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राजनीतिक दलों को पारदर्शिता से क्यों है परहेज?

करीब दो माह पहले जब केंद्रीय सूचना आयोग ने फैसला सुनाया था कि राजनीतिक दल भी सूचना का अधिकार (आरटीआइ) कानून के दायरे में आते हैं, तब आरटीआइ कार्यकतरओ, विशेषज्ञों और आम लोगों ने भले ही इसका स्वागत किया था, लेकिन राजनीतिक दलों की भौहें तन गयी थीं. आखिर सभी दलों के विरोध के बाद […]

करीब दो माह पहले जब केंद्रीय सूचना आयोग ने फैसला सुनाया था कि राजनीतिक दल भी सूचना का अधिकार (आरटीआइ) कानून के दायरे में आते हैं, तब आरटीआइ कार्यकतरओ, विशेषज्ञों और आम लोगों ने भले ही इसका स्वागत किया था, लेकिन राजनीतिक दलों की भौहें तन गयी थीं. आखिर सभी दलों के विरोध के बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल ने आरटीआइ एक्ट में संशोधन को मंजूरी दे दी है, जिसमें राजनीतिक दलों को इससे बाहर रखा जायेगा. सूचना आयोग के फैसले पर उठा विवाद एक अवसर की तरह है कि इस मामले पर देश में एक महाबहस हो और राजनीति में पारदर्शिता लाने के ठोस उपाय किये जायें. पेश है महाबहस की पहली कड़ी..

संसद की अवमानना कर रहे नेता
।।सुभाष चंद्र अग्रवाल।।
(आरटीआइ कार्यकर्ता)
वर्ष 2005 में लागू किये गये सूचना का अधिकारकानून में शुरू से ही बहुत छिद्र थे, जिसके बारे में कहा गया था कि आम जनता को एक और आजादी हासिल हुई है. लेकिन जब इस कानून की तलवार हमारे राजनीतिक दलों तक पहुंची और उनकी जवाबदेही तय करने और पारदर्शिता की बातें शुरू हुईं, तो हमारे स्वार्थी नेता आपस में एकजुट हो गये. केंद्रीय सूचना आयोग द्वारा दिये गये ऐतिहासिक फैसले को नहीं मानने के लिए इन दलों ने पारदर्शिता अधिनियम के पर कतरने के लिए आरटीआइ अधिनियम में संशोधन का शॉर्टकट रास्ता अपनाया है. राजनीतिक दल केंद्रीय सूचना आयोग (सीआइसी) के तर्को को नकार रहे हैं और इसमें संशोधन करने की पूरी तैयारी हो चुकी है.

इस विधेयक के प्रति राजनीतिक दलों में थोड़ी सी भी नैतिकता बची हो तो उन्हें सूचना के अधिकार में दी गयी शर्तो को समझना चाहिए. यदि वे इसे समझ जाते हैं तो उन्हें केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से रियायती दरों पर मुहैया करायी गयी जमीन और बंगले को वापस करना होगा. इसके अलावा, सरकार से उन्हें वोटर लिस्ट दिये जाने समेत अन्य कई तरह की सुविधाएं हासिल होती हैं. रेडियो और दूरदर्शन पर चुनाव प्रचार के लिए आबंटित किये जानेवाले समय की एवज में भी इन्हें भुगतान करना चाहिए. राजनीतिक दलों को कई तरह की टैक्स में छूट दी जाती है, जिसे खत्म किया जाना चाहिए.

आरटीआइ अधिनियम के दायरे में उन सभी संस्थाओं को लाया जाना चाहिए, जिन्हें सरकार की ओर से किसी भी तरह का अनुदान मिलता है. मल्टी-स्टेट-कोऑपरेटिव सोयायटीज (एमएससीएस) समेत सभी सहकारी समितियों, पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप (पीपीपी) और बीसीसीआइ सहित राष्ट्रीय स्तर के सभी खेल संघों को इस अधिनियम के दायरे में लाना चाहिए. इन सभी को सरकार की ओर से जमीन और अन्य प्रकार की तमाम सुविधाएं रियायती दरों पर मुहैया करायी जाती हैं, इसलिए इस कानून के दायरे में इन सार्वजनिक प्राधिकरणों को इन सबकी घोषणा करनी चाहिए. संचार और बैंकिंग समेत सार्वजनिक जीवन में दिन-प्रति-दिन प्राइवेट सेक्टर का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है. एक तय सीमा से ज्यादा टर्न-ओवर के मामलों में प्राइवेट सेक्टर को भी आरटीआइ के दायरे में लाना चाहिए.

