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आपदा का खोखला प्रबंधन!

उत्तराखंड में प्रकृति की विनाशलीला शायद कम हो सकती थी, अगर समय रहते इससे निबटने के लिए जरूरी इंतजाम कर लिये गये होते. लेकिन सीएजी की रिपोर्टो और नागरिक समाज द्वारा दी जानेवाली चेतावनियों के बावजूद भी सरकार नहीं चेती. कैसे काम करता है हमारा आपदा प्रबंधन तंत्र, आपदाओं का सफलतापूर्वक सामना करने में क्यों […]

उत्तराखंड में प्रकृति की विनाशलीला शायद कम हो सकती थी, अगर समय रहते इससे निबटने के लिए जरूरी इंतजाम कर लिये गये होते. लेकिन सीएजी की रिपोर्टो और नागरिक समाज द्वारा दी जानेवाली चेतावनियों के बावजूद भी सरकार नहीं चेती. कैसे काम करता है हमारा आपदा प्रबंधन तंत्र, आपदाओं का सफलतापूर्वक सामना करने में क्यों चूक जाते हैं हम, बता रहा है नॉलेज..

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि हमलोग किसी आपदा को समय रहते टालने या उसकी भयावहता का समय रहते आकलन करने में अक्षम रहे हों. आपदा का प्रबंधन करना तो अभी भी हमारे लिए दूर की कौड़ी है. हां, इससे निबटने के लिए फाइलों और कागजी योजनाओं की कमी तो बिलकुल ही नहीं है, भले धरातल पर हम उत्तराखंड में फिसड्डी साबित हो रहे हों.

यदि आपको यकीन नहीं हो रहा तो नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी की वेबसाइट खोलकर देख सकते हैं. इसके नेशनल विजन के तहत इस अथॉरिटी के अध्यक्ष प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की तसवीर के साथ इसमें लिखा है, ‘हम एक सुरक्षित और आपदा का सामना करने में सक्षम भारत का निर्माण करने को प्रतिबद्ध हैं.

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इसके लिए एक समग्र, सक्रिय, विभिन्न आपदाओं को समाहित करनेवाली प्रौद्योगिकी आधारित रणनीति विकसित किया जाना है, जो सरकारी एजेंसियों और गैर-सरकारी संगठनों के सामूहिक प्रयासों के माध्यम से आपदा प्रबंधन की जिम्मेवारी संभालेगी.’ लेकिन उत्तराखंड में मौजूदा आपदा के दौरान यह हकीकत सामने आयी है कि आपदा प्रबंधन वहां स्वयं में एक आपदा साबित हुई है.

कहने को तो हमारे यहां प्रधानमंत्री के नेतृत्व में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण है, लेकिन सीएजी की हालिया रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया गया है कि इसके आरंभ से किसी तरह की कार्ययोजना देखने को नहीं मिली है. सवाल यह नहीं है कि सीएजी की रिपोर्ट क्या कहती है और और कौन इस बोर्ड की नीतियां तय करता है.

सवाल यह है कि क्या इस बोर्ड में ऐसे सदस्यों को शामिल किया गया है, जिन्होंने कभी किसी तरह की आपदा ङोली हो या उन्हें उसका अनुभव हो? सरकार तब जागती है जब कोई आपदा आती है, न तो उससे पहले और न ही फिर उसके बाद.

सरकार के लिए आपदा प्रबंधन प्राथमिकता नहीं है, जबकि पारिस्थितिकी के मामले में संवेदनशील हिमालयी राज्यों में इसे सर्वाधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए. उत्तराखंड में ही हाल के दिनों में तीन बड़ी आपदाओं के बावजूद ठोस कदम उठाने की ओर ध्यान नहीं दिया गया.

