।। अजय सिंह ।।
(संपादक गवर्नेस नाउ)
* भाजपा आरएसएस के लिए वैसी ही है, जैसे सोनिया के लिए मनमोहन
– अगला चुनाव कांग्रेस और भाजपा के बीच नहीं, बल्कि कांग्रेस और आरएसएस के बीच है. अब आरएसएस हर तरह के हथकंडे अपना रहा है. जिस चतुराई से नरेंद्र मोदी को आगे कर लालकृष्ण आडवाणी को किनारे लगाया, काबिलेगौर है. मोहन भागवत लॉबी बनाने के लिए पूरे देश में यात्रा कर रहे हैं, इससे तो कम से कम ऐसा ही लग रहा है. –
यह केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ही थे, जो गोवा में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक (जिसमें नरेंद्र मोदी को 2014 चुनाव अभियान की कमान सौंपी गयी) के कुछ दिन बाद थोड़ी जल्दबाजी में दिखे. वैसे रमेश को कांग्रेस पार्टी में संगठन और जनता के बीच बेहतर संवाद स्थापित करने के लिए जाना जाता है, पर वह प्राय: अपनी बातों को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करते हैं. हालांकि इस बार उन्होंने ऐसा नहीं किया. इस बार उनके पास ठोस साक्ष्य थे. वह था 11 जून को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह का बयान जिसमें लालकृष्ण आडवाणी के साथ मतभेदों को खत्म करने की बात कही गयी थी. इन सब में कमोबेश आरएसएस की ही भूमिका थी.
यह बयान कई मायनों में अभूतपूर्व था. भाजपा के राजनीतिक मामलों में आरएसएस की पैठ किसी से छिपी नहीं है. लेकिन पहली बार यह एक स्वीकृत तथ्य के रूप में सामने आया है, जो कि देर-सबेर होना ही था. लेकिन दोनों के बीच जो संदेश भेजे गये, वे महत्वपूर्ण थे.
भागवत ने जो भूमिका अदा की, उस लिहाज से उनका इस बयान से जुड़ाव नहीं होना चाहिए था. इसलिए किसी के दबाव पर(संभवत: आडवाणी) उन्हें इसमें शामिल किया गया. अगर ऐसा था तो दो चीजें समझ में आती हैं. पहली कि पार्टी के भीतर उनके कद का कोई दूसरा नेता नहीं है, जो आडवाणी के साथ सुलह कर सके और दूसरा कि आडवाणी यह चाह रहे थे कि आरएसएस प्रमुख सार्वजनिक रूप से यह तय करें कि भाजपा की दिशाहीनता को दूर करने का प्रयास किया जायेगा. परिणामस्वरूप भागवत इस डील के गारंटर बन गये. और तब सबसे बड़ा झटका लगा.
आडवाणी भाजपा मामले में आरएसएस के पैठ के सबसे कटु आलोचक रहे हैं. भागवत का नाम सार्वजनिक रूप से लेने का मतलब साफ था कि वह इस बात पर जोर दे रहे थे कि आरएसएस का हस्तक्षेप है, हालांकि इस मामले में उन्हें ही लाभ मिलने वाला था. (क्या आपने रमेश का यह बयान सुना था, जिसमें उन्होंने कहा था-‘हेंस प्रूव्ड’) यह एक सच्चई है कि गोवा सम्मेलन के बाद संघ परिवार को इस बात के साथ रहना होगा.
परिवार के सामूहिक नेतृत्व का जो सिद्धांत रहा है, वह इस मजबूत विश्वास के साथ खंड-खंड हो चुका है कि भाजपा का भविष्य एक व्यक्ति के हाथों में है, जबकि आरएसएस जिसकी पहचान एक अनुशासित सैद्धांतिक ताकत के रूप में थी, वह एक राजनीतिक पार्टी के रूप में काम कर रहा है. यह खुद को मूंछों पर ताव देने और मुट्ठियां भींचने के रूप में प्रकट कर रहा है, ताकि भाजपा को उसकी औकात बतायी जा सके.
