परेशानियों से जूझता देश का किसान जी-तोड़ मेहनत से साल-दर-साल पैदावार में वृद्धि कर रहा है, जबकि उसे उचित सिंचाई सुविधा, संसाधन और बाजार उपलब्ध नहीं हैं. ऐसे में मार्च की बेमौसम की बरसात ने 14 राज्यों के किसानों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है.
बड़ी संख्या में हताश किसानों द्वारा आत्महत्या की खबरें आ रही हैं. सरकारों ने राहत की कुछ कोशिशें जरूर की हैं, पर उनकी मुश्किलों का कोई हल सामने नहीं आ रहा है. इस तबाही के मद्देनजर खेती-किसानी के मौजूदा हालात पर एक चर्चा आज के समय में..
100 वर्षो में सबसे अधिक वर्षा बीते मार्च में
बीते मार्च के महीने में देश के बड़े हिस्से में हुई सामान्य से बहुत अधिक बरसात एक तरफ जहां शहरी लोगों के लिए मौसम को खुशगवार बना गयी, वहीं रबी फसलों की तबाही की इबारत लिख गयी. मौसम विभाग के अनुसार, मार्च का महीना पिछले सौ सालों में सबसे अधिक बारिश का महीना रहा. इस बेमौसम की बारिश के लिए जम्मू-कश्मीर से लेकर कर्नाटक तक फैला शक्तिशाली तूफानी सिस्टम को जिम्मेवार माना जा रहा है. इससे कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और उत्तर प्रदेश में भारी बारिश दर्ज की गयी, जबकि जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में बर्फ गिरी.
मौसम विज्ञानियों के अनुसार मौसम की स्थिति के एक असामान्य डोमिनो प्रभाव के कारण ऐसा हुआ. पश्चिमी विक्षोभ ने उत्तर भारत में प्रवेश किया, जो इस क्षेत्र के लिए सामान्य बात है. इनके कारण जाड़े में होनेवाली बारिश रबी फसल के लिए लाभकारी होती है, परंतु इस दफा इस विक्षोभ की सघनता बहुत अधिक थी और इस वजह से गुजरात के ऊपर चक्रवातीय वर्तुल का निर्माण हुआ, तथा इससे अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से हवाओं के घुसने का रास्ता बना.
इन स्थितियों के कारण व्यापक स्तर पर बारिश हुई. पश्चिमी विक्षोभ के दक्षिण की ओर बढ़ने से बिहार से लेकर विदर्भ के बीच के इलाके तक में बादल संघनित हुए. चक्रवातीय वर्तुल राजस्थान और गुजरात में मार्च के शुरू में गठित हुआ. जम्मू-कश्मीर के ऊपर पसरा पश्चिमी विक्षोभ उत्तर-पश्चिम की ओर चार मार्च को बढ़ा, जिसके कारण जम्मू-कश्मीर, हिमाचल और पंजाब के कुछ क्षेत्रों में तीन से छह मार्च के बीच बारिश हुई. श्रीलंका और तमिलनाडु के ऊपर चार मार्च को चक्रवातीय वर्तुल बना, जिसके कारण तमिलनाडु, दक्षिण कर्नाटक के भीतरी भागों और केरल में कुछ स्थानों पर बारिश हुई.
यही पूर्वी बिहार और दक्षिणी ओड़िशा में भी बारिश का कारण बना. इस कारण देश के अनेक जिलों में औसत से काफी ज्यादा बारिश दर्ज की गयी. इस बारिश ने रबी की फसल के साथ सब्जियों और फलों को भारी नुकसान पहुंचाया है. तापमान में कमी के कारण महामारी की तरह फैली स्वाइन फ्लू की बीमारी के फैलने का भी खतरा बढ़ गया है.
