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खुद बोलते तीन तथ्य!

।। हरिवंश ।।– तीन तथ्यों पर चर्चा. स्वत: बोलते तथ्य हैं. इन तथ्यों के संदेश और आशय साफ हैं. दो, देश से जुड़े हैं. देश के मौजूदा हालात और भविष्य से भी. तीसरा, पड़ोसी चीन का प्रसंग है, पर बात भारत की ही लगती है. बल्कि भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के घर-घर से जुड़ा […]

।। हरिवंश ।।
– तीन तथ्यों पर चर्चा. स्वत: बोलते तथ्य हैं. इन तथ्यों के संदेश और आशय साफ हैं. दो, देश से जुड़े हैं. देश के मौजूदा हालात और भविष्य से भी. तीसरा, पड़ोसी चीन का प्रसंग है, पर बात भारत की ही लगती है. बल्कि भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के घर-घर से जुड़ा प्रसंग. किसी समाजशास्त्री ने बहुत पहले कहा था कि सूचना क्रांति, इंटरनेट रेवोल्यूशन व दूरी खत्म होने (यात्रा के संदर्भ में) के सम्मिश्रण से दुनिया गांव बन गयी है. यह बात उसी गांव की है. पर घर-घर से जुड़ी.

* यादगार हस्तक्षेप!
भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे के साहस का अभिनंदन होना चाहिए. पूरे मुल्क में. एकतरफ शासकवर्ग, मुल्क को अंधेरे में रख रहा है, तब गोपीनाथ मुंडे ने वह साहस किया है, जिसकी आज इस मुल्क को सबसे अधिक जरूरत है. दुर्भाग्य यह है कि वह अपने स्टैंड पर अकेले दिख रहे हैं. उन्होंने 28.06.2013 को मुंबई की एक सार्वजनिक सभा में कहा कि इस बार (2009 का लोकसभा चुनाव) आठ करोड़ रुपये खर्च कर मैंने चुनाव जीता. यह भी बताया कि पहली बार जब वह विधायक बने थे, तो महज 29 हजार रुपये खर्च हुए थे. मुंडे, महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री रहे हैं.

लोकसभा में भाजपा के उपनेता हैं. पिछड़ों-दलितों के बीच महाराष्ट्र व तटवर्ती इलाकों में उनका मजबूत जनाधार है. याद रखिए, 2009 के लोकसभा चुनाव में चुनाव कानून की अपेक्षा थी कि प्रत्याशी महज 25 लाख रुपये खर्च कर चुनाव जीते (अब बड़े राज्यों के लिए यह सीमा 40 लाख हो चुकी है). पर सार्वजनिक सभा में बयान देकर मुंडे ने उस झूठ से पर्दा हटा दिया, जिसमें लगभग सभी राजनेता (अपवाद छोड़ कर) जी रहे हैं. तय सीमा से तीस गुना से अधिक गोपीनाथ मुंडे को खर्च करना पड़ा. अब चुनाव आयोग उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की तैयारी कर रहा है. कमोबेश ऐसा खर्च सब कर रहे हैं, यह खुला सच है.

कई बार सच के लिए कानून को तोड़ना इतिहास को मोड़ता है. जिन लोगों ने दुनिया में इतिहास बदला है, उनके प्रसंग पढ़ें. उन्होंने झूठ में जीते देश, समाज और लोगों को अपने समय के सच से झकझोरा. मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का भी बयान आया है कि सभी चुनाव ब्लैकमनी के बल लड़े जा रहे हैं. यह भी साहसिक हस्तक्षेप है. सरकार या व्यवस्था के फैसलों को बेच कर जो आमद होती है (ब्लैकमनी), उससे चुनाव लड़े जा रहे हैं.

याद रखिए, जयप्रकाश नारायण ने चुनाव सुधार का अभियान चलाया. बिहार आंदोलन में भी इसकी बात की. उसके पहले संथानम कमेटी बनी, चुनाव सुधार के लिए. यह 60 के दशक की बात है, पर चुनाव लगातार महंगे होते गये. स्वर्गीय भैरोसिंह शेखावत और लालकृष्ण आडवाणी ने भी व्यक्तिगत तौर पर चुनाव सुधार के लिए काफी पहल की. पर इस देश के शासक निजी हित में देश को अंधेरे में रखने पर तुले हैं.