नहीं की गयी आपदा से बचाव की तैयारी

दो माह पहले ही सीएजी ने इस ओर अपनी चिंता जताते हुए कहा था कि उत्तराखंड में आपदा से निबटने के लिए किसी तरह के मुकम्मल इंतजाम नहीं किये गये हैं. सीएजी ने तीन वर्ष पहले ही राज्य में जल-विद्युत परियोजनाओं के खिलाफ सरकार को चेताया था, लेकिन सरकार ने उसकी अनदेखी की, जिसका दुष्परिणाम आज देखने का मिल रहा है.

सीएजी की इस वर्ष अप्रैल में जारी रिपोर्ट में कहा गया कि अक्तूबर 2007 में गठित स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी की अब तक एक भी बैठक नहीं हुई. किसी भी कार्यकलाप के लिए कोई नियम, अधिनियम, नीतियां या दिशानिर्देश, कुछ भी नहीं स्पष्ट किये गये हैं. रिपोर्ट में बताया गया था कि उत्तराखंड में अपर्याप्त संचार प्रणाली के चलते ऐसी स्थितियों में समयपूर्व चेतावनी जारी किये जाने की कोई तैयारी नहीं है.

बादल फटने एवं बाढ़ जैसी हालिया घटनाओं से निबटने के लिए प्राधिकरण की ओर से कोई तैयारी नहीं है. रिपोर्ट में जिक्र किया गया था कि अथॉरिटी में कार्यरत कर्मियों की संख्या भी पर्याप्त नहीं है. जिला स्तर पर कार्य करने वाले डिस्ट्रिक्ट इमर्जेसी ऑपरेशंस सेल्स में तकरीबन 44 फीसदी पद रिक्त हैं. जाहिर है, उत्तराखंड आपदा रोकने की कोशिश नहीं कर रहा था, आपदा को बुलावा दे रहा था.

राहत और बचाव कार्य में कोताही

उत्तराखंड में बाढ़ और भूस्खलन की मौजूदा घटना में राहत और बचाव कार्य शुरू करने में काफी देरी की गयी. आधिकारिक सूत्रों के मुताबिक, राज्य सरकार के पास केवल दो हेलिकॉप्टर हैं और बचाव अभियान के लिए तो एक भी समर्पित बटालियन नहीं है. जहां-तहां फंसे लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने में इसलिए दिक्कतें आयीं, क्योंकि राज्य के पहाड़ी जिलों में डॉक्टरों के अनुमोदित पदों के 50 फीसदी से ज्यादा पद रिक्त हैं. राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, पहाड़ी इलाकों में पिछले एक दशक में सरकारी अस्पतालों में केवल 573 डॉक्टरों की नियुक्ति हुई है.

राज्य सरकार ने पहाड़ी इलाकों में डॉक्टरों की नियुक्ति के लिए कुछ खास पैकेज की मांग की थी लेकिन केंद्र ने अभी तक उस पर कोई फैसला नहीं लिया है.

समय रहते क्यों नहीं पहुंची सहायता

मौजूदा घटनाक्रम के दौरान एक सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि तीन वर्ष पूर्व उत्तराखंड की भयावह बाढ़ के बाद वहां मूलभूत ढांचे का विकास किये जाने में कोताही क्यों बरती गयी? आधिकारिक जानकारी के मुताबिक, वर्ष 2010 की बाढ़ में 233 से ज्यादा गांव तबाह हो गये थे और 200 से ज्यादा लोग मारे गये थे.

प्राकृतिक आपदाओं से निबटने के लिए मूलभूत ढांचा तैयार करने हेतु उस समय 21 हजार करोड़ रुपये की सहायता राशि मांगी गयी थी लेकिन केंद्र ने महज पांच सौ करोड़ की वित्तीय सहायता मुहैया करायी थी. यदि उस समय पर्याप्त वित्तीय सहायता जारी की गयी होती और उसके अनुरूप कार्य किया गया होता तो आज जिस तरह की त्रसदी सामने आयी है, उससे निबटने में जरूर कुछ हद तक सफलता हासिल हो सकती थी.

