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अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस: अधिकतर महिलाओं से होता है भेदभाव

हर साल आठ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है. महिलाओं के अधिकार, उनके सम्मान और अर्थव्यवस्था में उनकी भागीदारी की चर्चा होती है. महिलाओं को प्रोत्साहन देने की बात होती है. उच्च शिक्षित वर्ग और कॉरपोरेट कंपनियों में महिलाएं चाहे जितनी शोहरत बटोर लें, कामगार महिलाओं को आज भी वह महत्व नहीं मिलता, […]

हर साल आठ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है. महिलाओं के अधिकार, उनके सम्मान और अर्थव्यवस्था में उनकी भागीदारी की चर्चा होती है. महिलाओं को प्रोत्साहन देने की बात होती है. उच्च शिक्षित वर्ग और कॉरपोरेट कंपनियों में महिलाएं चाहे जितनी शोहरत बटोर लें, कामगार महिलाओं को आज भी वह महत्व नहीं मिलता, जिसकी वह हकदार हैं. देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान के बाजवूद हर स्तर पर उनके साथ भेदभाव होता है.

देश में महिलाओं के अधिकार, उनके सम्मान और अर्थव्यवस्था में उनकी भागीदारी को लेकर अक्सर चर्चा होती है. हम बहुत ही दावे के साथ कहते हैं कि महिलाओं की भागीदारी समाज में हर स्तर पर बढ़ रही है. लेकिन, ऐसा कहते वक्त हम भूल जाते हैं कि देश की बहुसंख्यक महिलाएं, जो अपने घर में या बाहर घरेलू कामगार हैं, उनके योगदान, उनकी आर्थिक उपादेयता का न तो हम सही तरीके से आकलन करते हैं, न उनको उनका वाजिब हक मिलता है. अगर बड़े फलक पर देखें, तो इन्हीं महिलाओं की बदौलत हम कई पैमाने पर आर्थिक विकास में योगदान करने में सफल हो पाये हैं.

कोई भी समाज घरेलू महिला कामगारों द्वारा राष्ट्रीय आय में किये गये बहुमूल्य योगदान को दरकिनार कर बचा नहीं रह सकता. बावजूद इसके, उनको पर्याप्त महत्व नहीं दिया जाता और उनके द्वारा किये काम का मूल्य कम करके आंका जाता है. यही कारण है कि भारत जैसे देश में उनकी सामाजिक उपादेयता को पर्याप्त महत्व नहीं मिलता. भारत में घरेलू महिला कामगारों की संख्या में बढ़ोतरी के दो महत्वपूर्ण कारण दिखते हैं. आर्थिक विकास दर में तेजी से वृद्धि के बावजूद फॉरमल सेक्टर में उनके लिए पर्याप्त रोजगार सृजित नहीं हो पाया है. बढ़ती असमानता के कारण और स्वरोजगार में बढ़ोतरी के कारण अधिक से अधिक लोगों की अतिरिक्त आय के प्रति उत्कंठा बढ़ी है. वहीं, दूसरी तरफ मध्य वर्ग के बढ़ते हुए दायरे, जो कि घरेलू कामगारों का बोझ वहन कर सकता है, ने घरेलू कामगारों को अपने यहां नियुक्त करना शुरू कर दिया है. भारत में व्याप्त वेतन संबंधी असमानता ने घरेलू मजदूरों को कम वेतन देने की प्रथा आगे बढ़ाया है.

हालांकि, भारत के श्रम बाजार में महिलाओं की भागीदारी दुनिया के मुकाबले काफी कम है.

बावजूद इसके, घरेलू काम में महिलाओं की भागीदारी में 75 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. इसमें बड़ी संख्या में वे महिलाएं हैं, जो पलायन करके रोजी-रोटी के लिए बहुत ही खस्ताहाल जीवन व्यतीत करते हुए शहर में रोजगार के लिए जाती हैं. भारत के श्रम बाजार में लाखों महिलाएं घरेलू कामगार के रूप में अपना योगदान देकर जीविकोपाजर्न कर रही हैं. इतना ही नहीं, इन महिलाओं द्वारा घरों में किये गये श्रम की बदौलत आम भारतीयों द्वारा दूसरे काम में किये गये श्रम से उनकी आमदनी बढ़ी है. फिर भी इन महिलाओं को उनके काम के अनुरूप वेतन नहीं मिलता. दूसरी बात यह भी है कि इन महिलाओं को बाहर काम करने के साथ ही घरों में भी काम करना पड़ता है.

महिलाओं को प्राप्त वेतन और उनके द्वार किये गये काम पर उनके शिक्षा का भी असर होता है. यह सर्वव्यापी तथ्य है कि ग्रामीण एवं शहरी दोनों इलाकों में महिलाओं की शिक्षा दर में बढ़ोतरी हुई है. आंकड़े बताते हैं कि ग्रामीण इलाकों में 15 से 19 आयु वर्ग की लड़कियों में शिक्षा के प्रसार के साथ श्रम क्षेत्र में उनकी भागीदारी कम हुई है. यह अच्छी बात है. लेकिन, 20 से 24 वर्ष की आयु सीमा की लड़कियों के आंकड़े को परखने पर पता चलता है कि उनके द्वारा प्राप्त शिक्षा का लाभ उन्हें रोजगार में बहुत ज्यादा नहीं मिल पाया है. इसमें यह तथ्य भी हो सकता है कि युवतियों को एक सीमा के बाद पढ़ने की इजाजत नहीं होती. यह भी देखा गया है कि जैसे ही वे शादी की उम्र में पहुंचती हैं, उनमें से ज्यादातर श्रम बाजार से हट जाती हैं. ऐसी ही स्थिति शहरों में भी दिखती है.

महिलाओं की क्षमता को लेकर समाज में व्याप्त धारणा का भी अहम योगदान होता है. ग्रामीण इलाकों में कृ षि के काम में महिलाओं की भागीदारी ज्यादा होती थी, लेकिन जैसे-जैसे खेती में मशीनीकरण बढ़ता गया, महिलाओं की भागीदारी कम होती चली गयी. जिस काम में मशीनों को लगाया जा रहा है, जैसे कि खेती और निर्माण क्षेत्र में, यहां पुरुष मजदूरों की संख्या महिलाओं की तुलना में बढ़ी है. लेकिन सही मायने में देखा जाये, तो इस बात का कोई आधार नहीं है कि पुरुष अगर मशीन पर काम कर सकते हैं, तो महिलाएं क्यों नहीं?

देश की पितृसत्तात्मक व्यवस्था में आधुनिकता के बावजूद कई स्तरों पर महिलाओं को उनका वाजिब हक नहीं मिल पाता. चाहे काम के मामले में हो या फिर सामाजिक स्तर पर, उनके साथ भेदभाव होता है. जब तक इस भेदभाव को दूर नहीं किया जाता, तब तक महिला-पुरुष बराबरी सिर्फ किताबी बातें ही रह जायेंगी. ऐसा नहीं कि इस दिशा में प्रगति नहीं हुई है, लेकिन प्रगति की रफ्तार को और तेज कर हम महिलाओं को उनका हक दे सकते हैं.

(प्रो जयती घोष के लेखों से संतोष कुमार सिंह द्वारा संकलित अंश)

प्रो जयती घोष

अर्थशास्त्री, जेएनयू

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