उद्योग-जगत की प्रतिनिधि संस्था ‘एसोचैम‘ और ‘स्काइमेट वेदर‘ के एक अध्ययन के अनुसार बेमौसम बरसात से हुई फसलों की बरबादी से गेहूं, सब्जियों और फलों की कीमतें बढ़ेंगी. आकलन के मुताबिक उत्पादन में 25 से 30 फीसदी तक गिरावट आ सकती है. जिन फसलों पर मौसम का कहर टूटा है, उनमें गेहूं, तेलहन, दलहन, फल, टमाटर, गोभी, धनिया प्रमुख हैं.
बागवानी फसलों में आम, केला, अंगूर, चना भी प्रभावित हुए हैं. इसका असर आनेवाले दिनों में कीमतों पर देखने को मिलेगा, जिनमें 25-30 फीसदी की वृद्धि हो सकती है. इसके अलावा कीड़े-मकोड़ों का खतरा भी बढ़ गया है. हालांकि सरकार का आकलन है कि खाद्यान्न में 3.2 फीसदी की गिरावट हो सकती है, पर सही तस्वीर कुछ दिनों के बाद ही सामने आ सकती है. रिपोर्ट में कहा गया है कि मंडी में आनेवाले कृषि उत्पादों में देरी होगी और उनकी गुणवत्ता का स्तर निम्न होगा. इसमें इस वर्ष जून से सितंबर के बीच दीर्घकालिक वर्षा के 102 फीसदी के सामान्य स्तर पर रहने की संभावना जतायी गयी है.
क्या कहती है सरकार
किसान और खेती को खत्म करने की साजिश
देविंदर शर्मा
कृषि अर्थशास्त्री
किसानों को और उनकी खेती को खत्म करने की एक साजिश सी चल रही है और हमारी सरकारें इसके लिए जी-जान से लगी हुई हैं. यही वजह है कि आज भूमि अधिग्रहण पर किसी भी हद तक जाने की बात सरकार और उसके मंत्री कर रहे हैं. सरकारों ने ऐसी स्थिति बना दी है कि मजबूरन किसान खेती करना छोड़ देंगे. दरअसल, सरकार देख रही है कि इस देश में 50 प्रतिशत से ज्यादा किसान खेती छोड़ कर कुछ और काम करना चाह रहे हैं. इसलिए सरकार की नजर इन पर है और वह इनका शहरों में पलायन करा कर उन्हें दिहाड़ी मजदूर में बदल देना चाहती है..
पिछले एक महीने में प्राकृतिक रूप से जो भी घटनाएं हुई हैं, चाहे वह देश के कुछ हिस्सों में बेमौसम बारिश हो या ओले पड़ने की घटना हो, इसका सीधा असर किसानों पर पड़ा है. इस बार सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में किसानों ने आत्महत्याएं की हैं. वैसे हमारे देश में किसानों की आत्महत्या अब कोई नयी घटना नहीं है. सरकारें आती-जाती रहीं, किसानों को लेकर नीतियां बनती रहीं, लेकिन उनकी आत्महत्याएं नहीं रुकीं. इसलिए आज सबसे ज्यादा यह समझने की जरूरत है कि आखिर किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?
देश में जब बारिश ज्यादा होती है तब भी, और जब बारिश कम होती है तब भी, किसान आत्महत्या के लिए मजबूर होता है. पैदावार कम होती है या ज्यादा, दोनों ही हालात में किसान आत्महत्या करता है. इसलिए यह अच्छी तरह से समझने की जरूरत है कि आखिर क्यों किसान किसी भी परिस्थिति में खुश नहीं है. सरकार इस सवाल पर गौर नहीं करती, फौरी तौर पर राहत के लिए कुछ मुआवजा देकर शांत हो जाती है. सरकारी मुआवजे से किसानों की समस्या की मरहम-पट्टी तो हो जाती है, लेकिन उसका अंत नहीं हो पाता है.
वह एक बीमारी की तरह बनी रह जाती है. अब वह समय आ गया है, जब खेती से जुड़ी इस बीमारी का अच्छी तरह से परीक्षण कर इसका पूरी तरह से इलाज किया जाये. ऐसा नहीं हुआ तो अभी कुछ सौ किसान मरे हैं, हो सकता है कि आगे चल कर इससे भी ज्यादा किसानों को जान गंवाने के लिए मजबूर होना पड़े.
