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भारत का दरीचा

भारत की धरती सदियों से विदेशियों को आकर्षित करती रही है. यह सिलसिला आज तक थमा नहीं है. आजादी के बाद नित नये बदलावों से गुजरते भारतीय समाज और राजनीति को उसके बहुरंगीपन में समेटने का काम कुछ विदेशी लेखकों ने गंभीरता से किया है. इनका जन्म, लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा भले विदेशी धरती पर हुई […]

भारत की धरती सदियों से विदेशियों को आकर्षित करती रही है. यह सिलसिला आज तक थमा नहीं है. आजादी के बाद नित नये बदलावों से गुजरते भारतीय समाज और राजनीति को उसके बहुरंगीपन में समेटने का काम कुछ विदेशी लेखकों ने गंभीरता से किया है. इनका जन्म, लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा भले विदेशी धरती पर हुई हो, लेकिन इनकी कर्मस्थली भारत है. इन लेखकों ने अपना जीवन भारत को समर्पित कर दिया है. जब देश आजादी की 66वीं वर्षगांठ मनाने की तैयारी कर रहा है, हम आपका परिचय करा रहे हैं ऐसे ही कुछ विदेशी लेखकों से, जिनका लेखन दरअसल भारत में दाखिल होने का दरीचा है.
कवर स्टोरी
चंदन श्रीवास्तव/ अवनीश मिश्र

भारतीय राजनीति का अध्येता

आखिर ऐसा क्या हुआ कि कभी पूरे देश पर एकछत्र राज करनेवाली कांग्रेस पार्टी अब गंठबंधन की राजनीति करने पर मजबूर है और जिस यूपी-बिहार की मत-पेटियों से कांग्रेस के लिए केंद्र की गद्दी का जनादेश निकलता था, वहीं उसे अपने अस्तित्व के लिए सबसे ज्यादा खतरा सता रहा है? क्या धर्म और जाति बीते तीस सालों में भारत के राज और समाज को निर्णायक ढंग से प्रभावित करने वाले तत्व रहे हैं और क्या देश के नये मध्यवर्ग की राजनीतिक चेतना को इन दो बातों ने बुनियादी तौर पर बदला है? इन सवालों के संजीदा और चौंकाऊ उत्तर आपको फ्रांस के भारत-प्रेमी राजनीति-विज्ञानी क्रिस्टोफर जैफरलॉट की किताबों में मिलेंगे. क्रिस्टोफर जैफरलॉट युवावस्था के दिनों में भारत आये. भारत में वे दिन राम जन्मभूमि आंदोलन के थे. अपनी किताब ‘द हिंदू नेशनलिस्ट मूवमेंट एंड इंडियन पॉलिटिक्स’(1993) में उन्होंने तर्क रखा कि बीजेपी धर्म की राजनीति करके भारत के सेकुलर ढांचे के सामने सवाल तो खड़े कर रही है, मगर उसे फासिस्ट पार्टी का दर्जा नहीं दिया जा सकता. क्योंकि फासिस्ट पार्टियां किसी एक नेता के करिश्मे के दम पर चलती हैं, जबकि बीजेपी में नेता आते-जाते रहते हैं, मगर आंदोलन चलते रहता है. दूसरे, बीजेपी कभी भी मुसोलिनी की तरह राज्यसत्ता पर सीधे कब्जा करने की रणनीति पर नहीं चली, बल्कि वह समाज को अपने आदर्शो के अनुकूल गढ ़कर जनादेश के बूते राजसत्ता हासिल करना चाहती है. ‘इंडियाज साइलेंट रिवोल्यूशन- द राइज ऑफ द लोअर कास्ट्स इन नॉर्थ इंडिया’ (2003) और ‘आंबेडकर एंड अनटचेबिलिटी’ (2004) में उन्होंने स्थापित किया कि 1980 के दशक तक उत्तर भारत, खासकर यूपी और बिहार की राजनीति में दलित और मंझोली जातियां हाशिए पर रहीं, लेकिन इसके बाद की राजनीति में इन्हीं का डंका बजा. संख्या-बल ज्यादा लेकिन राजसत्ता में दखल कम- यूपी और बिहार में मंझोली दलित जातियों की यह नियति इतिहास की देन थी. यह कमी पूरी हुई 1980 के दशक के बाद जब मंझोली और दलित जातियों के राजनीतिकरण की प्रक्रिया एक सीमा तक पूर्ण होकर पूरे आवेग के साथ प्रकट हुई और यहां राजसत्ता की सामाजिक बनावट बुनियादी तौर पर बदल गयी. जैफरलॉट फिलहाल दक्षिण एशिया में मुसलिम पहचान से जुड़े सवालों से जूझ रहे हैं. इंतजार कीजिए उनकी अगली किताब का. उसमें मुसलिम प्रश्न पर आपको कुछ विचारोत्तेजक निष्कर्ष मिलेंगे.

