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खोखले नारों से नहीं, अच्छे नेताओं से होगा विकास

राज्य में आज स्थिर सरकार देने की बात चल रही है, लेकिन स्थिरता तो मधु कोड़ा की सरकार में भी दिख रही थी. इसीलिए कोशिश यह होनी चाहिए कि बेहतर लोगों को ऊपर करें और घटिया लोगों को नीचे करें. एक चीज और समझने की है कि झारखंड ‘गंठबंधन की राजनीति’ के लिए सबसे उपयुक्त […]

राज्य में आज स्थिर सरकार देने की बात चल रही है, लेकिन स्थिरता तो मधु कोड़ा की सरकार में भी दिख रही थी. इसीलिए कोशिश यह होनी चाहिए कि बेहतर लोगों को ऊपर करें और घटिया लोगों को नीचे करें. एक चीज और समझने की है कि झारखंड ‘गंठबंधन की राजनीति’ के लिए सबसे उपयुक्त जगह है, लेकिन गंठबंधन के साथ ईमानदारी और खुलापन हो.

झारखंड की बुनियादी दिक्कत यह है कि झारखंडी समाज अबतक बना नहीं है. अभी झारखंडी कहने से यह बोध सिर्फ आदिवासियों तक होता है. जबकि आदिवासियों के अलावा कई अन्य जातियां, जैसे महतो लोग, भी झारखंड में सालों से रह रहे हैं, लेकिन वह भी आदिवासी समाज में पूरी तरह से मिले हुए नहीं हैं. बाद में गये जो लोग हैं, चाहे वह नौकरी करने या फिर व्यवसाय करने गये हों, यह सब भी उस समाज में पूरी तरह से मिल नहीं पाये हैं. ऐसा भी नहीं है कि बिहार का समाज बंटा हुआ नहीं है, या वहां अलग-अलग जातियां नहीं है, वहां भी यह सब है, फिर भी सभी एक-दूसरे को स्वीकार कर साथ-साथ रह रहे हैं. जबकि झारखंड की समस्या या मजबूरी यह है कि यहां पर अंदर और बाहर वाले की बात ज्यादा है. जो भी लोग बाहर से राज्य में गये हैं, वे चाहे सदियों से वहां पर रह रहे हों, लेकिन उनके प्रति वहां के आदिवासी समाज का नजरिया अलग है. ऐसे में बाहर से जाने वाले जहां अपना बर्चस्व स्थापित करने की जुगत में लग जाते हैं, जबकि आदिवासियों को लगता है कि पूरा झारखंड उन्हीं का है और यह लोग जैसे पूरे झारखंड को ही अपने कब्जे में न ले लें. हालांकि इस हालात के लिए वहां के राजनेता जिम्मेवार है.

राजनेताओं की गलत रणनीतियों के कारण ही झारखंड के समाज में इतना बड़ा वैमनस्य आया है. यदि नेता सही भाषा का उपयोग करते, तो शायद झारखंड का समाज एक-दूसरे के कंधे से कंधा मिला कर विकास के पथ पर आगे बढ़ता. विकास की कोई भी पहल तभी सही दिशा में दिखेगी, जब वहां के नेता झूठा रिश्ता बनाना छोड़ देंगे. किसको मूल वासी माना जाये और किसको बाहरी, किस तिथि और सन् से इसका आकलन हो? राज्य में आदिवासी के अलावा कोई और मुख्यमंत्री नहीं बन सकता! गैर आदिवासियों को झारखंड में सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी! आदि जैसे बयान या मानसिकता ही वहां के समाज को बांटते हैं और इसके लिए राजनेता जिम्मेवार हैं, जो अपने वोट बैंक की चाहत में वर्षो से एक साथ रह रहे आदिवासी और गैरआदिवासी समाज को बांटना चाहता है.

विवाद के मसले आदिवासी और गैर आदिवासी समाज को एक साथ बैठकर हल करना चाहिए. और यह तभी संभव है, जब वहां के नेता ऐसा चाहेंगे. इस पर खुली चर्चा हो और उसमें तय हो कि यह मांग मानेंगे और यह मांग नहीं मानेंगे. यानी राज्य में एक ईमानदार चर्चा शुरू होनी चाहिए. यही चर्चा राजनीति में भी होनी चाहिए. तभी समाज में सौहार्द बना रहेगा.

