देश के प्रत्येक नागरिक के भीतर जो नाउम्मीदी के बादल घिर आये थे, वो 2014 में छंटते हुए नजर आये. यह नाउम्मीदी इसलिए थी कि देश में सरकार तो थी, पर सरकार की नीतियों में मजबूती और स्वाभिमान का पुट नजर नहीं आता था. देश के प्रधानमंत्री, प्रधानमंत्री की तरह नहीं लगते थे. सरकार की तरफ से देश के विकास की बड़ी-बड़ी बातें तो होती रहीं, विदेश यात्रएं भी होती रहीं, लेकिन वैश्विक पटल पर देश के नागरिकों के स्वाभिमान का एहसास लगातार क्षीण होता रहा था. पता ही नहीं चलता था कि कोई सरकार है भी या सिर्फ नौकरशाह देश को चला रहे हैं. किसी देश की संसद और सरकार में यदि अनुशासनहीनता का कोहरा छाया रहता है, तो निश्चय ही देश कागजों पर तो आगे बढ़ता जाता है, लेकिन जमीनी तौर पर पिछड़ता जाता है.
हमारे देश में यही हो रहा था. लेकिन 2014 का वर्ष उम्मीदों की एक नयी अलख जगाता हुआ आया और जनता ने उसका अभिनंदन भी किया. इस वर्ष जिस तरह बहुमत की सरकार बनी, जाहिर है, वह परिवर्तन की इच्छुक जनता की वजह से बनी. जनता ने अपने जनादेश में बताया कि उसे देश, समाज, आम आदमी, किसानों, युवाओं, स्त्रियों की उन्नति, रोजी-रोटी और रोजगार के बारे में सोचनेवाली सरकार चाहिए. ऐसी सरकार, जो जनाकाक्षांओं को संभव बनाने के बारे में सोचे. गुड गवर्नेस की बात हुई और जनाधार उसकी पैरवी के लिए आगे आया. और ऐसा होता हुआ नजर भी आ रहा है.
2014 में देश को एक ऐसा प्रधानमंत्री मिला, जिसने बताया कि देश का प्रधानमंत्री होना क्या होता है. लाल किले की प्राचीर से दिये गये अपने पहले ही भाषण में प्रधानमंत्री ने स्त्रियों की बात की. अनुशासन और स्वच्छता की बात की. आम आदमी और किसानों की आवाज की सुनवाई की बात की. अपने वक्तव्य में बताया कि प्रधानमंत्री आम जन का सेवक है. अभी तो ऐसा ही लग रहा है कि वह कहीं न कहीं समाज के हर कोने तक एक जिम्मेदार सेवक की भांति पहुंचना चाहते हैं. देश के हर नागरिक को इस जिम्मेदारी में साङोदार बनाना चाहते हैं. इसलिए बीता हुआ वर्ष देश के सपनों और आकांक्षाओं के ऊपर छाये हुए कोहरे को दूर करने की सामथ्र्य रखता है. मुङो लगता है कि इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी के बाद देश में को कोई ऐसा प्रधानमंत्री नहीं हुआ, जिसने हमारी विदेश नीति के स्वाभिमान को लौटाया है.