क्रिस्टोफर जैफरलॉट
राजनीति शास्त्री
जन्म : फ्रांस
मेरी बात
भारत से मेरा पहला परिचय 18 वर्ष की उम्र में मेरे फिलॉस्फी टीचर से हुआ. अगले साल मैं भारत आया. यहां की राजनीति में मेरी उत्सुकता उसी समय पैदा हो गयी. 1980 के दशक में जब मैं भारत आया उस समय राम जन्मभूमि आंदोलन चल रहा था. भारत की राजनीति हमेशा जटिल सवाल खड़े करती है.

समाज और इतिहास की धड़कनों को सुननेवाला


भारत में शायद ही कोई ऐसा शख्स हो, जो मार्क टली का नाम न जानता हो. यह बात खासकर उस पीढ़ी के लोगों के लिए कही जा सकती है, जिनके लिए बीबीसी रेडियो कभी बाहरी दुनिया की एकमात्र विश्वसनीय खिड़की हुआ करता था. लेकिन यहीं एक तथ्य यह भी है कि भारत को मार्क टली जितना कम ही लोग जानते होंगे. मार्क टली बीबीसी रेडियो के संवाददाता ही नहीं रहे, उनकी पत्रकारिता में दरअसल आजादी के बाद के एक बड़े दौर का इतिहास समाया हुआ है. पिछले पांच दशकों में भारत बदलाव के जिन रास्तों पर चला है, टली उन रास्तों के हमसफर रहे हैं. यही वजह है कि आज टली सिर्फ पत्रकार नहीं हैं, आजादी के बाद के भारत के राजदार, इतिहासकार हैं. वे 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या, ऑपरेशन ब्लू स्टार, भोपाल गैस त्रसदी, बाबरी मसजिद विध्वंस जैसी ऐतिहासिक घटनाओं के साक्षी रहे हैं. मार्क टली की किताबें आधुनिक भारत का आईना हैं. 1985 में उन्होंने बीबीसी में अपने साथी सतीश जैकब के साथ मिलकर ‘अमृतसर : मिसेज इंदिरा गांधीज लास्ट बैटल’ लिखी, जिसमें ऑपरेशन ब्लू स्टार की कथा कही गयी है.

जरीर मसानी के साथ मिलकर उन्होंने ‘राज टू राजीव’ लिखी. टली की चर्चित किताबों में ‘नो फुलस्टॉप्स इन इंडिया’ शामिल है, जिसमें पत्रकारीय लेखों का संकलन है. ‘द हार्ट ऑफ इंडिया’ का प्रकाशन 1985 में हुआ, जो कि एक नॉन फिक्शन है. गिलियन व्राइट के साथ उन्होंने ‘इंडिया इन स्लोमोशन’ लिखा, जो कि भारत की उम्मीदों-हताशाओं का जीवंत दस्तावेज है. ‘इंडियाज अनएंडिंग जर्नी’ और ‘नॉन स्टॉप इंडिया’ उनकी हाल में आयी किताबें हैं.

