1984 तक की सूचनाएं उपलब्ध रहनी चाहिए.
एक अन्य बदलाव में कनाडा सरकार ने दस्तावेज को वर्ष के आधार पर सूचीबद्ध न कर, उन्हें विषय के हिसाब से जारी करना शुरू किया है, जिसके कारण सूचनाओं तक पहुंच बहुत मुश्किल हो गयी है.
रूस में गोपनीयता
रूसी महासंघ में ऑफिसियल सिक्रेट्स एक्ट ऑफ द रशियन फेडरेशन के तहत परिभाषित राजकीय गोपनीय सूचना में उसकी सेना, विदेश नीति, आर्थिक मामले, इंटेलिजेंस, काउंटरइंटेलिजेंस, जांच आदि से संबद्ध सूचनाएं आती हैं जिनके सार्वजनिक करने से राज्य की सुरक्षा को खतरा हो सकता है.
इस संबंध में विधायी व्यवस्थाएं रूसी महासंघ के संविधान, सुरक्षा और गोपनीयता के संघीय कानूनों पर आधारित हैं. रूस और महासंघ के अन्य देशों में सूचनाओं को गोपनीय रखने के साम्यवादी सोवियत संघ की नीतियों का अभी भी असर बरकरार है. सोवियत संघ टोपोग्राफिक नक्शों को भी सार्वजनिक नहीं करता था. बाद में रूस ने नक्शे जारी किये हैं, लेकिन वे बड़े और विस्तृत नहीं हैं. अन्य देशों में ऐसे नक्शों को क्लासिफाइड की श्रेणी में नहीं रखा जाता है.
चीन में राजकीय गोपनीयता
सूचनाओं की बात ही छोड़ दें, चीन के गोपनीयता संबंधी कानूनों के बारे में ही दुनिया को पिछले वर्ष विस्तार से पता चला, जब उसने अपने स्टेट सिक्रेसी लॉ को पिछले साल के प्रारंभ में प्रकाशित किया. चीनी मीडिया ने इन कानूनों को सरकार की पारदर्शिता बढ़ाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम बताया, लेकिन आलोचकों ने इस पर कई सवाल खड़े किये थे.
हालांकि इस कानून में क्लासिफिकेशन के लिए शर्तें और डिक्लासिफिकेशन की समयावधि का उल्लेख किया गया है, लेकिन यह विभिन्न विषयों के लिए अलग-अलग हैं. क्लासिफिकेशन के निर्णय और किसी सूचना को रोक रखने के विरुद्ध नागरिकों द्वारा चुनौती दिये जाने का कोई प्रावधान नहीं किया गया है.
सुरक्षा, सेना और विदेश नीति से संबंधित सूचनाओं के अलावा पर्यावरणीय आपदा, स्वास्थ्य संबंधी संकट, महामारी और उपभोक्ता सुरक्षा से जुड़ी सूचनाएं भी गोपनीय रखने का प्रावधान इस कानून में किया गया है. सरकार को किसी भी सूचना को, जो अन्य देशों में बहुत आम मानी जाती हैं, को सिक्रेट श्रेणी में रखने का अधिकार है.
कुछ ऐतिहासिक दस्तावेज, जो क्लासिफाइड हैं या उनका पता नहीं है:
– वर्ष 1962 के चीन-भारत युद्ध में भारतीय सेना के खराब प्रदर्शन का आकलन करनेवाली हेंडरसन-ब्रूक भगत कमिटी रिपोर्ट
– वर्ष 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में इंटेलिजेंस की असफलता के आरोपों पर बीएस राघवन कमिटी रिपोर्ट
– मिजोरम में इंटेलिजेंस की असफलता के आरोपों पर बीएस राघवन कमिटी रिपोर्ट. प्रशासनिक अधिकारी राघवन की इन दो रिपोटरें के बाद ही इंदिरा गांधी ने सितंबर, 1968 में रिसर्च एंड एनालिसिस विंग तथा इंटेलिजेंस ब्यूरो को अलग कर दिया था.
– आपातकाल के दौरान 1975 से 1977 के बीच इंटेलिजेंस एजेंसियों और केंद्रीय जांच ब्यूरो के दुरुपयोग पर एलपी सिंह रिपोर्ट. राघवन के अलावा इस कमिटी के एलपी सिंह समेत अन्य सदस्य अब जीवित नहीं हैं.
– रिसर्च एंड एनालिसिस विंग के ढांचागत बदलाव के लिए 1980 के दशक के शुरू में गठित के शंकरन नायर कमिटी रिपोर्ट.
– वर्ष 1968 से 1977 के बीच रिसर्च एंड एनालिसिस विंग के मुखिया रहे आरएन काव ने 1980 में इंदिरा गांधी का सलाहकार बनने के बाद इस संस्था के एक सेवानिवृत अधिकारी के साथ मिलकर एक अध्ययन शुरू कराया था जिसका उद्देश्य बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई में इस संस्था की भूमिका का तथ्यात्मक विवरण तैयार करना था. काव ने 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री की हत्या के बाद अपने पद से त्यागपत्र दिया था. तब तक यह अध्ययन पूरा नहीं हुआ था. इसके बाद उक्त पद को भी समाप्त कर दिया गया और इस काम को भी रोक दिया गया. इस पूरे मामले से संबंधित सवालों और अपूर्ण अध्ययन के बारे में कोई जानकारी नहीं है.
– काव ने अमेरिका के नेशनल सिक्योरिटी कौंसिल का एक विशेष अध्ययन ुभी किया था. माना जाता है कि उनका सुझाव था कि अमेरिकी मॉडल भारत के लिए अनुकरणीय नहीं है. इस दस्तावेज का भी कुछ पता नहीं है. जब वाजपेयी सरकार ने 1998 में केसी पंत के नेतृत्व में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद बनाने के बाबत स्पेशल टास्क फोर्स गठन किया था, तब काव अपना अध्ययन भेजना चाहते थे. लेकिन किसी को पता नहीं था कि वह दस्तावेज कहां है.
– ऑपरेशन ब्लू स्टार से पहले इंदिरा गांधी ने सैन्य कार्रवाई टालने के लिए गुप्त रूप से विदेश में बसे खालिस्तानी नेताओं और अकाली दल से संपर्क करना चाहती थीं. इस काम को काव ने ही संयोजित किया था. उन्होंने हर बातचीत को चुपके से रिकॉर्ड किया था ताकि इंदिरा गांधी को भविष्य में कोई परेशानी न हो. आज इन टेपों की जानकारी किसी को नहीं है.
– काव के अंतिम दिनों में उनके एक प्रशंसक और भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी ने उनके संस्मरण को रिकॉर्ड कर लिखित दस्तावेज तैयार किया था जिसे दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू की स्मृति में बने एक संग्रहालय में रखा गया है जिसे उनकी मृत्यु के कुछ साल बाद सार्वजनिक करने की बात थी. उम्मीद है कि अन्य दस्तावेजों की तरह यह भी कहीं गुम न हो जाये.
– श्रीलंका में भारतीय सेना की कार्रवाई से जुड़े कई अधिकारियों का देहांत हो चुका है और कई उम्र के आखिरी पड़ाव में हैं. उस प्रकरण के विभिन्न पहलुओं के बारे में समय रहते जानकारी संकलित कर ली जानी चाहिए.

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