इसमें कांग्रेस की भूमिका सर्वाधिक है. पिछले 63 सालों में विपक्ष कुल आठ-नौ वर्ष सत्ता में रहा. बाकी तो कांग्रेस का शासन है. सब जानते हुए और इस संस्कृति (ब्लैकमनी पर चुनाव लड़ने) की जन्मदात्री होते हुए भी कांग्रेस का अक्षम्य अपराध है कि वह हालात बदलने के लिए तैयार नहीं है. पहले सैकड़ों लोग मंत्री हो जाते थे.

पूरी सरकार समेत दल बदल करने में माहिर थे, राजनेता. इन सबकी संरक्षक रही कांग्रेस. कम से कम एनडीए को इसके लिए भी याद किया जायेगा कि उसने मंत्रिमंडल का एक निश्चित आकार या सीमा (सदन के आकार एक निश्चित प्रतिशत) तय की. साथ ही दल बदल रोकने की कानूनी पहल की. पर आज विपक्ष भी मुल्क को झूठ, भ्रम, छल-छद्म और व्यामोह में रखने का गुनहगार है.

जिस तरह मुंडे या शिवराज सिंह ने इस राष्ट्रीय झूठ (चुनाव खर्च सीमा) से पर्दा उठाया है, उसी तरह विपक्ष का हर नेता क्यों नहीं बोलता या सरकार को बाध्य करता है कि राजनीति से झूठ को बाहर निकालो? राजनीति को नैतिक बनाने का यह पहला जरूरी कदम है. अंतत: यह दायित्व कांग्रेस का है, क्योंकि वह सरकार में है.

फर्ज करिए, मुंडे जैसा साहसिक बयान, कांग्रेस आलाकमान या प्रधानमंत्री ने देकर कहा होता कि गांधी के इस देश में हम राजनीति को नैतिक बनायेंगे, तब कांग्रेस की छवि बदलती. कांग्रेस अगर इस पर प्रहार करती, तो वह अपने पुराने स्वरूप (नैतिक राजनीति) की ओर लौटती दिखायी देती. पर यह तो वह कांग्रेस है, जिसके पास चंदे के रूप में सबसे अधिक धन आ रहा है.

हजारों करोड़ से अधिक. लेकिन वह इसका स्नेत बताने को तैयार नहीं. भाजपा समेत हर छोटे-बड़े दल को आज चंदे में बड़ी राशि मिलती है, पर इसका स्नेत बताने को कोई तैयार नहीं. ये सभी राजनीति दल आरटीआइ (सूचना का अधिकार) को भी अपने ऊपर नहीं लागू होने देना चाहते. क्योंकि इन दलों की दुनिया में जो अनैतिक धंधे, हथकंडे, भ्रष्टाचार हैं, वे सार्वजनिक न हों.

राजनीति और शासन की दुनिया से पारदर्शिता, शुचिता, नैतिकता, जनता के विकास, जनकल्याण, जनहित जैसे विशेषणों को बैन (प्रतिबंधित) कर देना चाहिए. भ्रष्टाचार में गोते लगायेंगे और बात करेंगे पारदर्शिता की! इन शासकों के भ्रष्टाचार की कीमत है, बेकाबू होती महंगाई, बेतहाशा बढ़ती पेट्रोल-डीजल की कीमत, बोझ बनता जीवन (चूंकि चिकित्सा और शिक्षा खर्च ने कमर तोड़ दी है), बेतहाशा बढ़ता भ्रष्टाचार. पर इससे भी खतरनाक है कि इस राजनीतिक संस्कृति ने पूरे समाज को झूठ में जीने का संस्कार दिया है.

आज जो भी चुनाव जीतते हैं, वे खुद अपना सच जानते हैं. जिन सांसदों, विधायकों से अपेक्षा होती है कि वे सच, शुचिता, आदर्श और नैतिक मूल्यों के साथ राजधर्म निभायेंगे, वे तो झूठ से ही जन्म लेते हैं. आज 120-124 करोड़ के देश की रहनुमाई करनेवाले नेता इतने कमजोर हो गये हैं कि वे सच का सामना नहीं कर सकते?