टली का जन्म 1936 में कोलकाता में हुआ. उनके पिता एक धनी ब्रिटिश व्यापारी थे. उनके बचपन के दिन कठोर निगरानी में बीते. दस साल की उम्र में वे पढ़ाई के लिए ब्रिटेन भेज दिये गये. उन दिनों को याद करते हुए टली ने लिखा है,‘इंग्लैंड के वे दिन काफी कष्ट भरे थे. वहां काफी अंधेरा और नीरसता थी. मुझे वहां भारत के खुले आकाश की कमी महसूस हुई.’ आज टली का पहला घर भारत है, दूसरा घर ब्रिटेन. टली के पास ब्रिटेन की नागरिकता है, लेकिन उनका अधिकांश वक्त भारत में बीतता है. टली को पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित किया जा चुका है.

मार्क टली
पत्रकार-लेखक
जन्म : कोलकाता
मेरी बात
जिंदगी जैसे-जैसे बीतती रही, भारत बार-बार मेरे जीवन मैं लौटता रहा. ऐसा लगता है मैं भारत के लिए बना था. हिंदी में एक कहावत है, हर व्यक्ति को अपना कर्म हासिल करना होता है. भारत मेरे लिए वही कर्म है.

मीडिया और समाज की गहरी परख


भारत को पिछले करीब साढ़े तीन दशकों में जिन लोगों ने काफी करीब से देखा और उस पर लिखा है, उनमें समाजविज्ञानी या कहें समाज-इतिहासकार रॉबिन जेफ्री का नाम प्रमुख है. रॉबिन जेफ्री के भारत प्रेम की कहानी शुरू होती है 1960 के दशक के उत्तरार्ध से, जब वे चंडीगढ़ के एक स्कूल में बतौर टीचर ‘कनाडियन यूनिवर्सिटी सर्विस ओवरसीज’ के तहत आये थे. उसी दौर में छुट्टियों के दौरान वे केरल गये और चश्मा लगाये एक बूढ़ी औरत को अखबार पढ़ते देखने का दृश्य उनकी आंखों में पैवस्त हो गया.’ केरल के प्रति इस आकर्षण का विस्तार जेफ्री की त्रवणकोर की रियासत पर पीएचडी थीसिस के तौर पर देखा जा सकता है. यह थीसिस ‘द डिक्लाइन ऑफ नायर डोमिनेंस : सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स इन त्रवणकोर’ नाम से प्रकाशित हुई.

रॉबिन जेफ्री को भारत के अखबार उद्योग पर उनकी बहुचर्चित किताब ‘इंडियाज न्यूजपेपर रिवोल्यूशन : कैपिटलिज्म, पॉलिटिक्स एंड इंडियन लैंगुएज प्रेस’ के लिए जाना जाता है. भारतीय अखबार, खासकर भारतीय भाषाओं के अखबार जेफ्री की उत्सुकता का केंद्र रहे हैं. ‘मिशन, मनी एंड मशिनरी : इंडियन न्यूजपेपर इन द ट्वेंटीथ सेंचुरी’ इस किताब को आगे ले जाती है. जेफ्री की हालिया किताब ‘द ग्रेट इंडियन फोनबुक’ भारत के मोबाइल फोन क्रांति के महत्व और राजनीति और समाज पर पड़नेवाले इसके असर को समझने की गंभीर कोशिश है. जेफ्री ने पंजाब पर भी गंभीरतापूर्वक लिखा है.