भाजपा पर आरएसएस के प्रभाव को हम सभी जानते हैं. समय की मांग ने फिर से भाजपा नेताओं को मार्गदर्शन और दिशा के लिए आरएसएस की शरण में पहुंचाया है. आरएसएस ने भाजपा के राजनीतिक मामलों से खुलेतौर खुद को हमेशा दूर ही रखा, हालांकि ऐसे भी मामले सामने आये, जिसमें पूर्व प्रमुखों ने पार्टी मामलों में अपनी टांग अड़ायी. लेकिन ऐसे बहुत कम हैं और 2004-05 से पहले तक तो दूर ही रहे हैं. अब आरएसएस ने राजनीतिक मामलों में सीधे हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है.
यह मोहन भागवत के अलावा कौन हो सकता है. चाहे भाजपा अध्यक्ष के पद पर लाइटवेट नितिन गडकरी को बिठाना हो या पिछले साल गुजरात के विवादास्पद नेता संजय जोशी को पार्टी में फिर से शामिल करना. जबकि नागपुर से दोहराये जाने वाले शब्द यही थे कि उसे राजनीति से कुछ भी लेना-देना नहीं है, इसका सारा ध्यान राष्ट्र निर्माण की ओर है.
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने एक पेज का जो बयान पढ़ा था, वह राजनीति में मजबूती से पकड़ बनाये आरएसएस के समक्ष पढ़ा था. आरएसएस प्रमुख को संगठनों के इतिहास के बारे में जानना चाहिए खास कर ग्लासनोस्त और पेरोस्त्रइका के आर्किटेक्ट मिखाइल गोर्बाचोव को. निश्चित रूप से गोर्बाचोव ने यूएसएसआर (सोवियत संघ) के विघटन में भूमिका अदा की थी और ऐसा दिखता है कि भागवत भी संगठन को विघटन के रास्ते पर ले जाने के लिए अडिग हैं.
हालांकि भागवत ने आडवाणी को त्यागपत्र वापस लेने के लिए तैयार कर संकट गहराने से बचा लिया, पर संकट के सारे साधन वैसे ही हैं. आरएसएस के ज्वाइंट जेनरल सेक्रेटरी और प्रवक्ता सुरेश सोनी अपने साथियों के साथ खुलेआम आडवाणी समर्थकों को आंखें दिखा रहे हैं. राजनाथ सिंह और अरुण जेटली ने इसीलिए हाथ मिलाया कि मोदी को पार्टी का सर्वश्रेष्ठ चेहरा बनाया जाये और आडवाणी को किनारे किया जा सके.
सामान्य रूप से यह सब हुआ विचारधारा के नाम पर, खास कर आरएसएस के लिए. उदाहरण के लिए, सोनी ने जब गोवा में राजनाथ को यह निर्देश दिया कि वह मोदी को 2014 चुनावों के लिए पार्टी के कैंपेन कमेटी का प्रमुख घोषित करें, तो वह इसे लेकर बेफिक्र दिख रहे थे.
ऐसा माना जाता है कि सोनी ने भाजपा के शीर्ष नेताओं को यह बताया था (जब वे इस बात पर माथापच्ची कर रहे थे कि आडवाणी द्वारा गोवा का बहिष्कार करने और पार्टी के कामकाज की दिशा का विरोध करने की स्थिति में आरएसएस की क्या मंशा है) कि वह आरएसएस से हैं और जानते हैं कि वे क्या चाहते हैं. मोदी की ताजपोशी के लिए कोरस ऐसा था कि सुषमा स्वराज और एम वेंकैया नायडू के असहमति के स्वर भी दब गये.
क्या सचमुच आरएसएस मोदी को भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में देखना चाहता है, जैसा कि सोनी भी चाहते हैं. इस घोषणा के 48 घंटे के भीतर आरएसएस नेतृत्व ने विवादास्पद सिग्नल भेजना शुरू किया. माना जाता है कि आरएसएस ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से भी संपर्क किया था कि प्रधानमंत्री के नाम की घोषणा करने से पहले उनसे राय-मशविरा किया जायेगा.
