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एड्स पीड़ित बनी दूसरों के लिए मिसाल

नयी दिल्ली : राजस्थान की रहनेवाली आशा जाट समाज के लिए एक मिसाल हैं. एचआइवी पॉजिटिव होने के चलते समाज ने उनका बहिष्कार कर दिया था, लेकिन आशा ने हार नहीं मानी और दूसरी महिलाओं को इस दर्द से मुक्ति देने की ठान ली. 27 साल की आशा जाट को जब एचआइवी पॉजिटिव होने का […]

नयी दिल्ली : राजस्थान की रहनेवाली आशा जाट समाज के लिए एक मिसाल हैं. एचआइवी पॉजिटिव होने के चलते समाज ने उनका बहिष्कार कर दिया था, लेकिन आशा ने हार नहीं मानी और दूसरी महिलाओं को इस दर्द से मुक्ति देने की ठान ली.

27 साल की आशा जाट को जब एचआइवी पॉजिटिव होने का पता चला तो उनके ससुराल से उन्हें निकाल दिया गया था. उसके बाद वह एक परियोजना से जुड़ कर एचआइवी पॉजिटिव महिलाओं की मदद करने लगीं. आशा इस घटना के चार साल बाद एक ऐसी स्वास्थ्य परियोजना से जुड़ीं, जो एचआइवी पॉजिटिव मांओं और उनके बच्चों को चिकित्सा सहायता दिलाने में मदद करती है. अब आशा राजस्थान के अजमेर में चल रही इस परियोजना के 25 वॉलेंटियर्स में से एक हैं और पिछले चार सालों में उनकी मदद से 102 एचआइवी पॉजिटिव मांएं स्वस्थ बच्चे को जन्म दे चुकी हैं.

पीड़ित बच्चों की संख्या में आयी कमी

यूरोपियन यूनियन और क्रिश्चियन एड की मदद से चल रहे इस प्रोजक्ट का उद्देश्य भारत में एचआइवी की रोकथाम करना, बढ़ने से रोकना है. आशा के अनुसार पीपीटीसीटी प्रोजेक्ट के शुरू होने के बाद न केवल महिलाएं सुविधाओं तक पहुंच पा रही हैं, बल्किएचआइवी पॉजिटिव नवजात बच्चों की संख्या में भी कमी आयी है. हर राज्य के सरकारी अस्पताल के डॉक्टर पीपीटीसीटी कार्यकर्ताओं को एचआइवी पॉजिटिव लोगों की सूची देते हैं. इस सूची की मदद से वे लोग जरूरतमंद महिलाओं की मदद करते हैं.

लिंग और विकास के मुद्दों पर काम करनेवाली इस संस्था के निदेशक अखिल शिवदास बताते हैं कि यह प्रोजेक्ट एचआइवी पॉजिटिव महिलाओं और मांओं को यह कहने की हिम्मत देता है कि मैं एचआइवी पॉजिटिव हूं, मेरा बच्चा नेगेटिव है और मुझे चिकित्सकीय सहायता चाहिये.

तीन राज्यों में चल रहा प्रोजेक्ट

अक्सर एचआइवी पॉजिटिव महिलाओं का समाज से बहिष्कार कर दिया जाता है और वह सरकारी सुविधाओं का लाभ भी नहीं उठा पातीं. सेंटर फॉर एडवोकेसी एंड रिसर्च प्रोजेक्ट ऐसी ही महिलाओं की मदद करता है. यह अभियान एचआइवी पॉजिटिव महिलाओं को सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएं (पीपीटीसीटी) तक पहुंच बनाने में मदद करता है. यह प्रोजेक्ट साल 2009 से कर्नाटक, तमिलनाडु और राजस्थान में चलाया जा रहा है. आशा कहती हैं कि इस परियोजना ने मुझे अपने हक के लिए बोलना सिखाया है.

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