भारत को समझने का यह सिलसिला जारी है और वे कथित तौर पर दो किताबों ‘द स्लाइसेस ऑफ इंडिया’, और ‘द स्टोरी ऑफ स्टफ’ पर काम कर रहे हैं. ‘स्लाइसेस ऑफ इंडिया’ में 1940 से अब तक का इतिहास कहे जाने की योजना है. जबकि ‘द स्टोरी ऑफ स्टफ’ में भारत में कचरे की कहानी कही जायेगी. जेफ्री ने कई किताबों का संपादन भी किया है, जिनमें ‘मोर दैन माओइज्म : पॉलिटिक्स एंड इंसरजेंसीज इन साउथ एशिया’, प्रमुख है. वास्तव में जेफ्री एक ऐसे लेखक हैं, जो पिछले चार दशकों से बदलावों के दौर से गुजर रहे भारतीय समाज का अध्ययन कर रहे हैं. भारत उन्हें बार-बार बुलाता है. भारत की अलग-अलग छवियां उन्हें आकर्षित करती रही हैं और वे उसके मायनों को समझने और समझाने की बेचैनी के वशीभूत बार-बार भारत की धरती की ओर लौटते रहे हैं.

रॉबिन जेफ्री
समाजशास्त्री-मीडिया शोधकर्ता
जन्म : कनाडा
मेरी बात
भारत में एक साथ लाखों क्रांतियां चल रही हैं. आम आदमी अपने और अपने आसपास के बारे में अखबारों में पढ़ रहा है. यह एक तरह की क्रांति की अवस्था है.

एक चिर-यात्री

अगर आप दिल्ली को सिर्फ देखना नहीं, उसकी धड़कनों को सुनना चाहते हैं, तो आपको विलियम डेलरिंपल की किताब ‘सिटी ऑफ जिन्न’ जरूर पढ़नी चाहिए. यों तो कहने को ‘सिटी ऑफ जिन्न’ एक यात्र-वृत्तांत है, लेकिन वास्तव में यह यात्र दिल्ली के इतिहास में ले जाती है. दिल्ली में इतिहास को देखने के लिए संग्रहालयों में जाने की जरूरत नहीं है. यहां की सड़कें, इमारतें, खुद जीता-जागता इतिहास हैं. डेलरिंपल इस इतिहास को महसूस करते हैं, लोगों की जुबान से उसे सुनते हैं, और हमें सुनाते हैं. डेलरिंपल एक तरह से भारत के प्रेम में हैं. वे एक ब्रिटिश हैं, लेकिन उनका आवास भारत है. डेलरिंपल ने एक तरह से अपनी आधी से ज्यादा जिंदगी भारत में बितायी है. उनके इतिहास लेखन के केंद्र में मूलत: भारत है. भारत का इतिहास, खासकर परवर्ती मुगलकालीन इतिहास उन्हें अपनी ओर खींचता है. उनकी किताबें पश्चिम के लिए भारत का प्रवेश द्वार मानी जाती हैं. डेलरिंपल के इस भारत प्रेम का नतीजा है- ‘सिटी ऑफ जिन्न’, ‘नाइन लाइव्स’,‘द लास्ट मुगल्स’,‘द फॉल ऑफ डाइनेस्टी’ जैसी किताबें, जो भारत ही नहीं दुनियाभर में सराही गयी हैं.

डेलरिंपल ने इसी साल एक साक्षात्कार में अपने भारत प्रेम के बारे में विस्तार से बताया था. वे इराक जाने के रास्ते में भारत आये थे. दुनिया को देखने के उनके नजरिये को भारत ने एक धक्का पहुंचाया था, लेकिन उसी समय वे भारत के प्रति प्रेम में पड़ गये थे. डेलरिंपल कहते हैं कि शुरू में भारत को लेकर मेरी घारणा भी पश्चिम की प्रचलित धारणा से अलग नहीं थी, लेकिन जब मैंने भारत की खाक छाननी शुरू की, तो भारत की विविधता और जटिलता के मेरे सामने प्रकट होती गयी. उनका कहना है कि ‘भारत को पश्चिमी लेखकों द्वारा गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया है. डेलरिंपल कहते हैं कि किताब लिखते वक्त उनके जेहन में भारत को जाननेवाले या भारतीय लोग ही रहते हैं.

