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प्वॉइंट ऑफ ऑर्डर मैडम स्पीकर!

।। रेहानफजल ।। – बस कुछ ही दिनों में हम अपनी आजादी 66वी वर्षगांठ मनायेंगे. आजादी के बाद हमने ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को अपना तो लिया, मगर उसकी कई बेहतरीन परंपराएं भुला दी गयी हैं. एक तरफ संसद में बहस के स्तर और बैठकों की संख्या में गिरावट आयी है. दूसरी तरफ हाउस ऑफ कामंस […]

।। रेहानफजल ।।

– बस कुछ ही दिनों में हम अपनी आजादी 66वी वर्षगांठ मनायेंगे. आजादी के बाद हमने ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को अपना तो लिया, मगर उसकी कई बेहतरीन परंपराएं भुला दी गयी हैं. एक तरफ संसद में बहस के स्तर और बैठकों की संख्या में गिरावट आयी है. दूसरी तरफ हाउस ऑफ कामंस के सैकड़ों सालों के इतिहास में आज तक इसे एक मिनट के लिए भी स्थगित नहीं किया गया. पढ़िए एक खास टिप्पणी.

आप को याद दिला दें कि वो तीसरी, चौथी और पांचवी लोक सभा के बैक बेंचर सदस्य हुआ करते थे और बिहार के अररिया लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते थे. 1974 में पांडिचेरी के व्यापारियों ने आयात लाइसेंस पाने के लिए 21 सांसदों के जाली दस्तखत बना कर वाणिज्य मंत्रालय को अर्जी दी थी. तुलमोहन राम इस पूरे घोटाले के कर्ताधर्ता थे. उन्हीं की वजह से पहली बार लोक सभा को काम करने देने की परंपरा शुरू हुई थी. अस्सी के दशक में जब बोफोर्स कांड ने भारत को हिलाया तो विपक्ष ने 45 दिनों तक संसद का बहिष्कार किया.

लेकिन कांग्रेस पार्टी ने अपनी संख्या की बदौलत ये सुनिश्चित किया कि संसद में सरकार का काम रुकने पाये. शुरु आती झिझक के बाद सरकार मामले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति बनाने के लिए तैयार हो गयी.

बाद में नरसिंह राव के जमाने में विपक्ष ने संचार मंत्री सुख राम के इस्तीफे की मांग को ले कर काफी दिनों तक संसद नहीं चलने दी. इस बार सरकार ने संयुक्त संसदीय समिति की मांग नहीं मानी. नतीजतन 15 दिनों तक संसद में कुछ भी काम नहीं हुआ. 2003 में जब तहलका टेप सामने आये, तो विपक्ष की नेता सोनिया गांधी ने जेपीसी जांच की मांग की.एनडीए ने ये मांग सिरे से खारिज कर दी और कई दिनों तक संसद पूरी तरह से ठप्प रही. इसके बाद तो 2 जी घोटाला, कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाला और खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जैसे मुद्दों ने समय समय पर संसद नहीं चलने पायी.

* टेलीविजन दोषी: सदन की कार्रवाई का सीधा प्रसारण शुरू होने के बाद सदन के पटल को ग्लोरीफाइड राजनीतिक मंच के रूप में जाना जाने लगा है. पिछले तीन सालों की बात करें तो 2010 में निर्धारित समय का सिर्फ57 फीसदी काम हुआ. 2011 में संसद निर्धारित समय का 70 फीसदी ही इस्तेमाल कर पायी. 2012 में ये प्रतिशत गिर कर 61 रह गया और इस साल इसके और घटने के आसार साफ नजर रहे हैं.

साल 1952 में गठित लोकसभा की हर साल औसतन 127 बैठकें हुईं थीं. लेकिन 2012 में यह औसत घट कर 73 दिन का रह गया. इस तरह संसद की बैठकों की संख्या में तो गिरावट आने के साथसाथ गतिरोध की वजह से बरबाद होनेवाले घंटों की संख्या बढ़ी है. ये सब एक ऐसी संस्कृति के विकसित होने की वजह से हुआ है, जहां सदन के पटल को एक ग्लोरीफाइड राजनीतिक मंच के रूप में माना जाने लगा है.

यह महज संयोग नहीं है कि संसद की कार्रवाई का सीधा टेलीविजन प्रसारण शुरू होने के बाद से इस तरह की प्रवृत्ति में इजाफा हुआ है.राजनीतिक मुद्दे भुनाने के लिए रामलीला मैदान में क्यों रैली की जाये, जब संसद में हो रहे ड्रामे को कैद कर रहे टीवी कैमरे इसे – घरघर पहुंचा रहे हों!