पिछले दो दशकों में देश में तीन लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्याएं की हैं. प्रत्येक एक घंटे में दो किसान देश में कहीं न कहीं आत्महत्या कर रहे हैं. अफसोस की बात यह है कि चाहे वह उत्तर प्रदेश जैसा बाढ़ और सुखाड़ ग्रस्त क्षेत्र हो या फिर पंजाब और हरियाणा जैसे अधिक पैदावार वाले क्षेत्र, दोनों ही जगहों पर किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं. हमें इन घटनाओं में छिपे इस संकेत को समझना होगा कि किसानों की अपनी अर्थव्यवस्था कितनी कमजोर (फ्रेजाइल) है. दूसरी बात यह है कि ये जो आत्महत्याएं हैं, वह किसानों की कमजोर अर्थव्यवस्था का एक लक्षण भर है, बीमारी कुछ और ही है, जिसे सरकारें शायद समझती तो हैं, लेकिन दूर करने की कोई गंभीर कोशिश नहीं करती हैं. यही कारण है कि पिछले 68 साल से यह समस्या लगातार बनी हुई है.
अब तो ऐसा लगता है कि देश में एक सोची-समझी रणनीति चल रही है कि किस तरह से किसानों और खेतीबाड़ी को खत्म कर दिया जाये. इसके दो ही तरीके हैं- या तो खेती को आर्थिक रूप से इतना संकटग्रस्त बना दिया जाये कि किसान मजबूरन उससे बाहर आने की सोचे, या फिर भूमि अधिग्रहण करके उसे जबरन खेती से बाहर निकाल दिया जाये. अफसोस की बात है कि ये दोनों रास्ते हमारी सरकारें अपना रही हैं.
मैंने जब यह खबर पढ़ी कि इस बार सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश के किसानों ने आत्महत्याएं की हैं, तो मैं उनकी अर्थव्यवस्था का हिसाब लगाने लग गया. हमारे देश में एक सरकारी संस्था है सीएसीपी (कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कॉस्ट एंड प्राइसेस), जो एमएसपी (मैक्सिमम सेलिंग प्राइस) तय करती है. सीएसीपी की रबी और खरीफ फसलों से संबंधित ताजा रिपोर्ट मैंने पढ़ी. उससे पता चला कि उत्तर प्रदेश में गेहूं की फसल से किसान को प्रति हेक्टेयर 10,758 रुपये मिलते हैं. वहीं धान की फसल से किसान को प्रति हेक्टेयर 4,311 रुपये मिलते हैं.
इन दोनों को मिला कर देखा जाये, तो उत्तर प्रदेश का किसान एक साल में एक हेक्टेयर खेती से महज 15,069 रुपये कमाता है, यानी एक महीने में एक हेक्टेयर जमीन से वह सिर्फ 13-14 सौ रुपये कमाता है. अब सवाल यह है कि जिस किसान की एक महीने की आमदनी इतनी कम हो, उसे अगर किसी भी तरह का प्राकृतिक या अप्राकृतिक झटका लगेगा, तो वह जिंदा कैसे रहेगा? जाहिर है, वह आत्महत्या ही करेगा, और कर भी रहा है.
अब पंजाब की खेती पर आते हैं. हम मान कर चलते हैं कि पंजाबी किसान संपन्न है. वह एक हेक्टेयर में गेहूं की फसल से वर्ष में 18,701 रुपये कमाता है और एक हेक्टेयर की कुल फसल से साल में 36,352 रुपये कमाता है. ध्यान रहे कि ये आंकड़े सरकारी हैं. यानी पंजाब के किसान की प्रति हेक्टेयर मासिक आमदनी 3,029 रुपये बनती है. ऐसे में अगर पंजाब में रोजाना दो आत्महत्याएं हो रही हैं, तो इसमें अचंभे वाली बात नहीं है.