यह अलग है कि नीतीश ने इसे मानने से इनकार कर दिया और अब एनडीए से बाहर जा रहे हैं. (यह रिपोर्ट गंठबंधन की समीक्षा के लिए होने वाली बैठक 16 जून से पहले तैयार की गयी है). लेकिन इसमें कोई शंका नहीं है कि लोक सभा चुनावों के लिए भाजपा द्वारा पीएम पद के लिए उम्मीदवार चुने जाने के महत्वपूर्ण निर्णय पर आरएसएस के भीतर ही दो फाड़ है. यह साफ है कि भागवत का आरएसएस और सोनी का आरएसएस एक-दूसरे के खिलाफ काम कर रहा है, यह स्थिति तब तक रहेगी जब तक प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया संगठन में सुप्रीम बने रहेंगे.
संघ परिवार की भाजपा के मामले में भूमिका बढ़ने की बात तब सामने आयी, जब आरएसएस प्रमुख केएस सुदर्शन ने पुराने सिपाही अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी को 2004 चुनावों में हार के तुरंत बाद सलाह दिया था कि वे युवा पीढ़ी के लिए रास्ता तैयार करें. आडवाणी ने अपना त्यागपत्र आरएसएस प्रमुख को भेज दिया (उनका पहला त्यागपत्र), जबकि राजनीति में सक्रिय वाजपेयी ने कहा कि ‘मैं किस पद से इस्तीफा दूं’. आडवाणी के कद को देखते हुए सुदर्शन ने अपनी सलाह वापस ले ली थी. विडंबना यह है कि आडवाणी का जो पक्ष ले रहे थे, वह दूसरे कोई नहीं, बल्कि मोहन भागवत थे, जो तब आरएसएस के जेनरल सेक्रेटरी थे.
हालांकि आडवाणी ने आरएसएस पर दबाव डाला कि वह शीघ्र निर्णय ले, पर परिवार में संघर्ष खत्म नहीं हो सका. और यह तब सतह पर आ गया, जब 2005 में आडवाणी ने पाकिस्तान की यात्रा की और जिन्ना के प्रति अपने उद्गार व्यक्त किये. एक निश्चित प्रयास किया गया कि पुराने नेतृत्व से अथॉरिटी ले ली जाये और इसे उन लोगों को दी जाये, जो आरएसएस मठाधीशों के प्रति नतमस्तक हों. इस काम के लिए राजनाथ को सबसे उपयुक्त पाया गया और भाजपा प्रमुख के रूप में उनके तीन वर्ष के कार्यकाल को निर्धारित करने में आरएसएस की भूमिका रही.
भाजपा के पूर्व विचारक केएन गोविंदाचार्य कहते हैं यह दौर आरएसएस के घोषित राष्ट्र निर्माण या समाज निर्माण की नीति से बिल्कुल अलग था. वह कहते हैं कि इस तरह की स्थिति तब से बन रही है, जब पार्टी सत्ता में थी और उसने ऑस्ट्रिच जैसी भूमिका अपनायी और आने वाले तूफान को नजरअंदाज किया. अपने मेंटर और आरएसएस के सम्मानित नेता यशवंतराव केलकर का हवाला देते हुए वह कहते हैं कि अब तक संघ परिवार अपनी सभी इकाइयों के बीच आपसी सहयोग की भावना नहीं उभार सका है. वह कहते हैं इसलिए संगठन हिंदुत्व की ओर मुड़ता है, वाजपेयी से लेकर प्रवीण तोगड़िया तक.
गोविंदाचार्य यह भी बताते हैं कि गोवा कार्यकारिणी जिस तरह काम कर रही थी, उससे पता चल रहा था कि इस पर आरएसएस में विचारों की कमी का असर है. वह कहते हैं इसमें कोई शंका नहीं है कि मोदी दूसरे कैडरों के मुकाबले लोकप्रियता में बहुत आगे हैं और अभी उनका स्थान यूनिक है.
हालांकि वह अपनी चिंता जताते हुए कहते हैं कि इससे कैडरों का भटकाव होगा, जिससे मोदी को उभारने में और मदद मिलेगी. वह कहते हैं कि इस बार कॉरपोरेट फंड से पैसा अधिक मिलने के कारण अब तक के चुनावों में यह सबसे महंगा होगा. हालांकि उन्होंने यह भी संभावना जतायी कि इस प्रवृत्ति के विकसित होने से उम्मीदवारों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा बढ़ेगी और राजनीतिक कैडरों को किनारे किया जायेगा.