ये कहां गये हम: भारतीय राजनीतिज्ञों को हमेशा इस बात का गर्व रहा है कि आजादी के बाद उन्होंने ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को अपनाया. भारतीय सांसद भी भी कई ब्रिटिश संसदीय परंपराओं का पालन करते हैं. मसलन जब वो किसी बात पर खुश होते हैं तो ब्रितानी सांसदों की तरह वो भी मेज थपथपा कर अपनी ख़ुशी का इजहार करते हैं कि तालियां बजा कर. जब किसी विधेयक पर मतदान होता है तो भी भी वो हाउस ऑफ कामंस की तर्ज पर आईकहते हैं कि हां या यस.अब भी लोकसभा अध्यक्ष को मतदान के बाद अक्सर ये कहते हुए सुना जा सकता है आइज हैव इट.लेकिन 60 सालों से अधिक के संसदीय अनुभव ने कई बेहतरीन ब्रिटिश परंपराओं को भुलासा दिया है.

कई विधान सभाओं में फर्नीचर और माइक फेंकने, कागज फाड़ने और चप्पल फेंकने जैसी घटनाएं हुई हैं, जिनकी कुछ साल पहले तक कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. सदन के अंदर विधायकों ने सिर्फ एकदूसरे के कपड़े फाड़े हैं बल्कि कई बार हाथापाई की नौबत भी आयी है. शुक्र है कि अभी ये सब भारतीय संसद में आम नहीं हुआ है. पिछले साल संसद के पूरे दो सत्रों में एक मिनट तक का काम नहीं हो पाया. जैसे ही कुछ शोर मचाते सांसद सदन के वेल में आकर नारेबाजी करने लगते हैं, लोक सभा अध्यक्ष की पहली प्रतिक्रिया होती है कि वो सदन की कार्रवाई को स्थगित कर दें. पहले आधे घंटे के लिए, कभी इससे जयादा समय के लिए तो कभी पूरे दिन भर के लिए.

* हाउस ऑफ कामंस: लोगों को ये बात काफी आश्चर्यजनक लग सकती है कि हाउस ऑफ कामंस के सैकड़ों सालों के इतिहास में आज तक इसे एक मिनट के लिए भी स्थगित नहीं किया गया. एक जमाना था कि भारतीय संसद में अभद्रता से बहुत सख्ती से निबटा जाता था. सत्तर के दशक में अखबारों के पहले पन्न पर पहलवान से दीखने वाले राजनारायण को चार मार्शलों द्वारा कंधे पर सदन से जबरदस्ती बाहर ले कर जाने का चित्र छपा था. उनका जुर्म ये था कि उन्होंने अध्यक्ष का कहना नहीं माना था और बिना अपनी बारी आये, लगातार चिल्ला रहे थे और अध्यक्ष के बारबार कहने के बावजूद अपनी सीट पर नहीं जा रहे थे.

हाल के सालों में संसद के स्तर को जान बूझ कर गिरने दिया गया है. एक के बाद एक लोकसभाध्यक्षों ने निष्कासन की जगह कार्रवाई स्थगन को ज्यादा तरजीह दी है. तीन साल पहले पांच राज्यसभा सांसदों को अध्यक्ष की मेज का माइक्रोफोन खींचने और कागज फाड़ने के आरोप में सदन की सदस्यता से निलंबित किया गया था. लेकिन कुछ महीनों बाद, दबी जुबान में माफी के बाद उन्हें चुपचाप दोबारा बहाल कर दिया गया था.

* नाम लेना: हां इस को सबसे बड़ी सजा माना जाता है, अगर सदन की कार्रवाई में व्यवधान करने, नियमों का पालन करने और चेयर के आदेश मानने के लिए, स्पीकर सांसद का नाम ले दे. अगर स्पीकर यह कह दे कि मैं फलांफलां सदस्य का नाम ले रहा हूं,तो सदन का नेता, सरकार का चीफ व्हिप या वहां मौजूद वरिष्ठतम मंत्री ये प्रस्ताव पेश करता है कि इस सदस्य को सदन की सदस्यता से निलंबित किया जाये. मतदान के बाद अगर प्रस्ताव मंजूर हो जाता है, तो उसे पहली गलती के लिए पांच दिनों के लिए सदन की सदस्यता से निलंबित किया जाता है.

अगर स्पीकर दोबारा उसका नाम लेता है, तो उसे 20 दिनों के निलंबन की सजा मिलती है. तीसरी बार की गलती पर उसे अनिश्चित काल के लिए निलंबित किया जा सकता है. फिलहाल यहां के लोकसभाध्यक्ष के पास नियमों का पालन करने वाले को सजा देने का विकल्प नहीं के बराबर है क्योकि इसके बाद जो हायेतौबा मचेगी उसकी कल्पना मात्र भी कोई स्पीकर नहीं करना चाहेगा.

साभार: बीबीसी

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