योजना आयोग के ताजा आंकड़ों की मानें, तो वित्त वर्ष 2004-05 से 2011-12 के सात वर्षो के दौरान देश में गरीबी में 15.3 फीसदी की कमी आयी. यह अपने आप में तसल्ली देनेवाली खबर कही जा सकती है. हालांकि इसने इस सवाल को भी जन्म दिया है कि इन आंकड़ों में आखिर कितनी सच्चई है, क्योंकि गरीबी पर पिछले कुछ वर्षो में आयी रिपोर्टे इस दिशा में सरकार के प्रदर्शन को निराशाजनक ही साबित करती रही हैं. क्या है गरीबी के आंकड़ों की हकीकत, कैसे मापी जाती है गरीबी और गरीबी के मामले में कहां खड़ा है भारत, बता रहा है आज का नॉलेज..
देश में गरीबों की संख्या और गरीबी के संबंध में योजना आयोग की ओर से जारी ताजा आंकड़ों के मुताबिक वित्त वर्ष 2004-05 से 2011-12 तक सात वर्षो की अवधि में देश में गरीबी में 15.3 फीसदी की कमी आयी है. आयोग के मुताबिक 2009-10 में देश में गरीबों की संख्या 40.7 करोड़ थी, जो नयी गरीबी रेखा के बाद 2011-12 में घट कर 26.9 करोड़ रह गयी है. यह दावा भले ही तसल्ली देनेवाला हो, पर आंकड़े जारी होने के साथ ही सवाल भी उठने लगे हैं कि इसमें कितनी सच्चई है, क्योंकि गरीबी पर पिछले कुछ वर्षो में आये आकलन इस दिशा में सरकार के प्रदर्शन को निराशाजनक ही साबित करते रहे हैं.
देश में गरीबी की हकीकत
देश में पिछले कुछ वर्षो में महंगाई में लगातार वृद्धि हुई है, लेकिन गरीबी के मानक यानी गरीबी की रेखा उस अनुपात में ऊपर नहीं हुई है. यहां तक कि केंद्र और राज्य के बीच इसके मापक के स्पष्ट आधार भी तय नहीं हो पाये हैं. केंद्र और कई राज्यों के बीच इस मामले में विवाद की स्थिति रही है. आयोग का कहना है कि उसने तेंडुलकर समिति द्वारा सुझाये मापदंडों के आधार पर गरीबी का नया पैमाना तय किया है. इसके तहत अब गांवों में प्रतिव्यक्ति 27.2 और शहरों में 33.3 रुपये से ज्यादा खर्च करनेवाले गरीब नहीं कहलाएंगे. 2004-05 में यह राशि क्रमश: ग्रामीण क्षेत्र के लिए 26 और शहरी क्षेत्र के लिए 32 रुपये थी. यानी अब गांवों में 816 रुपये मासिक और शहरों में 1,000 रुपये मासिक खर्च करनेवाले लोग अब गरीब नहीं माने जायेंगे.
जानकारों का मानना है कि महंगाई के मद्देनजर इस मानदंड को तर्कसंगत नहीं माना जा सकता है. इस बात पर काफी बहस हो चुकी है कि शहरों में क्या कोई गरीब आदमी सिर्फ 32 रुपये रोज में अपना गुजारा कर सकता है. उल्लेखनीय है कि योजना आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत हलफनामे में भी शहरी क्षेत्रों में 32 रुपये से कम और ग्रामीण क्षेत्रों में 26 रुपये से कम खर्च करनेवालों को गरीबी रेखा से नीचे यानी गरीब माना. तब भी विशेषज्ञों ने आयोग के आंकड़ों पर सवाल खड़े करते हुए कहा था कि आयोग को गरीबों की जमीनी हकीकत का पता नहीं है.
65 फीसदी किसान गरीबी में
एक आकलन के मुताबिक देशभर में 65 फीसदी से ज्यादा किसानों की रोजाना की आमदनी 20 रुपये से भी कम है. कृषि मंत्रलय द्वारा जारी आंकड़ों की पड़ताल करने पर भी कुछ ऐसी ही तसवीर सामने आती है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, गेहूं और धान की खेती में किसानों को एक वर्ष में क्रमश: 2,200 रुपये और 4,000 रुपये औसतन मुनाफा होता है. गेहूं की फसल को तैयार होने में कम से कम चार महीने का समय लगता है. इस हिसाब से देखा जाये तो एक किसान की मासिक आमदनी महज 550 रुपये होती है. एक आंकड़े के मुताबिक, देश में 65 प्रतिशत किसानों के पास एक हेक्टेयर से कम खेती लायक जमीन मौजूद है. यह प्रमाण है कि ग्रामीणों के पास जीविकोपाजर्न के समुचित साधन नहीं हैं.