केंद्रीय कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रलय ने 8 जुलाई, 2009 को संसद में लिखित जवाब दिया था कि आरटीआइ कानून में किसी तरह के संशोधन से पूर्व गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) और सामाजिक कार्यकर्ताओं से संपर्क किया जायेगा. केंद्र सरकार की ओर से संसद में यह सुनिश्चित किये जाने के बावजूद राजनीतिक दलों ने खुद को आरटीआइ कानून के दायरे से बाहर रखने के लिए संशोधन का मसौदा तैयार किया है, जो एक प्रकार से संसद की अवमानना होगी. आज समय की मांग है कि संसद की गरिमा को कायम रखने के लिए राष्ट्रपति को आगे आना चाहिए और इसके लिए उन्हें अपनी पूरी क्षमता का इस्तेमाल करना चाहिए.

कहीं आरटीआइ का मखौल न बन जाये!
।। प्रो नावेद जमाल।।
(राजनीतिक विश्लेषक)

देश की तमाम प्रमुख राजनीतिक पार्टियों ने जिस तरह से खुद को आरटीआइ के दायरे से बाहर रखने का फैसला किया है, इसे लोकतंत्र के साथ एक बड़ा मजाक कहा जा सकता है. राजनीतिक दल पारदर्शिता की बात करते हैं, यह ठीक है, लेकिन अगर वे खुद इस कसौटी पर खरा नहीं उतरेंगे तो सूचना के अधिकार कानून का मखौल बन जायेगा. राजनीतिक पार्टियों को इस कानून के दायरे से बाहर रखने पर आम जनता खुद को आहत महसूस करेगी. इन पार्टियों के आरटीआइ के दायरे में आने पर आम जनता के मन में यह भावना पैदा होगी कि सब कुछ सही हो रहा है. केंद्रीय सूचना आयोग ने भी इस बारे में इन दलों को आरटीआइ के दायरे में आने की बात कही थी, जिससे इनके कामकाज में पारदर्शिता देखी जाती.

दरअसल, राजनीतिक दल इस तरह की पारदर्शिता इसलिए नहीं चाहते हैं, क्योंकि इसकी आड़ में वे कालेधन को छिपाने में पूरी तरह से कामयाब होते हैं. देश में आज बहुत सी बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं, जिनसे इन राजनीतिक दलों को बेशुमार पैसा मिलता है. यह अपनेआप में एक बड़ा सवाल है कि राजनीतिक दलों की अर्थव्यवस्था किस तरह से चलती है. अर्थव्यवस्था से ही सारी चीजें संचालित होती हैं.

आज 21वीं सदी में लोग यह जानना चाहते हैं कि राजनीतिक दलों की अर्थव्यवस्था कैसे चलती है. यदि इसमें वे पूरी पारदर्शिता नहीं बरतना चाहते तो संदेह होना लाजमी है. आखिर ये दल यह बताने से क्यों हिचकिचाते हैं कि उनकी आमदनी का जरिया क्या है? यदि आमदनी का जरिया ही गलत होगा, तो उसके परिणाम कैसे सही हो सकते हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मिलनेवाला पैसा और विदेशों से प्राप्त होनेवाली रकम का एक चक्रव्यूह है, जिसमें सारे राजनीतिक दल लिप्त हैं.

एनजीओ समेत सरकारी मदद से चलनेवाली तमाम संस्थाओं को बाद में इस कानून के दायरे में लाया गया. कई अन्य संस्थाओं को भी इसके दायरे में लाने की कवायद जारी है. ऐसे में राजनीतिक दलों को भी आगे आना चाहिए. आम जनता के हितों की पूर्ति उसी दशा में हो सकती है, जब इस कानून को पूरे तरीके से लागू किया जाये. हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम है और यदि हम इसकी कसौटी पर खरा नहीं उतरेंगे, तो इसका मतलब है कानून का अप्रभावी होना. इससे आम जनता के बीच एक संदेह का माहौल बनता है.

लोकपाल समेत लोकहित के कई मोरचों पर यह सरकार असफल रही है, जबकि कांग्रेस को खुद आगे आना चाहिए था. जब रक्षक ही भक्षक हो जाये तो लोगों का भरोसा डगमगाता है. आमदनी का स्नेत नहीं बताना एक तरह से लोकतांत्रिक अधिकारों पर प्रहार है. लोगों को मूल अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता. इस कानून को बनानेवाले खुद इसके दायरे में नहीं आना चाहते तो वाकई में यह लोकतंत्र पर आघात है. देखा जाये तो पारदर्शिता के नाम पर सारे राजनीतिक दलों का मुखौटा उतर चुका है.
(बातचीत : कन्हैया झा)

क्या कहा था सूचना आयोग ने
आरटीआइ कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल की अपील पर सुनवाई करते हुए केंद्रीय सूचना आयोग ने यह आदेश दिया था कि राजनीतिक दल आरटीआइ के दायरे में आते हैं. इस फैसले के पीछे आयोग ने जो आधार गिनाये थे, वे इस प्रकार हैं.राजनीतिक दल केंद्र सरकार से बहुत ही कम कीमत पर जमीन लेते हैं. इन्हें बंगला मिलता है और आयकर में छूट मिलती है.

