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बचपन की जिज्ञासा ने बनाया वैज्ञानिक
कोई भी व्यक्ति ऐसे ही महान नहीं बन जता है. उसे महानता तक पहुंचने के लिए कठोर परिश्रम और एक ही विश्वास पर अडिग रहना पड़ता है. जगदीश चंद्र बोस भी ऐसे ही व्यक्ति थे. उन्होंने कभी भी किसी भी समसया से हार नहीं माना. जानते हैं उनके जीवन से जुड़े कुछ प्रसंग. जब सफल […]
कोई भी व्यक्ति ऐसे ही महान नहीं बन जता है. उसे महानता तक पहुंचने के लिए कठोर परिश्रम और एक ही विश्वास पर अडिग रहना पड़ता है. जगदीश चंद्र बोस भी ऐसे ही व्यक्ति थे. उन्होंने कभी भी किसी भी समसया से हार नहीं माना. जानते हैं उनके जीवन से जुड़े कुछ प्रसंग.
जब सफल हुआ प्रयोग
यह घटना उस समय की है, जब भारत के महान वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस इंग्लैंड में थे. उन दिनों वह इस बात की खोज में लगे हुए थे कि पौधों में भी जीवन है और वे भी हमारी तरह पीड़ा का अनुभव करते हैं. वह इसे सिद्ध करने के लिए दिन-रात प्रयोग में जुटे हुए थे. आखिर वह दिन भी आ गया, जब उन्हें लोगों के सामने इस बात को सिद्ध करना था. उस दिन उनका प्रयोग देखने के लिए दुनिया भर के वैज्ञानिक एवं लोग एकत्रित थे.
बोस ने एक नजर भीड़ पर डाली, जो बेसब्री से उनके प्रयोग की प्रतीक्षा कर रही थी और दूसरी नजर उस पौधे पर जिसके माध्यम से वह प्रयोग करनेवाले थे. उन्होंने इंजेक्शन द्वारा उस पौधे को जहर दिया. बसु के प्रयोग के अनुरूप जहरीले इंजेक्शन से पौधे को मुरझाना चाहिए था, लेकिन कुछ समय बाद भी जब पौधा नहीं मुरझाया. वहां उपस्थित लोग उनका मजाक उड़ाने लगे. बसु के लिए यह अत्यंत कठिन घड़ी थी. वह अपने प्रयोग के प्रति पूरी तरह आश्वस्त थे.
उन्हें लगा कि यदि जहरवाले इंजेक्शन ने पौधे को नुकसान नहीं पहुंचाया, तो वह उन्हें भी नुकसान नहीं पहुंचा सकता. हो सकता है कि शीशी में जहर के बजाय कुछ और हो. यह सोच कर बोस ने जहर की शीशी उठायी और अपने मुंह से लगा लिया. उन्हें ऐसा करते देख सभी चिल्लाने लगे और वहां भगदड़ मच गयी, लेकिन बोस को वह जहर पीने पर भी कुछ नहीं हुआ. यह देख कर एक व्यक्ति वहां आया और उन्हें शांत करता हुआ बोला कि उसी ने जहर वाली शीशी बदल कर उसी रंग के पानी की शीशी रख दी थी ताकि यह प्रयोग सही सिद्ध न हो पाये. इसके बाद बोस ने विषवाली शीशी से पौधे को पुन: इंजेक्शन दिया. देखते ही देखते कुछ ही क्षणों में पौधा मुरझा गया. इस तरह यह प्रयोग सफल रहा.
पेड़-पौधों के बारे में जानने की जिज्ञासा
जेसी बोस को बचपन से ही पेड़-पौधे के बारे में जानने की इच्छा थी. उन्होने पेड़-पौधों पर अध्यन करना शुरू किया. बचपन में जब उन्हें पेड़-पौधे के बारे में उन्हें संतुष्ट करनेवाले उत्तर नहीं मिले, तो बड़े हो कर वे इसकी खोज में लग गये.
आखिरकार अंगरेजों को झुकना पड़ा
कोलकाता में भौतिकी का अध्ययन करने के बाद बोस इंग्लैंड के कैंब्रिज विश्वविद्यालय चले गये. वहां से स्नातक की उपाधि लेकर वे भारत लौट आये. उन्होंने प्रेसिडेंसी कॉलेज में प्राध्यापक का पद ग्रहण कर लिया. उन दिनों अंगरेज और भारतीय शिक्षकों के बीच भेदभाव किया जाता था. अंगरेज अध्यापकों की तुलना में भारतीय अध्यापकों को केवल दो-तिहाई वेतन दिया जाता था. बोस अस्थाई पद पर थे, इसलिए उन्हें केवल आधा वेतन ही मिलता था.
