स्त्री सुरक्षा को लेकर देशव्यापी रोष के बावजूद महिलाओं के साथ दुष्कर्म के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. ताजा मामला मुंबई में एक महिला पत्रकार से गैंगरेप का है. क्या वजह है कि कठोर कानून बना देने के बावजूद ऐसी घटनाएं थम नहीं रही हैं? स्त्री सुरक्षा से जुड़े विभिन्न मसलों पर महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा से खास बातचीत की प्रीति सिंह परिहार ने.
देश में महिलाओं के खिलाफ उत्पीड़न और बलात्कार की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. इसके मुख्य कारण क्या हैं?
एक तो मैं यह कहूंगी कि समाज की मानसिकता बदलने की जरूरत है. दूसरी अहम बात है, जिसे हम सब महसूस कर रहे हैं कि 16 दिसंबर की घटना को नौ महीने पूरे हो चुके हैं, बावजूद इसके अभी तक इस पर कोर्ट का कोई फैसला नहीं आया है. ऐसा मामला जिसका इतने बड़े पैमाने पर देश भर में विरोध हुआ, उस पर अब तक फैसला नहीं आने से कहीं न कहीं ऐसी घटनाओं को अंजाम देनेवालों में कानून का डर खत्म हो रहा है.
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी है कि स्थिति बद से बदतर हो रही हैं, वहीं हजारों मामले विभिन्न न्यायालयों में लंबित हैं. कमी कहां है?
देखिए, महज कानून में बदलाव से कुछ नहीं होगा, उसका सख्ती से पालन जरूरी है. कानून को लागू करना पुलिस का काम है. अदालतों के फैसले जल्दी आने चाहिए ताकि कानून का खौफ पैदा हो. अगर कोई ये कहे कि सरकार और महिला आयोग अकेले सब ठीक कर दें, तो मैं नहीं समझती कि ऐसा संभव है. कानून पर सख्ती से अमल करके ही ऐसी घटनाओं पर रोक लग सकती है.
मुंबई गैंगरेप के मामले में पीड़िता के लिए आपकी तरफ से क्या पहल की गयी है?
हम लगातार पत्रकार लड़की के साथ ही उसका इलाज कर रहे डॉक्टरों और मुंबई पुलिस के संपर्क में हैं. लड़की की स्थिति अब सामान्य है. वह हॉस्पिटल से रिलीज हो गयी है. डॉक्टरों ने उसे ड्रेसिंग के लिए बुलाया है ताकि किसी तरह का इंफेक्शन न हो. हमने यह भी कहा है कि पुलिस उसके घर पर जाकर उसे परेशान न करे. बार-बार पुलिस के सवालों से पीड़ित को और ज्यादा पीड़ा से गुजरना पड़ता है. वह लड़की काउंसलिंग के लिए भी तैयार है. मैं उसे शाबाशी दूंगी कि उसने माना है कि रेप जिंदगी का अंत नहीं. उसने बहुत हिम्मत से वापस अपनी जिंदगी जीने का फैसला किया है. हम लगातार उसके संपर्क में हैं
आस्था के नाम पर जहां भी यौन उत्पीड़न होता है, वहां निगरानी रखने के लिए क्या ठोस कदम उठाये जा रहे हैं?
इसके लिए हम सभी मुख्यमंत्रियों को चिट्ठी लिखेंगे कि जितने भी धार्मिक स्थल हैं, चाहे वह किसी भी धर्म के हों, सभी जगहों पर सिविल ड्रेस में महिला पुलिस तैनात की जाये.
महिलाओं की सुरक्षा के लिए और क्या करने की जरूरत है ?
हमने मुंबई में जो रिकमंडेशंस भेजी हैं, उसमें यह सिफारिश भी है कि खाली पड़ी बड़ी-बड़ी प्रॉपर्टी में भी सीसीटीवी कैमरे लगाये जाने चाहिए.
कठोर कानून, महिला पुलिस, थाने सब हैं. आखिर हम कहां विफल हो रहे हैं?