राजनीतिक दल जनता का काम करते हैं और चुनाव आयोग से रजिस्टर्ड होते हैं.हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों की भूमिका, उनका कामकाज एवं चरित्र आदि भी उन्हें आरटीआइ के दायरे में लाते हैं.संवैधानिक एवं कानूनी प्रावधानों में भी उनका चरित्र सार्वजनिक संस्थाओं का है. इन वजहों से वे आरटीआइ के दायरे में आते हैं.

प्रमुख छह राष्ट्रीय दलों को (कांग्रेस, भाजपा, सीपीएम, सीपीआइ, बसपा और एनसीपी) केंद्र सरकार की ओर से परोक्ष रूप से काफी आर्थिक सहायता मिलती है, इसलिए उन्हें जन सूचना अधिकारियों की नियुक्ति करनी चाहिए, क्योंकि आरटीआइ कानून के तहत उनका स्वरूप सार्वजनिक ईकाई का है.राजनीतिक पार्टियों को किसी भी संगठन से मिलनेवाले चंदे की जानकारी चुनाव आयोग को देनी होती है. लेकिन इसमें वह चंदा शामिल नहीं होता, जो 20 हजार रुपये से कम होता है.

सर्वदलीय बैठक में बनी एक राय
राजनीतिक दलों का कहना है कि सीआइसी का फैसला जनप्रतिनिधित्व कानून और संसद की भावनाओं के खिलाफ है. दलों का तर्क है कि चूंकि सांसद और पार्टी धन सहित अन्य जानकारियां चुनाव आयोग को देते हैं, ऐसे में इस फैसले का राजनीतिक दुरुपयोग होगा.

इस कानून में संशोधन करने के लिए दिल्ली में सर्वदलीय बैठक बुलायी गयी, जिसमें संशोधन करने पर चरचा हुई. बैठक में तैयार किये गये संशोधन में कहा गया कि सीआइसी का राजनीतिक दलों को सार्वजनिक प्राधिकरण मानने का फैसला दलों के आंतरिक क्रियाकलापों के सुचारू रूप से संचालन में रुकावट पैदा करेगा.राजनीतिक दलों के आरटीआइ के दायरे में आने के खिलाफ राजनीतिक आम सहमति थी. सूचना के अधिकार के नाम पर पार्टियों के अंदर किसी को झांकने की इजाजत न दी जाये, इस पर सभी दलों के नेता एकमत थे.

केंद्रीय कानून मंत्री सिब्बल के मुताबिक, सरकार के पास दो रास्ते रह गये थे, एक तो वह सीआइसी के आदेश के खिलाफ उच्च न्यायालय में याचिका दायर करे. लेकिन इसमें बहुत समय लगने की संभावना थी, इसलिए आरटीआइ अधिनियम में संशोधन का रास्ता चुना गया.राजनीतिक दलों को आरटीआइ कानून के दायरे से बाहर रखने के फैसले पर केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भी इसमें संशोधन को हरी झंडी दे दी है. अब सरकार इसे संसद में संशोधन विधेयक के तौर पर पेश करेगी.

राजनेताओं के तर्क
आमतौर पर माना जाता है कि राजनीतिक पार्टियां जवाबदेह नहीं होती हैं, लेकिन राजनेताओं का मानना है कि ऐसा बिलकुल नहीं है. ज्यादातर राजनीतिक दलों का यह कहना है कि यदि उन्हें भी आरटीआइ के दायरे में लाया जायेगा तो राजनीतिक दल काम नहीं कर पायेंगे.

केंद्रीय कानून मंत्री कपिल सिब्बल कहते हैं कि आम धारणा है कि राजनीतिक पार्टियां जवाबदेह नहीं होती हैं. जबकि हकीकत यह है कि हमें जनता निर्वाचित करती है. हमें जो भी अनुदान मिलता है, उसका खुलासा निर्वाचन आयोग के समक्ष किया जाता है. यदि राजनीतिक दलों को मिलने वाला अनुदान अस्पष्ट होता तो यह संभव नहीं हो पाता.

उनका मानना है कि यदि राजनीतिक दल गोपनीयता के साथ काम करते तो यह संभव नहीं हो पाता.उन्होंने दलील दी है कि निर्वाचन आयोग को संपत्ति एवं ऋणों तथा अपने खर्च का ब्यौरा देते हैं. इसमें पूरी तरह पारदर्शिता रहती है.सिब्बल ने कहा कि राजनीतिक दल न तो कंपनियां हैं और न ही न्यास. ये लोगों के स्वैच्छिक संघ होते हैं. राजनीतिक दलों की नियुक्ति नहीं होती. हम चुनावी प्रक्रिया के तहत लोगों के पास जाते हैं. सरकारी कर्मचारियों से अलग हमारा निर्वाचन होता है और यही मूलभूत अंतर है.

कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी इस फैसले से असहमत हैं. उन्होंने दलील दी है कि पार्टियां किसी कानून से नहीं बनी हैं और न ही वे किसी सरकारी अनुदान पर चलती हैं.

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