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कुछ खास था उस पल में

कृष्णा सोबती:वरिष्ठ साहित्यकार आजादी शम्मोजान के बहाने आप से कुछ बांटना चाहती हूं. 15 अगस्त की रात जब रेडियो पर देश की आजादी का ऐलान किया गया तो सरहद पार से आये रिश्ते-नाते बंटवारे के जख्मों के बावजूद आंखें भर-भर लाये. हम में से हर कोई जानता था कि यह वह क्षण है- वह लम्हा […]

कृष्णा सोबती:वरिष्ठ साहित्यकार

आजादी शम्मोजान के बहाने आप से कुछ बांटना चाहती हूं. 15 अगस्त की रात जब रेडियो पर देश की आजादी का ऐलान किया गया तो सरहद पार से आये रिश्ते-नाते बंटवारे के जख्मों के बावजूद आंखें भर-भर लाये. हम में से हर कोई जानता था कि यह वह क्षण है- वह लम्हा है जो कौम और देश के इतिहास में शताब्दियों के बाद आया है. जवाहरलाल नेहरू की आवाज हर हिंदुस्तानी के दिल-दिमाग को छूती हुई उसके भूगोल और इतिहास पर स्थित हो गयी है.

सुचेता कृपलानी और साथियों ने जब पहली बार आजाद देश में सस्वर राष्ट्रीय गान गाया, तो हर भारतीय की रूह में नयी शक्ति का संचार हुआ. आजाद देश का शहरी होने का एहसास जगा. लाखों शरणार्थियों के होने के बावजूद देश की राजधानी बत्तियों से जगमगा रही थी. जड़ों से उखड़े लोगों के दिलों में अंधेरे थे- फिर भी कहीं कुछ था जिसने मार-काट और घर-बाहर प्रियजनों को खो देने के बावजूद हर किसी को आजादी से जोड़ दिया था. अगले दिन हम बहन-भाई, चचेरे, मौसेरों ने जश्ने-आजादी देखने के लिए बड़ों को मना लिया.सावधानी की हिदायतों के साथ हमें पुराने वफादार नौकर के साथ कर दिया गया.

तांगे ने दिल्ली दरवाजे पर उतार दिया. वहां से दरियागंज होते हुए हम लालकिला पहुंचे. जामा-मसजिद पर रोशनी की कुछ बत्तियां झूल रही थीं. मगर उदास लगती थीं. सड़कों पर भीड़ का समंदर था. कदम उठा कर चलने की जरूरत नहीं थी. पीछे से आते रेले से पांव खुद-ब-खुद सरक रहे थे. लालकिले और गुरुद्वारा शीशगंज के मुख्यद्वार जगमगा रहे थे. चांदनी चौक और परेड-ग्राउंड से आती सड़क के किनारे भीड़ों के ठठ के ठठ. वीरान घायल चेहरे स्वाधीनता के हिज्जे कर रहे थे. ट्राम की पटरी के पास भीड़ ने एक गोल-सा बना रखा था. एक-दूसरे का हाथ पकड़े हम भी पहली कतारों में जा पहुंचे.

एक शरणार्थी बच्च जिसके कंधे और बांहों पर लुग्गड़ और पट्टी बंधी थी, गा-गाकर पैसे इकट्ठा करने की कोशिश में था-

जय जय जवाहरलाल
तुमने कर दिया क्या कमाल
धरती फाड़ पंजाब की
तुमने दे दिया हमें रुमाल
कि जाओ आंखें पोंछो.

वह चेहरा कभी नहीं भूल सकती. अगले दिन हम सीताराम बाजार से होते हुए काजी हाउस पहुंचे और वहां से बर्न-बोस्टन की ओर मुड़ गये. चावड़ी बाजार की सूरतें-मूरतें अब यहां आबाद थीं. छज्जों पर बैठी थीं दिल्ली की वीरांगनाएं और छतों पर तिरंगे लहरा रहे थे और इमारतों पर झंडियां. कुछ याद नहीं उस वक्त मुङो कैसा लगा और मैंने क्या सोचा. बरसों बाद मैंने यह कहानी ‘आजादी शम्मोजान की’ लिखी.

(राजकमल से प्रकाशित ‘सोबती-वैद संवाद’ से साभार)

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