अब बिहार की बात. बिहार में एक किसान को एक हेक्टेयर में गेहूं की फसल से 9,986 रुपये मिलते हैं, जबकि धान की फसल में प्रति हेक्टेयर 266 रुपये का नुकसान हो रहा है. ऐसे में तो यही कहा जा सकता है कि बिहार के किसानों की हालत बहुत दयनीय है. सबसे खराब स्थिति तो असम के किसानों की है. वहां सालाना प्रति हेक्टेयर धान की खेती में 3,361 रुपये का घाटा सहना पड़ता है. यह सरकारी आकलन है. अगर आपकी खेती की यह हालत है, तो ओले पड़े या नहीं, किसान आत्महत्या क्यों नहीं करेगा!
पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने जिस नये मुआवजे का ऐलान किया है, वह प्रति एकड़ 5,400 रुपये बनता है. अगर एक किसान को 5,400 रुपये दे भी देंगे, तो आपने इस बार के लिए उसकी समस्या की मरहम पट्टी कर दी. लेकिन क्या उसकी समस्या का अंत हुआ? जाहिर है, नहीं हुआ, तो हो सकता है कि अगली बार उसकी आत्महत्या करने की बारी हो. जब तक देश के नीति निर्माताओं का ध्यान इस ओर नहीं जायेगा, खेती में गहरे बैठी समस्या का अंत करने के बारे में कोई गंभीर पहल नहीं की जायेगी, तब तक ऐसे ही किसानों की आत्महत्याएं होती रहेंगी.
अगर हम इसकी गंभीरता को नहीं समझेंगे, तो हर बार यही होगा कि किसानों की फसल खराब हो गयी, इसलिए उन्होंने आत्महत्या कर ली. अखबार और टीवी पर बड़ी-बड़ी बहसें होंगी और फिर स्थिति जस-की-तस बनी रहेगी. इसलिए जरूरी है कि हम किसानों की जमीनी हकीकत को, उनकी अपनी अर्थव्यवस्था को और खेती से जुड़ी उनकी मजबूरियों को समझें, तभी संभव होगा कि हम उनके लिए कुछ कर पायेंगे, वरना आप मुआवजे पर मुआवजा देते रहेंगे और किसान लगातार मरते रहेंगे.
अब सवाल उठता है कि अगर खेती खत्म होती जायेगी, तो देश में बचेगा क्या? मेरे ख्याल से यह एक बहुत बड़ी सोची-समझी रणनीति है. अरविंद पानागढिया नीति आयोग के उपाध्यक्ष हैं. उन्होंने कहा है कि ‘हमें गांवों से लोगों को शहरों की ओर पलायन कराना है. जब तक गांव के लोग मन्युफैरिंग सेक्टर में नहीं जायेंगे, तब तक देश की तरक्की नहीं होगी.’ दूसरी ओर वित्त मंत्री अरुण जेटली ने दो-तीन दिन पहले कहा था कि ‘जब भूमि का अधिग्रहण हो जायेगा, तब हम देश में 30 करोड़ नौकरियों का सृजन कर पायेंगे.’
इन दोनों वक्तव्यों के बाद एक और बात पर गौर करिये- विश्व बैंक ने 1996 में कहा था कि ‘भारत को अगले बीस साल यानी 2015 तक 40 करोड़ लोगों को गांवों से शहरों की ओर लेकर आना है, तब भारत की आर्थिक वृद्धि होगी.’ यही विश्व बैंक 2008 में भारत से कहा था कि जो हमने 2006 में कहा था, उसे जल्दी पूरा करो, तब यूपीए की सरकार थी और पी चिदंबरम उसके वित्त मंत्री थे. जब मौजूदा वित्त मंत्री कहते हैं कि हम 30 करोड़ रोजगार का सृजन करेंगे, तो वास्तव में यह उनका नहीं, बल्कि विश्व बैंक के 2006 का वह निर्देश ही है, जिस पर अरुण जेटली चल रहे हैं.