* एनडीए की ऐतिहासिक भूमिका!
खासतौर से यूपीए-2 का शासनकाल, शासनविहीनता (कुशासन या अराजकता), भ्रष्टाचार की सुनामी (लाखों करोड़ों के भ्रष्टाचार), दिशाहीनता, महंगाई वगैरह के लिए स्मरण रहेगा. पर इससे भी अधिक यह दौर याद रहेगा कि भारत में आज कोई बेहतर-विश्वसनीय विकल्प दिखाई नहीं देता. आज देश को सबसे अधिक जरूरत है, एक बेहतर-विश्वसनीय विपक्ष या विकल्प की.

अर्थव्यवस्था लगभग चौपट होने को है. मनरेगा पर हर साल लगभग 40 करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं, पर किस राष्ट्रीय संपत्ति (क्रियेशन आफ नेशनल वेल्थ) का निर्माण हो रहा है? भ्रष्टाचार अलग है. खाद्य सुरक्षा अध्यादेश आ गया है. खाद्यान्न सब्सिडी, 75 हजार करोड़ (वर्तमान) से बढ़ कर लगभग डेढ़ लाख करोड़ होनेवाली है. अब राशन डीलर और इस काम से जुड़े बिचौलिये भी करोड़पति-अरबपति होनेवाले हैं, उसी तरह जैसे मुखिया करोड़पति-अरबपति हो रहे हैं. वितरण की व्यवस्था (सिस्टम डिलिवरी) को ठीक किये बगैर आप देश का धन लुटा रहे हैं.

उधर पेट्रोलियम पदार्थो पर सब्सिडी कम कर रहे हैं, दूसरी तरफ सब्सिडी बढ़ा रहे हैं. कहां खर्च होना चाहिए? इंफ्रास्ट्रक्चर, स्वास्थ्य व शिक्षा वगैरह पर. लेकिन इन बुनियादी क्षेत्रों में बुरी स्थिति है. उधर एनडीए, आत्महत्या पर उतारू है. अन्यथा एनडीए के शासनकाल की उपलब्धियों को यूपीए-2 गिना रहा है. इससे बड़ा प्रमाणपत्र एनडीए के लिए कोई दूसरा नहीं हो सकता. दो क्षेत्रों में यूपीए से एनडीए का शासन अत्यंत श्रेष्ठ रहा है. यह हमारा मंतव्य नहीं है. यह यूपीए-2 की केंद्र सरकार की राय है. यूपीए सरकार ने उच्चत्तम न्यायालय को एक शपथपत्र सौंपा है (देखें द टाइम्स आफ इंडिया, 03.07.2013). इसके अनुसार 1980 में राष्ट्रीय राजमार्गो की देश में कुल लंबाई 29 हजार किलोमीटर थी.

2012 के अंत तक यह 76818 हजार किलोमीटर हुई. यानी पिछले 32 वर्षो में विभिन्न केंद्र सरकारों ने लगभग 48000 किलोमीटर सड़कें बनायीं. शपथपत्र में केंद्र सरकार ने यह भी बताया है कि 1997-2002 (नौवीं पंचवर्षीय योजना), जब एनडीए शासन का दौर था, तब 23814 किलोमीटर नयी सड़कें जुड़ीं. यानी राष्ट्रीय राजमार्ग की कुल लंबाई का 50 फीसदी, 30 वर्षो में बना, उसमें भी सबसे अधिक एनडीए के कार्यकाल में. आजादी के बाद किसी भी पंचवर्षीय योजना में एनडीए के कार्यकाल की पंचवर्षीय योजना के मुकाबले सड़कें बहुत कम बनीं.

यूपीए के दस वर्षो के शासनकाल में लगभग 16 हजार किलोमीटर सड़कें बनीं हैं. इसी तरह जून के अंतिम सप्ताह की खबर है. यूपीए सरकार द्वारा दिये गये रोजगार के ताजा आंकड़ों के अनुसार एनडीए के कार्यकाल में यूपीए के मुकाबले अधिक रोजगार बढ़े (देखें हिन्दुस्तान टाइम्स, नयी दिल्ली, 22.06.2013). यह तुलना एनडीए के छह वर्षो के कार्यकाल की यूपीए के आठ वर्षो के कार्यकाल से है. ये आंकड़े एनएसएसओ (नेशनल सैंपल सर्वे) के हैं. 1999-2000 और 2003-04 के बीच, एनडीए के शासनकाल में छह करोड़ नयी नौकरियां सृजित हुईं, जबकि यूपीए के शासनकाल (2004-05 से जनवरी 2012 तक) में 5.3 करोड़. इन सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2010-12 के बीच दो फीसदी बेरोजगारी बढ़ी है.