देखिए, दो कारण हैं. हम लॉ एंड ऑर्डर और पुलिस सेंसेटाइजेशन की बात करते हैं. लेकिन सवाल है, समाज की मानसिकता आखिर इतनी खराब क्यों हो रही है? सबसे बड़ा सवालिया निशान यहां खड़ा होता है. दामिनी केस के बाद थोड़ी जागरूकता आयी है. लोग कानून और अधिकार के प्रति सजग हुए हैं. इस जागरूकता में मीडिया की भी बड़ी भूमिका रही है.
लैंगिक अनुपात में अंतर भी ऐसे मामलों के लिए जिम्मेवार है?
हां एक हद तक तो है ही. हालांकि जागरूकता कार्यक्रम लगातार चलाये जा रहे हैं. लेकिन आज भी महिलाओं को कमतर आंका जाता है. भ्रूण हत्याएं हो रही हैं. दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि ऐसा ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं, शहरी इलाकों अधिक हो रहा है. आखिर पढ़-लिख कर हम क्या उदाहरण सामने रख रहे हैं? पढ़े-लिखे लोग ही चाहते हैं कि उनके घर में बेटी पैदा न हो. दरअसल, अभी लोगों को पता नहीं चल रहा है, लेकिन दस-पंद्रह साल बाद ही ऐसा वक्त आयेगा जब करोड़ों लड़कों को शादी के लिए लड़कियां नहीं मिलेंगी.
महिलाओं के प्रति अपराध और भेदभाव के लिए हमारा सामाजिक ताना-बाना कितना दोषी है?
महिलाओं का रवैया एक तरह का समझौतावादी बना दिया जाता है. समाज में बदनामी के डर से बहुत सी महिलाएं अपने साथ होने वाले उत्पीड़न को पी जाती हैं. अगर उन्हें कानूनी अधिकारों के बारे में बताया जाये, तो जरूर फर्क पड़ेगा. साथ ही पुलिस के संवेदनशील होने जरूरत है. जब दुष्कर्म पीड़िता शिकायत कराने जाती हैं, तो कई बार पुलिस के सवालों से उनकी हिम्मत टूट जाती है. मैंने यह सिफारिश भी भेजी है कि महिला पुलिस ही रेप विक्टिम की जांच करे और बयान दर्ज करे.
अकसर ऐसे मामलों को लेकर लड़कियों के पहनावे पर सवाल उठाये जाते हैं. इस पर आप क्या कहेंगी ?
मैं इसलिए पहनावे की बात करने के खिलाफ हूं कि आजादी के इतने सालों बाद भी क्या आप महिलाओं को यह कहेंगे कि तुम ये पहनो, ये मत पहनो. हम एक तरफ जेंडर इक्वालिटी की बात करते हैं और दूसरी तरफ उसको बंधन में रखना चाहते हैं. मैं इससे सहमत नहीं हूं.
क्या इंटरनेट और फिल्मों में मौजूद अश्लील सामग्री भी जिम्मेवार हैं कहीं न कहीं?
बिल्कुल. टीवी धारावाहिकों, फिल्मों और विज्ञापनों के स्तर को बेहतर करने की जरूरत है. अधिकतर टीवी धारावाहिक एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर पर आधारित हैं. हम सबकुछ रोक नहीं सकते पर इन लगाम लगाना जरूरी है. स्कूल में दी जानेवाली शिक्षा में भी संवेदना और नैतिकता का पाठ शामिल किया जाना चाहिए.
राष्ट्रीय महिला आयोग क्या खास कर रहा है महिलाओं के लिए ?
महिला आयोग ज्यादा से ज्यादा जागरूकता कार्यक्रम चला रहा है. लेकिन आयोग के पास फंड की बहुत ज्यादा कमी है. अगर आप आधी आबादी की बात करते हैं तो वह 49 फीसदी है और उसमें करीब साठ करोड़ महिलाएं आती हैं. साठ करोड़ महिलाओं के हिसाब से अगर बजट को देखें, तो महिला आयोग के पास चार आना भी नहीं है. मैं सरकार को कई बार बजट बढ़ाने के लिए लिख चुकी हूं ताकि हम जागरूकता कार्यक्रमों को बेहतर ढंग से चला सकें.