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आइबी ने की थी नेहरू पर केस करने की सिफारिश

।। ब्रजेश कुमार सिंह ।। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर सांप्रदायिक हिंसा भड़काने का मामला दर्ज करने की सिफारिश आइबी जैसी सरकारी एजेंसी ने की थी. वह भी तब, जब वह अंतरिम सरकार के पीएम थे. ऐसी एक घटना का जिक्र सेंट्रल इंटेलिजेंस ब्यूरो (आइबी) में लंबे समय तक काम करनेवाले एक […]

।। ब्रजेश कुमार सिंह ।।

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर सांप्रदायिक हिंसा भड़काने का मामला दर्ज करने की सिफारिश आइबी जैसी सरकारी एजेंसी ने की थी. वह भी तब, जब वह अंतरिम सरकार के पीएम थे.

ऐसी एक घटना का जिक्र सेंट्रल इंटेलिजेंस ब्यूरो (आइबी) में लंबे समय तक काम करनेवाले एक अधिकारी की किताब में आया है. फिलिप एडमंड स्टेनली फिन्नी के संस्मरणवाली किताब को बांग्लादेश की प्रकाशन संस्था यूनिवर्सिटी प्रेस लिमिटेड यानी यूपीएल ने जस्ट माइ लकशीर्षक से छापा है. ब्रिटिशकालीन भारत में पुलिस अधिकारी रहे फिन्नी 1924 में भारत आये थे.

1947 तक वह देश के अलगअलग हिस्सों में तैनात रहे. बंगाल के कई जिलों में उन्होंने काम किया और उनके आखिरी कुछ वर्ष आइबी में बीते. 1947 में जब भारत से ब्रिटिश शासन खत्म हुआ, तो फिन्नी भी ब्रिटेन चले गये. 1980 में उनकी मौत हुई. हालांकि, ब्रिटेन जाने के बाद फिन्नी ने ब्रिटिशकालीन भारत के अपने अनुभवों को कागज पर उतारना शुरू किया, जो आखिरकार पुस्तक के तौर पर छपे.

फिन्नी की इस पुस्तक का एक बड़ा हिस्सा सेंट्रल इंटेलिजेंस ब्यूरो के उनके कार्यकाल को लेकर है. आइबी के इतिहास और गतिविधियों को लेकर जो गिनती भर की पुस्तकें लिखी गयी हैं, उनमें से एक पुस्तक जस्ट माइ लकभी है.

इस पुस्तक का आखिरी अध्याय 1945 से 1947 के दौरान कोलकाता और दिल्ली के बड़े घटनाक्र मों को समेटे हुए है. नेहरू उस समय देश की अंतरिम सरकार के मुखिया थे. 16 अगस्त, 1946 को मुसलिम लीग के डायरेक्ट एक्शन डेमनाने के दौरान हुई सांप्रदायिक हिंसा में पांच हजार से अधिक लोग कोलकाता में मारे जा चुके थे.

अंतरिम सरकार में भी कांग्रेस और लीग के मंत्रियों के बीच काफी खटपट और खींचातानी चल रही थी. इसी पृष्ठभूमि में नेहरू की देहरादून में हुई एक रैली का जिक्र फिन्नी ने किया है.

फिन्नी तब आइबी के दिल्ली कार्यालय में डिप्टी डायरेक्टर थे. उन्होंने लिखा है कि नेहरू की देहरादून रैली में एक लाख के करीब लोग जमा हुए थे. वहां इस बड़े नेता के भाषण और रैली पर निगाह रखने के लिए आइबी के तीन अधिकारी तैनात थे, जो शॉर्टहैंड भी जानते थे.

रैली खत्म होने के बाद संबंधित अधिकारियों ने जो रिपोर्ट आइबी कार्यालय में जमा की, उसका अध्ययन करने के बाद फिन्नी ने पाया कि नेहरू के भाषण का एक हिस्सा ऐसा था, जिसके आधार पर उनके खिलाफ सांप्रदायिक हिंसा भड़काने का मामला दर्ज किया जा सकता था.