इस तरह चाहे सड़कों के निर्माण की बात हो या नयी नौकरियों के सृजन की, यूपीए सरकार की अपनी रिपोर्ट कहती है कि एनडीए का शासनकाल बेहतर रहा. पर क्या एनडीए श्रेय लेने की स्थिति में है? वह बंट और बिखर रहा है, इस ऐतिहासिक मोड़ पर. दुर्भाग्य है कि इस माहौल में सच और साफ बोलनेवाले नेता खत्म होते जा रहे हैं. क्या हालत हो गयी है, ग्रासरूट पर शिक्षा की? शिक्षा बजट की नब्बे फीसदी पूंजी तो शायद प्राइमरी स्तर पर मास्टरों के वेतन पर खर्च होती है. और मास्टर पढ़ा क्या रहे हैं? पर यह सच, नेता नहीं बोलेंगे, क्योंकि उन्हें सिर्फ वोट चाहिए.

* बुजुर्गों के प्रति फर्ज!
चीन ने एक नया कानून बनाया है. अब बच्चों के लिए यह अनिवार्य है कि वे अपने बूढ़े मां-बाप के पास प्राय: जायेंगे. उनका ध्यान रखेंगे. याद रखिए, भारत की तरह चीन को भी परिवार संस्था पर फा रहा है. परिवार की एकजुटता, बुजुर्गो के प्रति सम्मान, मां-बाप के प्रति आदर, चीन की संस्कृति का हिस्सा रहा है. चीन के महान दार्शनिक कन्फ्यूशस का दर्शन भी इस अवधारणा को मान्यता देता है. चीनी बच्चों से अपेक्षा की जाती है कि वे इस अत्यंत प्राचीन परंपरा या अपने बुजुर्गो के अवदान-योगदान का बारीक अध्ययन करें, सम्मान करें, उनसे सीखें और अपने समाज को मजबूत करें.

पिछले पांच हजार वर्षों में भी भारत नहीं बिखरा, तो उसमें परिवार संस्था की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. याद रखिए, यूरोप या अमेरिका में परिवार, एशिया के देशों की तरह मजबूत इकाई नहीं रहा. अमरीका या यूरोप का समाज आत्मकेंद्रित है. पर समाज में बढ़ती अराजकता, आत्मकेंद्रित सोच, अकेलापन, अवसाद (डिप्रेशन) वगैरह को रोकने के लिए पश्चिम में पिछले कई दशकों से परिवार को मजबूत करने का एजेंडा सबसे ऊपर रहा है. पर आज भारत हो या चीन, इस बाजार व्यवस्था, गलाकाट स्पर्धा ने जीवन को अत्यंत व्यस्त एवं जटिल बना दिया है.

घर, पुरानी परंपराओं और संस्कारों को छोड़ कर युवा आगे निकल रहे हैं. चीन ने इसे रोकने की नयी पहल की है. जुलाई के पहले दिन यह कानून बनाया है कि मां-बाप अपने कृतघ्न बच्चों पर मुकदमा कर सकते हैं. बुजुर्गो की सुरक्षा का यह नया कानून है. इसके तहत तत्काल फैसले भी आने शुरू हो गये हैं. एक 77 वर्षीय चीनी महिला श्रीमती चू ने उक्सी शहर में अपनी एकमात्र बेटी पर दावा ठोका.

कोर्ट ने वित्तीय हर्जाना देने और हर दो महीने पर सरकारी छुट्टी के दिन घर आकर वृद्ध मां से मिलने का फैसला सुनाया. एशिया की अवधारणा रही है, अपने बुजुर्गों के प्रति सम्मान. उनके अनुभवों से लगातार सीखने की. पश्चिम के बाजार या उदारीकृत अर्थव्यवस्था से जन्मी यह नयी संस्कृति इसे तोड़ रही है. चीन के सार्थक हस्तक्षेप ने एक नया रास्ता दिखाया है.

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