वे इससे बहुत दुखी हुए और उन्होंने घोषणा कर दी कि समान कार्य के लिए वे समान वेतन ही स्वीकार करेंगे, ‘मैं पूरा वेतन ही लूंगा, अन्यथा वेतन नहीं लूंगा.’ तीन साल तक बोस ने वेतन नहीं लिया. वे आर्थिक संकटों में पड़ गये और उन्हें शहर से दूर सस्ता मकान लेना पड़ा. कोलकाता काम पर आने के लिए वे अपनी पत्नी के साथ हुगली नदी में नाव खेते हुए आते थे. उनकी पत्नी नाव लेकर अकेली लौट जाती और शाम को वापस नाव लेकर उन्हें लेने आतीं. लंबे समय तक पति-पत्नी इसी प्रकार अपने आने-जाने का खर्चा बचाते रहे. आखिरकार अंगरेजों को उनके सामने झुकना ही पड़ा. बोस को अंगरेज अध्यापकों के बराबर मिलनेवाला वेतन देना स्वीकार कर लिया गया.
प्रयोग और सफलता
जगदीश चंद्र बोस ने सूक्ष्म तरंगों (माइक्रोवेव) के क्षेत्र में वैज्ञानिक कार्य शुरू किया था. उन्होंने यह भी सिद्ध किया कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है. पौधे भी सजीवों के समान सांस लेते हैं, सोते-जागते हैं और उन पर भी सुख-दुख का असर होता है. उन्होने ऐसा यंत्र बनाया, जिससे पेड़-पौधों की गति अपने आप लिखी जाती थी. इस यंत्र को क्र ेस्कोग्राफ कहा जाता है. लंदन स्थित रॉयल सोसाइटी ने उनके आविष्कार को एक अद्भुत खोज कहा और उन्हे रॉयल सोसाइटी का सदस्य भी मनोनित कर लिया.
बोस विज्ञान मंदिर
बोस ने अपना पूरा शोधकार्य किसी अच्छे और मंहगे उपकरण और प्रयोगशाला से नहीं किया था, इसलिए जगदीश चंद्र बोस एक अच्छी प्रयोगशाला बनाने की सोच रहे थे. कोलकाता स्थित बोस इंस्टीट्यूट (बोस विज्ञान मंदिर) इसी विचार से प्रेरित है, जो विज्ञान में शोध कार्य के लिए राष्ट्र का एक प्रसिद्ध केंद्र है. उन्होंने हमेशा से ही इसका सपना देखा था.
ये हैं कल के वैज्ञानिक
कुछ बच्चों की प्रतिभा ऐसी होती है कि बचपन में ही दिख जाती है. भारत में ऐसे प्रतिभावान बच्चों की कमी नहीं, जिनमें बचपन से ही वैज्ञानिक बनने की ललक है. उन्होंने विश्व स्तर पर ऐसा ही कुछ कमाल कर दिखाया है.
गूगल ने किया सम्मानित
हाल ही में गूगल साइंस फेयर 2014 का आयोजन किया गया जिसमें देश-विदेश के कई बच्चों ने भाग लिया. भारत के भी कुछ बच्चों ने इसमें भाग लिया. पानीपत के एंग्लो वैदिक पब्लिक स्कूल के 12वीं कक्षा के छात्र अर्श दिलबागी और गेरिमल्ला को विश्व मंच पर सम्मानित किया गया. उन्होंने एक ऐसा आविष्कार किया, जिससे जन्मजात बहरे लोग भी सुन सकते हैं. इस डिवाइस को ऑगमेंटिव एंड अल्टरनेटिव कम्यूनिकेशन डिवाइस (एएसी) नाम दिया गया. यह डिवाइस उन बच्चों के लिए है, जिनका मानसिक व शारीरिक विकास ठीक ढंग से नहीं हो पाता है. एशिया क्षेत्र से सिर्फ अर्श को ही चुना गया.
जीता यंग साइंटिस्ट का चैलेंज
साहिल दोशी भारतीय मूल के अमेरिकी छात्र ने 2014 का डिस्कवरी एजुकेशन 3 एम यंग साइंटिस्ट चैलेंज जीता है. उनकी उम्र सिर्फ 14 वर्ष है. उन्होंने एक ऐसे इको-फ्रैंडली बैटरी डिजाइन किया है, जिससे ग्रीन हाउस को हो रहे खतरे से रोका जा सकता है. उन्हें अमेरिका के टॉप यंग साइंटिस्ट में भी चुना गया. इन्होंने बहुत ही कम उम्र में यह करिश्मा किया है. इस बैटरी से आनेवाले कल में लोगों को बहुत मदद मिलेगी. साथ ही वातावरण को कंट्रोल करने में भी मदद मिलेगी.
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