सच्चई यह है कि झामुमो के अंदर भी अबतक मूल वासी के सवाल पर एका नहीं रहा है. महतो लोग, जो वर्षो से वहां रह रहे हैं, को आप बाहरी तो नहीं कह सकते. जो भी लोग झारखंड में रह रहे हैं, उसे निकाला तो नहीं जा सकता है. ऐसा संभव भी नहीं है. इसलिए जो भी करना है उसे ईमानदारी और खुले मन से किया जाये.

राज्य के राजनेताओं के साथ दिक्कत यह हो गयी है कि जिन बुनियादी चीजों से राज्य का विकास होना है और समाज में एकजुटता आनी है, उन चीजों से नेताओं का कंसर्न खत्म हो रहा है. उनका कंर्सन सिर्फ और सिर्फ अपनी और पार्टी की लाभ-हानि से रह गया है. चाहे वह जाति, धर्म, समुदाय, क्षेत्र या आदिवासी-गैरआदिवासियों का ही मामला क्यों न हो.

राज्य में बार-बार दिख रहा है कि एक ही नेता सारी पार्टियों में घूम रहा है. उन नेताओं को सभी पार्टियां स्वीकार भी कर रही हैं और ऐसे नेता चुनाव भी जीत रहे हैं. इससे स्पष्ट होता है कि वहां की जनता भी ऐसी राजनीति के प्रति ज्यादा संवदेनशील नहीं है. यदि कोई नेता कहीं से लूट कर लाये और अपने क्षेत्र में खर्च कर दे या बांट दें, तो वहां की जनता उसे ही वोट देगी. जनता इसकी परवाह तक नहीं कर रही है कि उक्त नेता जो बांट रहा है, वह कहां से ला रहा है और क्यों बांट रहा है. ऐसी पूरी लिस्ट है, जो बेईमानी में सबसे ऊपर है, लेकिन चुनाव में जीत जाते हैं.चाहे वह निर्दलीय लड़े या किसी पार्टी से. एक निर्दलीय विधायक इतने दिनों तक किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री रहता है और सारे दल उसका सपोर्ट करते हैं. इससे साफ जाहिर होता है कि उनका स्वार्थ सत्ता से जुड़े रहने में है. जब स्वार्थ सिद्ध नहीं होता है, तो फिर बात बिगड़ जाती है.

जाहिर है, झारखंड की राजनीति में जब तक ईमानदारी नहीं आयेगी, तब तक वहां विकास की कल्पना कोरी साबित होगी. बिहारी समाज में पिछड़ों, अति पिछड़ों, मुसलमानों और अगड़ों की अलग-अलग जमात है. बंगाल में मुसलमानों का, महाराष्ट्र में मराठियों का, लेकिन झारखंड में उस तरह का कोई मोबलाइजेशन नहीं दिखाई देता है.

राज्य में आज स्थिर सरकार देने की बात चल रही है, लेकिन सच्चई यह है कि स्थिरता तो मधु कोड़ा की सरकार में भी दिख रही थी. सिर्फ स्थिर सरकार से ही विकास नहीं होता है. इसीलिए कोशिश यह की जानी चाहिए कि बेहतर लोगों को ऊपर करें और घटिया लोगों को नीचे करें. एक चीज और समझने की है कि झारखंड ‘गंठबंधन की राजनीति’ के लिए सबसे उपयुक्त जगह है, लेकिन गंठबंधन के साथ ईमानदारी और खुलापन हो. जो भी एजेंडे हो, वे परदे के पीछे से नहीं, सामने डिस्कश हो, उस पर एका बने और तय एजेंडे के तहत प्रोग्राम को लेकर आगे बढ़ें, तभी झारखंड का भला हो सकता है.

हमें बहुमत मिल जायेगा, तो हम राज्य का विकास कर देंगे या आदिवासी को सीएम बना दीजिये या गैर आदिवासी को सीएम बना दीजिये, यह सब नकली नारे और मुद्दे हैं. इससे झारखंड का विकास नहीं हो सकता है. झारखंड के विकास के लिए वहां के समाज को सोचने की जरूरत है कि वह वैसे बेईमान लोगों को चुन कर न भेजें जो सिर्फ अपना हित साधते हैं.

(बातचीत पर आधारित)

अरविंद मोहन

वरिष्ठ पत्रकार

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