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इक्कीसवीं सदी में आयुर्वेद का भविष्य

विभिन्न रोगों के इलाज की आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति भारत में प्राचीन काल में ही प्रचलित रही है. औषधीय गुणों से युक्त पौधों की पर्याप्त उपलब्धता के कारण भारत में आयुर्वेदिक दवाओं के कारोबार की व्यापक संभावनाएं मौजूद हैं. आयुर्वेद के जनक भगवान धन्वंतरि की पूजा के मौके पर देश और दुनिया में आयुर्वेदिक चिकित्सा की […]

विभिन्न रोगों के इलाज की आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति भारत में प्राचीन काल में ही प्रचलित रही है. औषधीय गुणों से युक्त पौधों की पर्याप्त उपलब्धता के कारण भारत में आयुर्वेदिक दवाओं के कारोबार की व्यापक संभावनाएं मौजूद हैं. आयुर्वेद के जनक भगवान धन्वंतरि की पूजा के मौके पर देश और दुनिया में आयुर्वेदिक चिकित्सा की मौजूदा स्थिति और बाजार के साथ-साथ भविष्य की चुनौतियों पर नजर डाल रहा है नॉलेज..
नयी दिल्ली : महज कुछ दशक पूर्व तक ग्रामीण इलाकों में बारिश का मौसम शुरू होने से पहले आषाढ़ महीने में एक खास दिन जंगल से ‘सर्गज’ नामक एक खास जड़ी-बूटी को बांह पर बांधने की परंपरा रही है.
माना जाता है कि इस खास जड़ी-बूटी के प्रभाव से बारिश के मौसम में विषैले जीव-जंतु इंसान के शरीर से दूर रहा करते थे. इसके अलावा भी अनेक जड़ी-बूटियों से ग्रामीण इलाकों में तमाम रोगों के इलाज का चलन आज भी है. गांव-देहात की एक बड़ी आबादी इस आयुर्वेदिक इलाज पद्धति पर आश्रित है.
आज भले ही हम आधुनिक चिकित्सा शैली के सहारे किसी सामान्य बीमारी से तुरंत राहत पा लेते हैं, लेकिन इसके साइड इफेक्ट्स को देखते हुए दुनियाभर में वैकल्पिक चिकित्सा को लोग जोर-शोर से अपना रहे हैं. भारत में वैकल्पिक चिकित्सा के रूप में आयुर्वेद सबसे प्रभावी पद्धति मानी जाती है. प्राचीन संस्कृति आधारित चिकित्सा की पारंपरिक प्रणालियां सदियों से स्वास्थ्य रक्षा में सहायक साबित हुई हैं. 21वीं सदी में भी पारंपरिक इलाज के तौर पर पहचान बनाने में कामयाब रहे आयुर्वेद ने काफी विश्वसनीयता हासिल की है. आयुर्वेद में ऐसी अनेक औषधीयों का जिक्र किया गया है, जिसमें पौधों से हासिल विभिन्न पदार्थो से कई बीमारियों का इलाज मुमकिन है.
अंतरराष्ट्रीय विश्वसनीयता
वर्ष 1999 में जापान की टोयोमा मेडिकल एंड फार्मास्यूटिकल यूनिवर्सिटी में पारंपरिक औषधीयों पर अंतरराष्ट्रीय परिचर्चा का आयोजन किया गया था. एनर्जी प्लांटेशन डिमॉन्सट्रेशन प्रोजेक्ट एंड बायोटेक्नोलॉजी सेंटर, राजस्थान यूनिवर्सिटी, जयपुर के अश्विनी कुमार के शोधपत्र- ‘आयुर्वेदिक मेडिसिन्स : सम पोटेंशियल प्लांट्स फॉर मेडिसिन फ्रॉम इंडिया’- के मुताबिक, इस परिचर्चा में पारंपरिक औषधीयों में व्यापक रोगनिदान क्षमता पायी गयी. विश्व स्वास्थ्य संगठन के तत्कालीन निदेशक ने लाइफ स्टाइल में बदलाव से होनेवाली बीमारियों से निपटने में इन औषधीयों को सक्षम बताया था.
प्राकृतिक औषधीयां इंसान के शरीर को भीतर से मजबूत बनाती हैं. इस प्रणाली की उपलब्धियों को रेखांकित करते हुए टोयोमा में इंटरनेशनल हेल्थ सेंटर की स्थापना की गयी. इस हॉस्पिटल में बड़ी तादाद में आयुर्वेदिक दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है. शोधपत्र के मुताबिक, भारत, मिस्र और सूडान में करीब 79 फीसदी ग्रामीण आबादी पारंपरिक औषधीयों का इस्तेमाल करती है. अनेक विकासशील देशों में भी कमोबेश यही स्थिति है.