बेहतर तालमेल का अभाव

विगत 16 जून को उत्तराखंड में बादल के फटने और भारी बारिश से पहले मौसम विभाग ने रुद्रप्रयाग इलाके में भारी बारिश की चेतावनी दी थी, इसके बावजूद आपदा प्रबंधन एजेंसियों ने अपनी ओर से कोई तैयारी नहीं की. प्राकृतिक आपदा के पश्चात राज्य में तमाम संबंधित एजेंसियों के बीच तालमेल की कमी स्पष्ट तौर पर दिखी और इससे यह आपदा और विकराल हो गयी.

भारत का सर्वाधिक हाइटेक कम्यूनिकेशन लैब डिफेंस इलेक्ट्रॉनिक्स एप्लीकेशन लेबोरेटरी (डीइएएल) देहरादून में ही है, लेकिन घटना के 6 दिन बीत जाने के बावजूद सुदूर एवं दुर्गम इलाकों में बचाव अभियान के लिए डीइएएल की सहायता हासिल करने में सरकार नाकाम रही. जानकारों का मानना है कि यदि सरकार इस मामले में समय से डीइएएल की सेवा लेती तो जहां-तहां फंसे हुए लोगों को खोजने में आसानी होती.

कहां है आखिर कमी

हमारे देश में आपदा की एक बड़ी वजह यहां की भौगोलिक परिस्थिति है. भुरभुरे पहाड़ों और भूस्खलन की वजह से बचाव अभियान प्रभावित होता है. देश का 60 से 70 फीसदी इलाका ग्रामीण है, जहां तक पहुंचने, मूलभूत ढांचों और पर्याप्त ज्ञान के अभाव में बचाव अभियान का काम मुश्किलों भरा होता है. उत्तराखंड में बचाव अभियान में बिगड़े मौसम और भूस्खलन के बढ़ने से हेलीकॉप्टरों को वहां उतरने में काफी दिक्कत हुई है.

क्या कुछ किया गया अब तक

ओड़िशा में आये सुपर-साइक्लोन और गुजरात के भुज इलाके में हुए भूकंप के बाद से देश में वैज्ञानिक, इंजीनियरिंग, वित्तीय और सामाजिक प्रक्रियाओं को एकीकृत करते हुए इन आपदाओं से निबटने की योजना बनायी गयी थी. भारत सरकार ने इस दिशा में कई कारगर कदम उठाये और नेशनल क्राइसिस मैनेजमेंट कमिटी, क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप, कंट्रोल रूम, कंटिंजेंसी एक्शन प्लान, स्टेट रिलीफ मैनुअल आदि गठित किये गये. लेकिन जैसा कि उत्तराखंड का हादसा बता रहा है, ये महज कार्रवाई कवायद तक सिमटा रहा.

भूकंप

भारत में कुल भौगोलिक क्षेत्र का 59 प्रतिशत से ज्यादा इलाका भूकंप की आशंका वाले जोन में है. पिछले एक दशक के दौरान आये भूकंपों में कुल हताहतों में तकरीबन 75 फीसदी मकानों के गिरने का शिकार हुए. हिमालय पर्वत के एक बड़े इलाके समेत देश की राजधानी दिल्ली, बिहार में दरभंगा के उत्तरी हिस्से भी सर्वाधिक भूकंप की आशंक वाले क्षेत्र में आते हैं. लातूर भूकंप के प्रायद्वीपीय भारत में भी भूकंप की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.

बाढ़

देश के कुछ इलाकों में तकरीबन हर साल बाढ़ आती है. बिहार, पं. बंगाल और असम समेत देश के कई इलाकों में सालान बाढ़ के हालात भयावह तबाही लाते हैं.

चक्रवात

वायुमंडल में कम दबाव का क्षेत्र बनने से कई बार चक्रवात की स्थिति को पैदा होती है. भारत में समुद्री किनारे वाले इलाके इससे सर्वाधिक प्रभावित हैं. देश का समुद्री तट आठ हजार कि.मी. लंबा है. बंगाल की खाड़ी से लेकर अरब सागर तक तकरीबन 76 फीसदी तटीय इलाका इसकी जद में है.