देश के भीतर अनेक तरह की सांप्रदायिकताएं हैं, सांप्रदायिकता से मेरा मतलब सिर्फ धार्मिक नहीं, जातिगत सांप्रदायिकता से भी है, जिनका उभरना व्यथित करता है. देश को कोई सांसद या मंत्री जातिगत स्वरूप में नहीं चाहिए. वह यह न कहे कि मैं इस या उस जाति का हूं. हम जब स्कूल और कॉलेज जाते थे तो ये कहा जाता था कि लड़कियों को समता, शिक्षा, स्वावलंबन और स्वाधार चाहिए. आप अपनी बेटी को पढ़ाएं और उसे सशक्त बनाएं. आज लड़कियां पढ़ रही हैं. छोटे-छोटे शहरों और कस्बों से आकर बड़े-बड़े संस्थानों में बड़े ओहदों पर काम कर रही हैं. लेकिन सशक्त नहीं हुई हैं क्योंकि समाज में उसे समता व सुरक्षा नहीं मिली है. क्योंकि वह अंधेरा होने पर ही नहीं, उजाले में भी शहरों की गलियों में सुरक्षित चार कदम चल नहीं सकती है. इस समाज को अपनी मानसिकता को परिपक्व करने की जरूरत है. तकनीक के स्तर पर तो हमने खूब विकास किया. लेकिन सोच के स्तर पर हम आगे नहीं बढ़े. मुङो लगता है कि नये प्रधानमंत्री इन बातों की ओर गौर कर रहे हैं. व्यवस्था में जो दीमक लगी है उसे दूर करने का दावा कर रहे हैं. हमें उन्हें दावा पूरा करने का वक्त देना चाहिए.
धर्म हमारा बहुत ही निजी उजास है. धर्म के नाम पर फतवे जारी करना और धर्म बदलने के लिए दबाव डालना गलत है जो कि बीते वर्ष में बहुत सुना गया. देश की जनता को निर्धारित करने दीजिए कि उसके लिए क्या सही है क्या गलत है. आप हमें न बताएं कि इस धरती पर राम को कैसे माना जाना चाहिए. यह वो कमजोरी है, जो हमें पीछे की ओर धकेलेगी. हमें अतीत से जो अच्छी चीजें हैं, जो मनुष्य होने के मूल्य हैं, जो कौटम्बीय जीवन के मूल्य हैं, उसे हम आगे लेकर चलें. लेकिन धर्म के नाम पर रूढ़ि को पीछे छोड़ दें. आप डंडे के बल पर लोगों को धर्म बदलने या घर वापसी नहीं करा सकते. यदि आधा छत्तीसगढ़ अगर ईसाई हो चुका है, तो वो डंडे के बल पर नहीं हुआ है, बल्कि सेवा के बल पर. आप भी सेवा करिये, लोग क्यों जायेंगे! जबरदस्ती बहुत ही शर्मनाक है, विवेकपूर्ण नहीं है. दूर-दराज के इलाकों तक स्वस्थ नागरिक सेवाएं पहुंचाएं. सेवा से उनके मन को जीतें.
सरकार के समर्थकों का एक हिस्सा इस तरह की रूढ़ियों में डूबा हुआ है. वो पुराने गौरव को वापस लाने की बात करता है, पुराना गौरव अगर इतना बड़ा गौरव होता, तो टूट क्यों जाता? इन सबके बावजूद एक उम्मीद लौटी है. भारत एक विशाल देश है. ऐसे में रातों रात किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं करना चाहिए. सहयोग का रवैया रखना चाहिए. सरकार गुड गवर्नेस को स्थापित करने की कोशिश कर रही है और हमें उसमें साङोदार बनना चाहिए.
(प्रीति सिंह परिहार से बातचीत पर आधारित)
देश में चली परिवर्तन की लहर
.और दरवाजे पर दस्तक दे रहा है 2015. पर जो बीता उसका आकलन भी तो जरूरी है. भविष्य की नींव तो इसी पर रखी जायेगी. इससे किसे इनकार है कि 2014 में भारतीय जनता की उम्मीदें जवां हुई हैं. गुड गवर्नेस की चाह में एक स्थिर सरकार के लिए वोट दिया. परिणाम सामने है. लेकिन इन दिनों पुराने गौरव को वापस लाने की बात जो उठी है, तो सवाल है कि इतना बड़ा था, तो टूटा ही क्यों? खैर, आकांक्षा जगी है, रातों रात चमत्कार की चाह जल्दबाजी होगी, सहयोग का रवैया सही है. आइए, जानें कैसा रहा 2014.