भारत और चीन में कॉलरा और मलेरिया से ग्रस्त मरीजों में से करीब 60 फीसदी आयुर्वेदिक विधि से रोगनिदान का तरीका अपनाते हैं. सिंगापुर और ऑस्ट्रेलिया में तकरीबन 60 फीसदी लोग पारंपरिक औषधीयों का इस्तेमाल करते हैं. इन देशों में 17,000 के करीब रजिस्टर्ड हर्बल उत्पाद हैं.
प्राकृतिक संसाधन
मानव सभ्यता के विकास के दौरान पायी गयी पौधों की ढाई लाख प्रजातियों में से केवल दस हजार पौधों का ही औषधीय गुण जाना गया और इस मकसद से उन्हें इस्तेमाल में लाया गया. बंजर भूमि में ऐसे बहुत से पौधे पाये जाते हैं, जिनसे बड़ी मात्र में हाइड्रोकार्बन पैदा होता है. इस शोधपत्र में बताया गया है कि औषधीय गुणों से भरपूर इन पौधों से पेट्रोलियम ईंधन बनाये जाने के साथ ही एचआइवी जैसी भयावह बीमारी की दवा भी बनायी जा सकती है. इन गुणों से युक्त कुछ निर्धारित पौधों की बड़ी पैमाने पर खेती की जा सकती है और इन्हें ज्यादा से ज्यादा उपयोगी बनाने के लिए कृषि की बेहतर तकनीक विकसित की जा सकती है.
आयुर्वेदिक चिकित्सा : वर्तमान और भविष्य
प्रकृति ने इंसान को बहुत सी अद्भुत चीजें प्रदान की हैं. यह हम पर निर्भर है कि हम उसमें से कितना ग्रहण कर पाते हैं. डिपार्टमेंट ऑफ फार्माकोलॉजी एंड टोक्सिकोलॉजी, कॉलेज ऑफ वेटरेनरी एंड एनिमल साइंस, पंतनगर के शीतल वर्मा और एस पी सिंह ने ‘करेंट एंड फ्यूचर स्टेटस ऑफ हर्बल मेडिसिन’ शीर्षक शोध रिपोर्ट में बताया है कि पश्चिमी देशों में लोग कृत्रिम दवाओं की क्षमता एवं उसके साइड इफेक्ट से भली-भांति परिचित हैं. इसलिए इन देशों में प्रकृति और प्राकृतिक दवाओं की ओर लोगों का रुझान बढ़ रहा है.
मानव इतिहास के शुरुआती दौर से ही जड़ी-बूटियों (हर्बल्स) के माध्यम से कई संक्रामक रोगों का इलाज किया जाता रहा है. एस्टेरेसिया, एपोकिनोसिया, सोलेनेसिया, पीपरेसिया और सेपोटेसिया समेत अनेक औषधीय पौधे हैं, जिन्हें बहुत से वैज्ञानिक शोधों के माध्यम से बीमारियों में इलाज में सक्षम बताया गया है और इनके महत्व को रेखांकित किया गया है. नयी दवाओं के विकास में औषधीय पौधों की अहम भूमिका देखी गयी है. पौधों से बायोएक्टिव तत्वों (गुणकारी चीजों) को निकालने के लिए सक्रिय यौगिक (एक्टिव कंपाउंड) को मानक विधियों के तहत प्रयोग में लाना चाहिए और बायोएक्टिव तत्वों का संपूर्ण अध्ययन होना चाहिए.
भारत में तकरीबन 70 फीसदी आधुनिक दवाएं प्राकृतिक उत्पादों से बनायी जाती है. पारंपरिक दवाएं और विदेशी बाजारों की मांग के अनुरूप दवाएं बनाने में भी औषधीय पौधे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. हालांकि, इसके उभरते हुए वैश्विक कारोबार में भारत का हिस्सा बहुत कम (महज 1.6 फीसदी) है. वैश्विक बाजार की प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए औषधीय पौधों में मौजूद क्षमताओं का इस्तेमाल करना होगा और इसकी वैज्ञानिक पद्धति को वैधता प्रदान करनी होगी.
विकासशील देशों में स्थिति
विकासशील देशों में करीब 80 फीसदी आबादी प्राथमिक स्वास्थ्य उपचार के तौर पर पौधों, पशुओं और खनिजों से जुड़े प्राकृतिक उत्पादों का इस्तेमाल करती है. चिकित्सा की देशी विधियों में करीब 800 और प्राचीन साहित्य में करीब 500 औषधीय पौधों का जिक्र किया गया है. वर्तमान समय में एलोपेथिक मेडिसिन में मौजूद साइड इफेक्ट यानी उसके अन्य दुष्प्रभावों और विषाक्तता (टॉक्सिसिटी) के कारण हर्बल मेडिसिन दिन-ब-दिन लोकप्रिय होता जा रहा है. इसी वजह से दुनियाभर में हर्बल दवा निर्माताओं की संख्या भी बढ़ रही है.