मैं आपको बता दूं कि आजादी के 68 वर्षो बाद भी देश की कोई सरकार 30 करोड़ नौकरियों को पैदा नहीं कर पायी, जिसकी बात अरुण जेटली साहब कर रहे हैं. इसका मतलब तो यही निकलता है कि अरुण साहब जो नौकरियां पैदा करेंगे, वे होंगी-दिहाड़ी मजदूर की. यह सरकार खेती को खत्म कर, किसानों की जमीनों का अधिग्रहण कर गांवों के नौजवानों को शहरों में दिहाड़ी मजदूर बनाने की तैयारी कर रही है. दिहाड़ी मजदूरी को अगर भारत सरकार नौकरी (जॉब) कहती है, तो फिर सरकार को सलाम!
इस तरह हम देख रहे हैं कि किसानों को और उनकी खेती को खत्म करने की एक साजिश सी चल रही है और हमारी सरकारें इसके लिए जी-जान से लगी हुई हैं. यही वजह है कि आज भूमि अधिग्रहण पर किसी भी हद तक जाने की बात सरकार और उसके मंत्री कर रहे हैं. सरकारों ने ऐसी स्थिति बना दी है कि मजबूरन किसान खेती करना छोड़ देंगे. दरअसल, सरकार देख रही है कि इस देश में 50 प्रतिशत से ज्यादा किसान खेती छोड़ कर कुछ और काम करना चाह रहे हैं. इसलिए सरकार की नजर इन पर है और वह इनका शहरों में पलायन करा कर उन्हें दिहाड़ी मजदूर में बदल देना चाहती है.
छठवें वेतन आयोग में एक चपरासी के लिए 26,000 रुपये मासिक का प्रावधान किया जा रहा है. ऐसे में जिस नौजवान का किसान बाप एक महीने में 1,500 रुपये कमायेगा, वह नौजवान खेती को क्यों पसंद करेगा? हमारी सरकारों के पास ऐसी नीति भी नहीं कि किसान को कम-से-कम एक चपरासी के स्तर पर लेकर आये. इस देश में खाद्य महंगाई को सिर्फ किसान ही नियंत्रित कर सकता है, लेकिन उसके साथ ऐसा व्यवहार हो रहा है कि वह अपनी जान तक गंवाने पर मजबूर है.
आप मुझसे इसका उपाय मत पूछिये. मैं सरकार नहीं हूं. मैं जो देख रहा हूं, उसे बता रहा हूं. उपाय बताना, नीतियां बनाना, देश को चलाना एक सरकार का काम है. इसलिए बेहतर होगा कि यह सवाल सरकार से किया जाना चाहिए कि वह किसानों की आत्महत्या रोकने और खेती को उन्नत बनाने के लिए क्या कर रही है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
किसानों के लिए केंद्र सरकार द्वारा कई कदम उठाये गये हैं
हरसंभव मदद की कोशिश
सिद्धार्थनाथ सिंह
राष्ट्रीय सचिव, भाजपा
किसानों को फसलों का उचित लाभ दाम मिले, फसलें बरबाद न हो, इसके लिए ग्रामीण क्षेत्र के विकास पर पूरा ध्यान दिया जा रहा है. ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों का विकास, किसानों की बैंकों तक पहुंच और सिंचाई व्यवस्था को मजबूत कर किसानों को हरसंभव मदद देने की कोशिश केंद्र सरकार कर रही है.
किसानों की मौजूदा स्थिति चिंताजनक है. बेमौसम, बारिश, बाढ़, सूखा और ओलावृष्टि से फसलों को होनेवाले नुकसान का खामियाजा किसानों को उठाना पड़ता है. फसल बरबाद होने और कर्ज के बोझ तले दबे होने के कारण कई किसान आत्महत्या कर लेते हैं. किसानों की आत्महत्या को रोकने और बेमौसम बारिश या सूखे से निबटने के लिए ही केंद्र सरकार ने अब 33 फीसदी फसल बरबाद होने पर भी मुआवजा देने का प्रावधान किया है.