आंकड़ों में विरोधाभास
भारत सरकार के गरीबी के आधिकारिक आंकड़े हमेशा से विवादों में रहे हैं. विभिन्न अंतरराष्ट्रीय और अन्य स्वतंत्र संस्थाओं के अध्ययनों में देश में वास्तविक गरीबों की संख्या सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक रही है. वर्ष 2009 में विश्व बैंक द्वारा जारी ग्लोबल इकोनॉमिक प्रोस्पेक्ट्स फॉर 2009रिपोर्ट में बताया गया था कि 2015 में भारत की एक–तिहाई आबादी बेहद गरीबी (सवा डॉलर प्रतिदिन) में गुजारा कर रही होगी.
दुनिया के 33 फीसदी गरीब भारत में
दुनिया में तकरीबन 33 प्रतिशत गरीब भारत में बसते हैं. इस वर्ष के शुरू में विश्व बैंक द्वारा जारी की एक रिपोर्ट में बताया गया कि दुनियाभर में गरीबों का एक–तिहाई हिस्सा भारत में है, जो रोजाना सवा डॉलर से भी कम में अपना गुजारा करते हैं. विश्व बैंक के अद्यतन विश्व विकास सूचकों में दर्शाया गया है कि दुनियाभर में एक अरब 20 करोड़ लोग भयंकर गरीबी में जीवन बिता रहे हैं. विश्व बैंक समूह के अध्यक्ष जिम योंग किम के मुताबिक, पूरी दुनिया में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करनेवालों की संख्या में काफी कमी आयी है, लेकिन भारत में अब भी एक–तिहाई लोग रोजाना सवा डॉलर से कम रकम में अपना जीवन गुजारते हैं. रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में 1981 में गरीबी रेखा से नीचे रहनेवालों की संख्या 42.9 करोड़ थी, जो 2010 तक घट कर 40 करोड़ हो गयी.
बेशक, देश में गरीबी की प्रतिशतता में कमी आयी हो, लेकिन विश्वस्तर पर ये आंकड़े अब भी चौंकानेवाले हैं. मौजूदा समय में जहां भारत में दुनिया के करीब 33 फीसदी गरीब बसते हैं, वहीं 1981 में दुनिया के 22 प्रतिशत गरीब ही भारत में थे. इस मामले में चीन ने बहुत ज्यादा तरक्की की है. चीन में 1981 में 84 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती थी, जबकि 2010 तक यह आंकड़ा मात्र 12 फीसदी पर आ चुका था.
परिभाषा पर विवाद
केंद्र और राज्य सरकारों के बीच अभी तक पूरी तरह से यह तय नहीं हो पाया है कि गरीब की परिभाषा क्या होनी चाहिए. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने नवंबर, 2012 में कहा था कि देश में गरीबी रेखा से नीचे रहनेवालों के आंकड़े कम दर्शाये जा रहे हैं. उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार ने दो कमेटियां बनायी थीं, जिनके आकलन में बिहार में गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले लोगों की संख्या कम बतायी गयी थी.
बिहार जैसे कृषि प्रधान राज्य में गरीबी रेखा से नीचे जीवन गुजारने वालों की संख्या को लेकर केंद्र और राज्य सरकार के आंकड़ों में बड़ा फासला है. मुख्यमंत्री का मानना है कि गरीबी रेखा से नीचे रहनेवालों की संख्या का जब तक सही तरीके से आकलन नहीं किया जायेगा, तब तक गरीबों के उत्थान को लेकर चलाया जा रहा कार्यक्रम ठीक ढंग से लागू नहीं हो पायेगा.
एनएसएसओ की ओर से देशभर में किये गये सर्वेक्षणों के आधार पर योजना आयोग द्वारा जारी आंकड़ों में बताया गया है कि वर्ष 2004-05 के मुकाबले वर्ष 2011-12 में देश में गरीबी में 15.3 फीसदी की कमी देखी गयी है. हालिया जारी आंकड़े के प्रमुख तथ्य इस प्रकार हैं:
-वर्ष 2004-05 में गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले 37.2 फीसदी थे. यह संख्या 2011-12 में घट कर 21.9 फीसदी हो गयी.
-वर्ष 2004-05 से वर्ष 2011-12 के सात वर्षो के बीच हर साल गरीबी में 2.18 फीसदी की दर से गरीबी में कमी आयी है.
-इस अवधि के दौरान ग्रामीण भारत में गरीबों की कुल संख्या 32.58 करोड़ से घट कर 21.72 करोड़ पर आ गयी, जो शहरों की तुलना में ज्यादा तेजी से कम हुई.
-पूरे देश के आंकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 2004-05 में गरीबी रेखा से नीचे रहनेवालों की संख्या 40.71 करोड़ थी, जो घट कर 26.93 करोड़ पर आ चुकी है.
-बिहार, ओड़िशा, राजस्थान, मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा तेजी से दर्ज की गयी है गरीबी में गिरावट.
-बिहार में वर्ष 2004-05 में गरीबी रेखा से नीचे रहनेवालों की संख्या 54.4 फीसदी थी, जो 2011-12 में घट कर 33.74 फीसदी पर आ गयी है.
-झारखंड में वर्ष 2004-05 में गरीबी रेखा से नीचे रहनेवालों की संख्या 45.3 फीसदी थी, जो 37 फीसदी पर आ गयी है.