ऐसी चिंता व्यक्त करने वालों में गोविंदाचार्य अकेले नहीं हैं. मोदी को चुने जाने के केवल दो दिनों के बाद ही गुजरात से संकटमोचन मैनेजरों की टीम ने लोकसभा चुनावों की तैयारियों का जायजा लेने के लिए लखनऊ और जयपुर में खूंटा गाड़ा. ये टीमें राज्य पार्टी इकाइयों की संरचना से बाहर जाकर काम कर रही हैं, जिससे स्थानीय पार्टी कार्यकर्ताओं और स्वयंसेवकों को पीड़ा पहुंचनी लाजिमी है.
यह कहना अत्यंत सरल होगा कि आरएसएस नेतृत्व इन बातों से अनजान है. गुजरात के उदाहरण से भागवत वाकिफ हैं, जहां पिछले दशक में आरएसएस को नजरअंदाज किया गया, इसलिए भागवत राष्ट्रीय विषय पर अपनी भूमिका को लेकर आश्वस्त होना चाहते हैं. भागवत के साथ मुश्किल यह है कि वह अपनी जमीन खिसकने से बचाने के लिए कुछ भी नहीं कर सकते, ऐसी स्थिति में जब भारतीय राजनीति के पूरे चेहरे को बदलने का खतरा मंडरा रहा हो. चूंकि मोदी की पहचान विकास के साथ कट्टर हिंदुत्व की रही है, इसलिए आरएसएस उनके रास्ते में रोड़ा नहीं बनना चाहता.
इस समय, यह नेतृत्व, खास कर भागवत मोदी के कुलाचें भरते राजनीतिक लक्ष्यों पर नियंत्रण पाने में कठिनाई अनुभव कर रहे हैं. जिस तरह से भागवत ने पार्टी के भीतर राजनीतिक ताकतों को किनारे लगाया और गडकरी जैसे पुतले को आसीन किया, उससे उनकी राजनीतिक सत्ता के प्रति प्रेम का पता चलता है. हालांकि भागवत के विचारों ने भाजपा के भीतर एक नयी संस्कृति विकसित की है, जहां आरएसएस के प्रचारक बड़ी संख्या में देखे जा सकते हैं. अधिकांश राज्यों में पार्टी नेतृत्व (गुजरात को छोड़ कर) इन स्वयंसेवकों से पीड़ित हैं. केवल तीन महीने पहले आरएसएस-वीएचपी कार्यकर्ताओं के एक समूह ने मध्यप्रदेश के उज्जैन में भाजपा कार्यालय में तोड़-फोड़ की . उन्हें लगा कि स्थानीय भाजपा विधायक उन्हें नजरअंदाज कर रहे हैं.
हालांकि यह कहा जाता है कि आरएसएस कैडरों के अनुशासनहीन होने के पीछे आरएसएस के फैलते दायरे और उससे जुड़ी दूसरी बातें हैं, पर वास्तव में यह पूरी तरह से भिन्न है. हाल में आरएसएस ने अपनी सुबह की शाखाओं में कम से कम नये कैडरों की भरती करते हुए पुरानी ताकत दिखाने की कोशिश की है. इसी तरह इसके अनुषंगी संगठनों के विकास में भी बाधाएं पहुंचायी जा रही हैं.
आरएसएस के ही भीतर के एक कार्यकर्ता कहते हैं कि परिवार में राजनीतिक माफिया की संस्कृति विकसित हो रही है, जिसका मूल उद्देश्य किसी भी साधन से भाजपा के भीतर शक्ति के सभी स्रोतों पर अपना नियंत्रण स्थापित करना है. पर्यवेक्षकों की मानें, तो भागवत की कार्यशैली ने इस संस्कृति को और पोषित किया है, बजाय इसे दबाने की.
भाजपा ने हमेशा आरएसएस से शक्ति ली है. लेकिन सर संघचालक भाजपा के रोज-रोज के मामलों में दखल देते रहे हैं. भाजपा आरएसएस के लिए वैसी ही है, जैसे मनमोहन सिंह सोनिया गांधी के लिए. यानी चुनावी वर्ष में कोई खास विकल्प नहीं.