फिन्नी ने लिखा है कि नेहरू के भाषण का यह हिस्सा काफी गैरजिम्मेदाराना था और इससे माहौल ठंडा होने की जगह और बिगड़ सकता था. कानूनी विशेषज्ञों की राय थी कि भारतीय दंड संहिता के तहत नेहरू के खिलाफ मामला पक्के तौर पर बन सकता था.

फिन्नी ने आगे लिखा है कि सामान्य तौर पर आइबी के पास मौजूद इस सबूत के आधार पर प्रांतीय सरकार इस मामले में कार्रवाई कर सकती थी, लेकिन चूंकि मामला केंद्रीय अंतरिम सरकार के अगुआ से जुड़ा था, आइबी के तत्कालीन डायरेक्टर ने उचित समझा कि पूरा वाकया तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री के सामने रखा जाये, जो सरदार पटेल थे.

पटेल ने इस तरह का केस चलाने के खिलाफ वीटो लगा दिया और मामला वहीं रह गया, आगे नहीं बढ़ा. फिन्नी के मुताबिक, इसके कुछ समय बाद ही बिहार के कुछ जिलों में हमले हुए और बड़े पैमाने पर लूट और हत्या की वारदात हुई, जिसमें बच्चों को भी नहीं बख्शा गया.

हालांकि, इसके ठीक पहले नोआखाली में ऐसा ही हुआ था. फिन्नी लिखते हैं कि नोआखाली की घटना के कारण ही बिहार में दंगे भड़के, लेकिन उस दौर में नेहरू जैसी राष्ट्रीय शख्सीयत का इस तरह का सार्वजनिक भाषण कहीं से भी शोभा नहीं देता था और माहौल को ठंडा करने की जगह बिगाड़नेवाला था.

जाहिर है, फिन्नी ने जिस घटना का जिक्र किया है, उसका ब्योरा आधुनिक भारत के इतिहास की किताबों में कहीं नहीं मिलता है. फिन्नी की किताब भी बांग्लादेश में ही प्रकाशित हुई है. उसका भारतीय संस्करण अभी तक सामने नहीं आया है.

आइबी के रिकॉर्ड में इस तरह की जानकारी अब भी मौजूद है या नहीं, कोई कह नहीं सकता. दो कारण हैं इसके एक तो ठीक आजादी के वक्त आइबी के ढेर सारे दस्तावेज तत्कालीन ब्रिटिश अधिकारियों ने जला डाले थे और दूसरा यह कि अगर फिन्नी ने जिस रिपोर्ट का जिक्र किया है, वह अब भी अगर आइबी के पास है, तो वह ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट, और आइबी के आरटीआइ के दायरे से बाहर रहने के कारण सार्वजनिक नहीं हो सकती है.

नेहरू की छाप भारतीय राजनीति में जिस तरह की रही है, हिंदूमुसलिम एकता के जितने बड़े पैरोकार वह आजादी के पहले या आजादी के बाद रहे, उसके मद्देनजर इस तरह का घटनाक्र सीधेसीधे किसी को हजम नहीं होगा.

लेकिन सवाल है कि इस तरह की बात अपनी किताब में लिख कर फिन्नी सिर्फ सच्चाई सामने रखना चाह रहे थे या नेहरू की छवि बिगाड़ना चाहते थे. ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आजादी के बाद हिंदुस्तान छोड़कर ब्रिटेन चले जानेवाले एक शख्स का नेहरू की छवि बिगाड़ने के पीछे क्या स्वार्थ हो सकता है. जाहिर है, दोनों सवाल ऐसे हैं, जिनका जवाब देने के लिए तो आज फिन्नी मौजूद हैं, घटना के केंद्र में रहनेवाले नेहरू.

कोल ब्लॉक मामले में कानून मंत्री ने प्रधानमंत्री को बचाने के लिए सीबीआइ पर दबाव बनाये. इस पर बवाल हुआ. लेकिन आइबी में काम कर चुके दिवंगत ब्रिटिश अफसर फिलिप एडमंड स्टेनली फिन्नी की पुस्तक जस्ट माइ लकमें जांच एजेंसी से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियां हैं, जिससे पता चलता है कि सत्तारूढ़ दल और उसके नेता अपने मुखिया को बचाने के लिए आइबी की रिपोर्ट की अनदेखी करते थे.

(लेखक एबीपी न्यूज, गुजरात के संपादक हैं)

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