विलियम डेलरिंपल
इतिहासकार
जन्म : इंग्लैंड
मेरी बात
अगर मुझे नौ जिंदगियां मिलें, तो मैं उन सबको भारत में ही बिताना चाहूंगा. मैं पैजामा पहनता हूं. खाने में दाल-चावल खाता हूं, लेकिन फिर भी मुझे मालूम है कि मैं भारतीय नहीं हो सकता.

मिट्टी का आकर्षण

1947 के अगस्त महीने में रेडक्लिफ-रेखा के आर-पार भारत और पाकिस्तान नाम के दो राष्ट्र बने. पर इस रेखा को खींचनेवाले सिरिल रेडक्लिफ किसी भगोड़े की तरह भाग क्यों खड़े हुए? वह कौन-सा पछतावा था कि बंटवारे के बाद भड़के दंगों की विभीषिका देखकर रेडक्लिफ ने 40 हजार रुपये की अपनी मोटी तनख्वाह लेने से मना कर दिया था? जिन दिनों जिन्ना बंटवारे की जिद पर अड़े थे, कांग्रेस, मुसलिम लीग और लार्ड माऊंटबेटन के बीच बंटवारे की शतरंज पर शह और मात का खेल चल रहा था, तब वह डॉक्टर कौन था जिसने मौत के मुंह में जाते जिन्ना की बीमारी का राज सबसे छुपाया? क्या गांधी की हत्या की साजिश कई दिनों पहले उजागर हो गयी थी? और अगर हां, तो फिर पुलिस और प्रशासन ने एहतियात में कोई कदम क्यों नहीं उठाया? आजाद भारत के इतिहास की मानक पुस्तकों में इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते. इनका उत्तर मिलता है डोमनिक लैपियर और लैरी कॉलिन्स की किताब ‘फ्रीडम ऐट मिडनाइट’ में. इतिहास सिर्फ वर्ग-संघर्ष से नहीं बनता, उसके बनने में व्यक्तियों की जिद, महत्वाकांक्षा और भाग्य का तत्व भी मिला होता है, इस सच्चाई से भारत के सामान्य पाठक का पहली बार परिचय कराने वाली किताब शायद ‘फ्रीडम ऐट मिडनाइट’ ही थी. उम्र के आठ दशक पूरे कर चुके डोमिनिक लैपियर का भारत-प्रेम पचास सालों से जारी है. ‘फ्रीडम ऐट मिडनाइट’ के प्रकाशन के दस साल बाद शहर कोलकाता के जनजीवन की झांकी देती उनकी एक और किताब आयी ‘सिटी ऑफ जॉय’(1985). गरीबी कितनी गर्वीली होती है, रोज के रुदन में वह अपनी हंसी कहां से ढूंढ़ लाती है, हृदय का कौन सा तार है, जो सारे बंधनों के ऊपर मानवता को प्रतिष्ठित करता है, इस किताब ने एक पादरी, एक अमेरिकी डॉक्टर, एक रिक्शा-चालक और झुग्गी-झोपड़ियों की जिंदगी में झांक कर दिखाया. डोमनिक लैपियर की नयी किताब का शीर्षक ‘इंडिया : माई बिलव्ड’ जाहिर करता है कि उनका भारत-प्रेम सतत जारी है. उन्हें पद्मभूषण से नवाजा गया है. वे कोलकाता में सिटी ऑफ जॉय फाउंडेशन चलाते हैं.

डोमिनिक लैपियरलेखक
जन्म : फ्रांस

मेरी बात
मुझे महात्मा गांधी के व्यक्तित्व ने बेहद प्रभावित किया. वे मानवता का प्रतिनिधित्व करनेवाले नेता थे. भारत को लेकर मेरा आश्चर्य, उसके प्रति प्रशंसा का भाव कभी कम नहीं होता है. 50 साल के बाद भी यह मेरे लिए अतुल्य भारत ही है.

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