पहले 50 फीसदी फसल बरबाद होने पर किसानों को मुआवजा मिलता था. केंद्र सरकार की इस पहल से किसानों को फायदा होगा. इसके अलावा खेती को लाभप्रद बनाने के लिए केंद्र सरकार सिंचाई की व्यवस्था को मजबूती प्रदान करने की योजना बना रही है.
आजादी के इतने साल बाद भी देश में सिंचाई व्यवस्था कारगर नहीं है. किसानों के नाम पर आंसू बहानेवाले लोगों ने सत्ता में रहते ऐसी कोई दीर्घकालिक नीति नहीं बनायी, जिससे खेती और किसानों का भला हो सके. 2009 में 60 हजार करोड़ रुपये की कजर्माफी योजना चलायी गयी. इससे किसानों को कितना फायदा हुआ, सभी वाकिफ है. किसानों को आत्मनिर्भर और खेती को लाभप्रद बनाने के लिए कोई योजना नहीं बनी. मौजूदा सरकार इस मोरचे पर काम कर रही है.
ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि बाढ़ आये, तो इससे फसलों को नुकसान न पहुंचे और अतिरिक्त पानी बांध के जरिये सूखा प्रभावित क्षेत्रों में पहुंचाया जा सके. देश में सिंचाई व्यवस्था को मजबूत करने के लिए जमीन अधिग्रहण करना होगा. इसी को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून बनाया है. ग्रामीण इंफ्रास्ट्रर को मजबूत करने और सिंचाई व्यवस्था को मजबूत कर खेती को लाभप्रद बनाया जा सकता है. अब तक की सरकारों ने किसानों की भलाई के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाया है. यही कारण है कि आज भी किसानों को खेती के लिए मॉनसून पर निर्भर रहना पड़ता है.
आज खेती पर जनसंख्या का दबाव काफी बढ़ गया है. अब भी देश के लगभग 70 फीसदी लोग कृषि पर आश्रित हैं और कुल घरेलू उत्पादन में इसका योगदान 15 फीसदी के आसपास है. सबसे पहले इस दबाव को कम करने की कोशिश करनी होगी. इसके लिए किसान के परिवार के सदस्यों को नौकरियां देने की व्यवस्था करनी चाहिए. अगर उनके बच्चे खेती को छोड़ कर दूसरे काम करने के योग्य हो जायेंगे, तो किसान पर अतिरिक्त भार नहीं पड़ेगा.
इसलिए केंद्र सरकार की कोशिश है कि खेती पर दबाव को कम किया जाये और भूमि अधिग्रहण कानून में किसान परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने का प्रावधान किया गया है. यही नहीं, बढ़ती आबादी के कारण भूमि का रकबा कम होता जा रहा है और किसानों की आय भी कम हुई है. इसे ध्यान में रखते हुए किसानों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए लिए ग्रामीण क्षेत्र में कौशल विकास पर जोर देने की व्यवस्था की जा रही है.
बेमौसम बारिश से लाखों किसानों की फसल बरबाद हुई है. हताशा में कई किसान आत्महत्या कर रहे हैं. उनकी समस्या पर संवेदनशील रवैया अपनाते हुए केंद्र सरकार ने मुआवजा नीति में बदलाव किया है. किसानों को समझना होगा कि पूरी फसल मई महीने में ही तैयार होगी और उन्हें इसकी कीमत तभी मिलती. तब तक सरकार की ओर से उन्हें मुआवजा मिल जायेगा. वे हताशा में कोई गलत कदम नहीं उठायें. किसानों को राहत पहुंचाने के लिए राज्य सरकारों को भी पहल करनी चाहिए.