सुनामी

इसकी जद में भी समुद्र तटीय इलाके हैं, जिसका भयानक नजारा तमिलनाडु में दिसंबर, 2004 में प्रकृति ने दिखाया था. उस दौरान भारी संख्या में जन एवं धन की हानि हुई थी. समुद्र में उत्पन्न होनेवाली हलचलों से पैदा होनेवाली इस आपदा से केवल समय रहते इसकी चेतावनी जारी करने से ही इससे बचा जा सकता है.

भूस्खलन

भारत में इस दृष्टिकोण से कई क्षेत्र संवेदनशील हैं, खासकर हिमालय और पूर्वोत्तर पर्वतीय श्रृंखला के अलावा पश्चिमी घाट, पूर्वी घाट, नीलगिरी, पूर्वी घाट और विंध्याचल इलाके में इसकी आशंका सर्वाधिक रहती है. इससे न केवल मकानों को नुकसान होता है बल्कि कई बार सड़क यातायात भी प्रभावित होता है.

आपदा प्रबंधन तंत्र

राष्ट्रीय स्तर : राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन ढांचे में सबसे शीर्ष पर भारत सरकार की प्राकृतिक आपदाओं के प्रबंधन की कैबिनेट समिति, उच्च स्तरीय समिति, सुरक्षा मसले पर कैबिनेट समिति, योजना आयोग, नेशनल क्राइसिस मैनेजमेंट कमिटी, गृह मंत्रलय, भारत सरकार के मंत्रलय और विभाग, सैन्य बल, केंद्रीय अर्धसैनिक बल, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑॅफ डिजास्टर मैनेजमेंट, नेशनल डिजास्टर रिस्पोंस फोर्स, नेशनल डिजास्टर मिटिगेशन रिसोर्स सेंटर्स आदि शामिल है.

राज्य स्तर : राज्य स्तर पर इसमें होम गार्डस, सिविल डिफेंस, राज्य पुलिस, स्टेट डिजास्टर रिस्पोंस फोर्स समेत राज्य सरकार के तमाम मंत्रलय और विभाग.
स्थानीय स्तर : एनसीसी, एनएसएस और एनवाइकेएस, अग्निशमन सेवायें आदि शामिल हैं.

समुदाय स्तर : इसके ढांचे में समुदाय के स्तर पर भी कई संस्थाओं को जोड़ा गया है.

एनडीएमए : योगदान एवं जिम्मेदारियां

एनडीएमए आपदा की स्थिति में समय पर प्रभावी उपाय किये जाने हेतु आपदा प्रबंधन की नीतियां, योजनाएं और दिशानिर्देश तैयार करता है. इस संबंध में केंद्र सरकार की आधिकारिक वेबसाइट पर उपलब्ध सूचनाओं के मुताबिक इसकी जिम्मेदारियां इस प्रकार हैं : आपदा प्रबंधन के लिए नीतियां बनाना, राष्ट्रीय योजना को मंजूरी, मंजूर की गयी योजनाओं को भारत सरकार के मंत्रलयों या विभागों की मदद से तैयार करवाना, राज्य योजना के संदर्भ में राज्य प्राधिकरणों द्वारा अनुपालन हेतु दिशानिर्देश बनाना, आपदा से बचाव के लिए किये जानेवाले उपाय के लिए या विकास की योजनाओं और परियोजनाओं के संभावित दुष्परिणामों के संदर्भ में उससे बचाव के एकीकृत उपाय के लिए भारत सरकार के विभिन्न मंत्रलयों या विभागों के लिए दिशानिर्देश तैयार करना, आपदा प्रबंधन के क्रियान्वयन के लिए नीति और योजना के स्तर पर तालमेल कायम करना, राहत के मकसद से फंड के प्रावधान की सिफारिश करना, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजास्टर मैनेजमेंट के संचालन संबंधी नीतियां एवं दिशानिर्देश तय करना.

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