संजय उपाध्याय
नये विक्रम संवत् का चैत्य महीना अर्थात सौर-चक्र द्वारा भारतीयों को प्रदत्त एक चेतना का मास. एक पवित्र महीना. वह महीना जिसमें भगवान श्रीराम का जन्म हुआ. देवताओं के गुरु भगवान विष्णु ने इसी महीने में पाताल में खोये वेदों को ढूंढ़ कर भविष्य के प्रकाश-पुंज के लिए संचित कर दिया था.
सचमुच, सभी महीनों से अलग यह एक ऐसा महीना है, जिसमें प्रकृति चारों ओर एक सौगात के रूप में नयी छटा, नया रोमांच और उत्साह बिखेर देती है. इस सौगात को हम भूले नहीं हैं. पुरखों द्वारा सौंपी गयी इस थाती को कश्मीर से कन्याकुमारी तक किसी न किसी रूप में पर्व-त्योहारों के माध्यम से संजोये हुए हैं. उत्तर भारत में चाहे ‘रामनवमी’ अथवा ‘चैत्य नवरात्रि’ के रूप में संजोये अथवा बंगाल में ‘नबोबर्ष’ के रूप में या फिर तेलुगु में ‘युगादि’ के रूप में. ‘युगादि’ शब्द भारतीय मान्यताओं और परम्पराओं को स्पष्ट परिभाषित करता है- जहां से युग की शुरुआत होती हो.
ऐसी मान्यता है कि भगवान ब्रह्म ने ब्रह्मांड रचना के लिए इसी काल-मास को उपयुक्त समझ कर कार्यारंभ किया था. इसी माह में सौरमंडल का सबसे ताकतवर ग्रह सूर्य का मेष में भ्रमण होता है- जिसका ज्योतिषीय-खगोलीय दृष्टिकोण से पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभावों का अपना अलग महत्व माना जाता है.
शायद इन्हीं प्रभावों के कारण यह एक विशेष मास के रूप में रेखांकित हो गया. शक्तिशाली सूर्य की श्रद्वा में चैत में सूर्योपासना का अलग महत्व दर्शाया गया है. यह काल-मास है-बसंत के आगमन का, जिसमें प्रकृति खुद पुलकित होकर स्वस्थ वायु का संचार करती है- जिसमें आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी असाध्य रोगों से ग्रसित रोगियों को भी भ्रमण के लिए निर्देशित करता है. इसके आगमन होते फूल-पौधों तक में भी एक नयी स्फूर्ति का संचार हो जाता है.
इस काल ने सिर्फ भारत को ही एक भोगोलिक इकाई में नहीं समेटा बल्कि नेपाल, कंबोडिया, श्रीलंका तथा वियतनाम सहित कई देषों में अपनी उपस्थिति का अहसास कराता रहा है, अर्थात प्राचीन अखंड भारत के हिस्से को. यही कारण है कि बौद्व सहित कई देशों में इस कालखंड की पूजा की जाती है.
अगर यह हिंदुओं के लिए महत्वपूर्ण है तो जैन और बौद्वों के लिए भी क्योंकि इसी खंड में जैन के 24 तीर्थंकरों में एक का जन्म हुआ था और महात्मा बुद्व को महापरिनिर्वाण भी इसी काल में. बहरहाल, तेजी से विलुप्त हो रही परंपराओं में इस काल को भोजपुरी-भाषी लोग अपने लोक-गायनों के माध्यम से अभी भी जीवंत बनाये हुए हैं.
विभिन्न मंडलियों द्वारा रात में इसके गायन का प्रचलन आज भी बदस्तूर जारी है. गायन में मूल रूप से भगवान राम और उनके पिता दशरथ द्वारा लिये गये प्रण का समवेत गान कर उनकी स्तुति तो की ही जाती है, इस महीने की महता को भी दर्शाया जाता है. चैत में होने वाला नवरात्र का सीधा संबंध माता के प्रति समर्पण के साथ-साथ नयी फसल यथा, गेहूं,सरसों, मसूर तथा चना आदि से भी है. यही कारण है कि पूजा के दौरान पिछले वर्ष का अनाज नहीं होकर नयी फसल को ही समर्पित किया जाता है.
जैसे, पूजा-पकवान तथा प्रसादि में कटे गेहूं के पकवान का ही अर्पण होता है. महाराष्ट्र में ‘गुडी-पड़वा’ तथा पंजाब में ‘वैशाखी’ का भी सीधा संबंध नयी फसलों के आने-कटने और स्थानीय अर्थव्यवस्था के साथ-साथ धर्म से है. बौद्व धर्मावलंबियों के लिए तो यह अपने किस्म का अदभुत दैवीय मास के रूप में है. उसके दोनों मत हीनयान और महायान इसे विशेष प्रार्थना का काल मानते हुए योग मुद्रा में पूजा करते हैं. इसी महीने में झारखंड के आदिवासी समुदाय के लोग अपना सरहुल महापर्व भी मनाते हैं. इस मौके पर वे प्रकृति की पूजा करके नवान्न ग्रहण करते हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)