।। अनुप्रिया अनंत ।।
लाइट ऑफ एशिया रील नंबर 8, कालिया मर्दन रील नंबर 6, श्रीराज रील नंबर 7.. ये किसी फिल्म के संवाद नहीं हैं, बल्कि सिनेमा के प्रति एक ऐसे शख्स के दिलो-दिमाग पर छाये जुनून का प्रतीक है, जो फिल्में नहीं बनाते, लेकिन उसे सहेजने के लिए हमेशा तत्पर रहे हैं. वे फिल्मों को जीते हैं. वे फिल्मों के लिए जीते हैं.
बात हो रही है पीके नायर साहब की, जिन्होंने भारत में फिल्मों के संरक्षण की परंपरा शुरू की. ऐसे में भारतीय सिनेमा के 100 साल के जश्न में नेशनल फिल्म आर्काइव ऑफ इंडिया के पहले संरक्षक (नायर साहब) के योगदान को कैसे भूल जा सकता है.
नायर साहब नहीं होते तो दिलीप कुमार 20 सालों के बाद अपनी फिल्म ‘मुगले आजम’ को शायद दोबारा नहीं देख पाते. जया बच्चन फिल्मों में नहीं आतीं, एफटीआइआइ पुणे में सिनेमा देखना एक धर्म नहीं बन पाता. वह नायर साहब ही हैं, जिन्होंने सिनेमा को अपनी सभ्यता का हिस्सा मान कर फिल्मों के संरक्षण की पहल की. दादा साहेब फाल्के को भारतीय सिनेमा का पितामह बनाने का श्रेय भी इन्हीं को जाता है.
एफटीआइआइ, पुणे शुरुआती दौर से ही भारतीय सिनेमा को बेहतरीन निर्देशक व कलाकार देता रहा है. आज भारतीय सिनेमा के कई ऐसे निर्देशक हैं, जिन्होंने फिल्में बनाना या फिल्मों से रू-ब-रू होना पीके नायर से ही सीखा. एफटीआइआइ के ही विद्यार्थी रह चुके निर्देशक शिवेंद्र सिंह डुंगरपुर ने नायर साहब पर आधारित ‘सेल्यूलॉयड मैन’ नामक डॉक्यूमेंट्री फिल्म का निर्माण किया , जिसे इसी वर्ष दो राष्ट्रीय पुरस्कार भी दिये गये हैं. फिल्म कई फिल्मोत्सवों में सराही जा चुकी है और पुरस्कृत हो चुकी है. तीन मई को ही रिलीज भी हुई.
‘सेल्यूलॉयड मैन’ भारतीय सिनेमा की एक महत्वपूर्ण डॉक्यूमेंट्री है, जिसे सिनेमा से प्यार करनेवाले हर शख्स को देखना चाहिए. फिल्म को देखने के बाद कोई भी उनके योगदान को नकार नहीं पायेगा. महसूस कर पायेंगे कि एक व्यक्ति, जो फिल्म नहीं बनाता है, पर उसे अपनी जिंदगी का अहम हिस्सा कैसे मानता है. भारतीय सिनेमा का जो अपना आर्काइव है, क्या उनके बगैर संभव था.
बावजूद इसके कि सिनेमा के विकास को लेकर सरकारें बहुत अधिक तत्पर नहीं रही हैं, नायर साहब जैसे शख्स ने कई फिल्मों को जिंदा रखा. न सिर्फ भारतीय, बल्कि कई विदेशी फिल्में भी उनकी वजह से ही संरक्षित है. यह उनका जुनून ही है कि भारत की पहली बोलती फिल्म से लेकर दादा साहेब फाल्के की अधिकतर फिल्मों को बाकायदा रील में संरक्षित किया है.
अभिनेता अशोक कुमार एक बार जब एफटीआइआइ आये, तो उन्होंने नायर साहब से पूछा कि क्या आपके पास ‘अछूत कन्या’ की रील होगी. जवाब था कि न सिर्फ ‘अछूत कन्या’, बल्कि उससे पहले की अशोक कुमार की फिल्में भी उनके पास हैं. और अशोक कुमार चकित होने के साथ बहुत खुश भी हुए.
बचपन से ही नायर साहब फिल्मों के शौकीन थे. निर्देशक ही बनना चाहते थे. पहली फिल्म त्रिवेंद्रम में बालू पर बैठ कर देखी थी. उस वक्त से ही उन्होंने फिल्मों के टिकट एकत्रित करने शुरू कर दिये थे. इसके बाद उन्हें जहां भी सिनेमा या सिनेमा से जुड़ी चीजें नजर आतीं, वे उसे एकत्रित कर लेते.
भारत में करीब 1700 साइलेंट फिल्में बनीं, लेकिन उनमें से केवल नौ फिल्मों की रीलें ही सुरक्षित हो पायीं, सिर्फ नायर साहब की वजह से. फिल्मों के केन की खोज में देश के सुदूर क्षेत्रों में भी जाया करते थे. भारतीय सिनेमा के इतिहास में उनकी महत्ता को कौन नकार सकता है.
* भारतीय सिनेमा 100 साल
पीके नायर साहब नहीं होते, तो दिलीप कुमार 20 सालों के बाद अपनी फिल्म ‘मुगलेआजम’ को शायद दोबारा नहीं देख पाते. वे नहीं होते तो जया बच्चन फिल्मों में नहीं आतीं. वह पीके नायर ही हैं, जिन्होंने सिनेमा को अपनी सभ्यता का हिस्सा मान कर फिल्मों के संरक्षण की पहल की. भारतीय सिनेमा के 100 साल के जश्न में नेशनल फिल्म आर्काइव ऑफ इंडिया के पहले संरक्षक पीके नायर के योगदान को कैसे भूला जा सकता है.
* अगर नायर साहब नहीं होते तो शायद मैं दुनिया की तमाम बेहतरीन फिल्में नहीं देख पाती. मैं मानती हूं कि नायर साहब ने भारत में जितने फिल्मोत्सव करवाये होंगे, शायद ही किसी ने करवाया होगा.
जया बच्चन, अभिनेत्री
* नायर साहब की वजह से हमने वे फिल्में भी देखीं, जो उस दौर में सेंसर हो जाया करती थीं. उनकी वजह से हमें नजरिया मिला, फिल्म देखने का थॉट मिला.
नसीरुद्दीन शाह, अभिनेता
* हम नायर साहब की वजह से ही देश-दुनिया की तमाम फिल्मों से रूबरू हुए. मैं फिल्म निर्देशक बन पाया, तो उनकी वजह से ही.
राजकुमार हिरानी, फिल्मकार