राज्य सरकार के पास आपदा कोष, केंद्र सरकार के पास आपात कोष और आपदा राहत कोष होता है. किसानों को इनके जरिये राहत पहुंचाने की कोशिश की जा रही है. कई किसान खेती के लिए साहूकारों से पैसा लेते हैं, क्योंकि उनकी पहुंच बैंकों तक नहीं है. इसे दूर करने के लिए केंद्र सरकार ने जनधन योजना शुरू की है, ताकि देश के गरीब से गरीब लोगों का भी खाता खुल सके.
सरकार किसानों को जल्द से जल्द राहत पहुंचाने के लिए जनधन खाते का प्रयोग करेगी और साहूकारों के चंगुल से बचाने के लिए किसानों को वहीं से लोन भी मिलेगा. मुआवजे की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने और उचित लोगों को इसका लाभ दिलाने में जनधन योजना काफी कारगर साबित होगी. इसके अलावा किसानों को फसलों का उचित लाभ दाम मिले, फसलें बरबाद न हो, इसके लिए ग्रामीण क्षेत्र के विकास पर पूरा ध्यान दिया जा रहा है. ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों का विकास, किसानों की बैंकों तक पहुंच और सिंचाई व्यवस्था को मजबूत कर किसानों को हरसंभव मदद देने की कोशिश केंद्र सरकार कर रही है.
(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)
राहत और मुआवजा : सिर्फ घोषणा के सहारे है सरकार
किसानों की हो रही उपेक्षा
सत्यव्रत चतुर्वेदी
राज्यसभा सांसद, कांग्रेस
मौजूदा सरकार कृषि क्षेत्र में किसानों की आपराधिक उपेक्षा कर रही है और पूंजीपति व उद्योगपति समर्थक नीति अपना कर कृषि क्षेत्र व किसानों को संकट में डालने पर आमादा है. यदि खाद्य सुरक्षा कानून विफल होता है तो यह सरकार जिम्मेवार होगी.
किसान फसलों के नुकसान की वजह से आत्महत्या कर रहा है, लेकिन उसके दुख और पीड़ा को खत्म करने की सिर्फ बातें हो रही हैं. नयी-नयी घोषणाएं हो रही हैं, जमीन पर कुछ भी नहीं दिख रहा है.
बारिश से प्रभावित राज्यों में आत्महत्या का दौर चल पड़ा है. पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, यहां तक कि बुंदेलखंड जहां किसानों की आत्महत्या की घटनाएं नहीं होती थीं, से ऐसी खबरें आ रही हैं. इसीलिए ऐसा लगता है कि राहत की बात सिर्फ घोषणाओं तक सीमित है.
हरियाणा के हिसार और भिवानी में तो अभी सर्वे तक शुरू नहीं हुआ है. किसानों का कहना है कि कोई पटवारी नहीं आया है. सबसे बड़ी बात है कि सर्वे की प्रक्रिया ही दोषपूर्ण है. इसमें कृषि विभाग के कर्मचारी को शामिल करने की कोई व्यवस्था नहीं है.
किसानों को तब बरसात का सामना करना पड़ा है, जब फसल के पकने का वक्त होता है. सरकार के मंत्री सिर्फ यह आकलन कर रहे हैं कि फसल का पौधा खड़ा है या गिर गया. इस वर्ष जब खेत में फसल गिर गयी तो पशु के लिए चारा कहां से आयेगा? चारे के इंतजाम की भी समस्या है. दुग्ध उत्पादन पर इसके संभावित प्रभाव का आकलन होना चाहिए. सरकार को बीज की आपूर्ति के विषय में भी सोचना होगा.
हर साल देश के किसी न किसी हिस्से में प्राकृतिक आपदा आती है और किसानों को भारी नुकसान होता है. हमें मुआवजे की तदर्थ व्यवस्था से आगे जाकर इसे संस्थागत स्वरूप देना होगा. केंद्र सरकार केंद्रीय कर्मचारी का भत्ता बढ़ाने में जरा भी वक्त नहीं लेती, लेकिन किसानों को मुआवजे के मामले में दुनिया भर के कानूनों का हवाला दिया जा रहा है. चुनाव प्रचार में मोदी बार-बार कह रहे थे कि हम किसानों को डेढ़ सौ फीसदी मुनाफा सुनिश्चित करेंगे, किंतु आज मूलधन के भी लाले पड़ गये हैं.
किसानों को यदि आपदा के समय सही मायने में राहत पहुंचाना चाहते हैं, तो आकलन व सर्वेक्षण की प्रक्रिया को सुसंगत बनाना होगा. संकटग्रस्त किसान को तात्कालिक रूप से आर्थिक सहायता प्रदान किये जाने की जरूरत है, लेकिन अभी सर्वे होगा. पहले पटवारी सर्वे करेगा, उसके बाद तहसीलदार को रिपोर्ट देगा, तहसीलदार कलक्टर को, कलक्टर कमिश्नर को और कमिश्नर राज्य सरकार को.. उसके बाद निर्णय होगा कि कितना नुकसान हुआ और कितना मुआवजा मिलना चाहिए.
साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि प्रभावित इलाकों में अल्पावधि ¬ण वसूली रोकी जाये, ब्याज माफ किया जाये. आसान किस्तों पर मूलधन की वसूली पांच वर्षो में की जाये. सरकार को एक समयबद्ध कार्यक्रम बनाना चाहिए, ताकि आपदा के समय प्रभावित क्षेत्र में एक माह के अंदर नुकसान के सर्वेक्षण या आकलन की प्रक्रिया पूरी कर मुआवजा वितरण हो. आपदा निवारण कार्यक्रम में कृषि विभाग के विशेषज्ञों को निश्चित तौर पर शामिल किया जाये.
राज्य व केंद्र की जिम्मेवारी भी तय हो, और सहायता में उनकी भूमिका का स्पष्ट निर्धारण होना चाहिए. आकलन में पटवारी से ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका पंचायत निभा सकता है. आगामी फसल से पहले किसानों की मदद करने के लिए अलग से फंड बनाया जाये.
भाजपा सरकार दावा कर रही है कि वह किसानों की हितैषी है, लेकिन किसान आंदोलन कर रहे हैं क्योंकि यह सरकार उनके हित को बड़े पूंजीपतियों के हाथ में गिरवी रख रही है. अन्न उत्पादनकर्ता, और अर्थव्यवस्था में अहम योगदान देनेवाला किसान आज आत्महत्या करने को मजबूर है.
वाजपेयी सरकार के समय कृषि उत्पादन में कमी आयी थी. जबकि यूपीए के दौर में कृषि विकास की योजनाएं बनीं, कृषि में सरकारी निवेश बढ़ा और न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा. किसानों के ऋण पर 14 फीसदी ब्याज को यूपीए सरकार ने 7 फीसदी कर दिया था.
समय पर ऋण चुकानेवाले किसानों को दो फीसदी की अतिरिक्त छूट भी मिलती थी. उत्पादकता, उत्पादन और कृषि अधिशेष के बदौलत ही यूपीए सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून लागू किया और इसके दायरे में 70 फीसदी आबादी को लाया गया.
मौजूदा सरकार कृषि क्षेत्र में किसानों की आपराधिक उपेक्षा कर रही है और पूंजीपति व उद्योगपति समर्थक नीति अपना कर कृषि क्षेत्र व किसानों को संकट में डालने पर आमादा है.
यदि खाद्य सुरक्षा कानून विफल होता है तो यह सरकार जिम्मेवार होगी. भूमि अधिग्रहण कानून भी बदला गया. इस सरकार का फोकस बंटा हुआ है और इसी का नतीजा है कि कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण विकास सभी क्षेत्रों के बजट आवंटन में कटौती हुई. चुनाव के दिनों में गुजरात मॉडल और विकास मॉडल की बात होती थी, लेकिन कथनी और करनी के अंतर की वजह से देश विकास से अविकास की ओर जा रहा है.
(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)