ग्लोबल मार्केट
पूरी दुनिया में हर्बल दवाओं का कारोबार करीब 62 बिलियन डॉलर है. इसमें भारत का योगदान महज एक बिलियन डॉलर है. ‘स्लाइडशेयर डॉट नेट’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, हर्बल मार्केट में सबसे बड़ा योगदान (करीब 45 फीसदी) यूरोपियन यूनियन का है. उत्तरी अमेरिका का इसमें 11 फीसदी, जापान का 16 फीसदी और आसियान देशों का योगदान 19 फीसदी है.
‘एकेडमिक जर्नल ऑफ प्लांट साइंसेज’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, हर्बल मेडिसिन की बिक्री में दुनियाभर में सालाना औसतन 6.4 फीसदी की दर से बढ़ोतरी हो रही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी हर्बल मेडिसिन के बढ़ते दायरे को रेखांकित किया है. हालांकि, अमेरिका से निर्यात किये जानेवाले हर्बल उत्पादों को मेडिसिन की श्रेणी में नहीं रखा जाता, बल्कि इसे ‘फूड सप्लीमेंट एंड हर्बल प्रोडक्ट’ की श्रेणी में रखा जाता है. वैश्विक हर्बल उत्पादों का सबसे बड़ा बाजार यूरोप है. जर्मनी, फ्रांस, इटली और नीदरलैंड जैसे देशों में भारत से बड़ी तादाद में इन उत्पादों का निर्यात किया जाता है.
भारत के लिए वैश्विक अवसर
भारत दुनिया में औषधीय जड़ी-बूटियों का सबसे बड़ा उत्पादक देश है और शायद इसीलिए इसे ‘बोटेनिकल गार्डेन ऑफ द वर्ल्ड’ यानी ‘विश्व का वनस्पति उद्यान’ कहा जाता है. भारत में आयुर्वेद का भविष्य इसलिए भी उज्ज्वल माना जा रहा है, क्योंकि औषधीय गुणों से भरपूर करीब 25 हजार पौधों में से महज 10 फीसदी को ही औषधीय कार्यो के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है.
भारत में पारंपरिक औषधीय पौधों की भरमार है. विकसित देशों में यदि हम अपनी आयुर्वेदिक दवाओं को पहुंचाना चाहते हैं, तो हमें पारंपरिक तरीकों मान्य तरीकों से दस्तावेजीकृत करना होगा. साथ ही औषधीय पौधों को रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल से मुक्त रखना होगा और दवाओं के निर्माण में भारी तत्वों का इस्तेमाल नहीं करना होगा. सुरक्षा और स्थायित्व समेत उसके रासायनिक गुणों की व्याख्या को मानकीकृत करते हुए हम पूरी दुनिया में आयुर्वेद को स्थापित करने में सक्षम हो सकते हैं.
औषधीय पौधों के गुणों को संहिताबद्ध (कोडिफाइड) करने की भारतीय प्रणाली में तकरीबन 1,800 प्रजातियों को दस्तावेजीकृत (डॉक्यूमेंटेड) किया गया है. दुनियाभर में औषधीय पौधों के गुणों को संहिताबद्ध (कोडिफाइड) करने की भारतीय प्रणाली को समझा जा रहा है और अनेक देशों में इसे वैधता हासिल हो रही है. ऐसे में वैश्विक बाजार में भारतीय हर्बल मेडिसिन की हिस्सेदारी बढ़ सकती है. विशेषज्ञों का मानना है कि भारत के लिए इस क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं. जरूरत है योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ने की.
भगवान धन्वंतरि
दीपावली से दो दिन पहले, कार्तिक मास की कृष्ण त्रयोदशी यानी आज के दिन धनतेरस पर्व मनाया जाता है. मौजूदा समय में धनतेरस के दिन खासकर बर्तन की खरीदारी चलन है. इस दिन घर के दरवाजे पर एक दीपक जला कर रखा जाता है. यह त्योहार दीपावली आने की पूर्व सूचना देता है. धनतेरस के दिन मृत्यु के देवता यमराज और आयुर्वेद के जन्मदाता भगवान धन्वंतरि की पूजा की जाती है. भारतीय संस्कृति में स्वास्थ्य का स्थान धन से ऊपर माना जाता रहा है. यह कहावत प्रचलित है- पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में माया.
धार्मिक ग्रंथों में वर्णन है कि समुद्र मंथन के दौरान कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन ही भगवान धन्वंतरि अपने हाथों में अमृत कलश लेकर प्रकट हुए. मान्यता है कि भगवान धन्वंतरि विष्णु के अंशावतार हैं. संसार में चिकित्सा विज्ञान के विस्तार और प्रसार के लिए ही भगवान विष्णु ने धन्वंतरि का अवतार लिया था. पौराणिक आख्यानों में धन्वंतरी त्रयोदशी के विषय में विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है, जिनमें समुद्र-मंथन की कथा बहुत प्रसिद्ध रही, क्योंकि मंथन के समय भगवान धन्वंतरि समुद्र से एक हाथ में अमृत कलश और दूसरे हाथ में आयुर्वेदशास्त्र लेकर प्रकट हुए थे.
इसीलिए धन्वंतरि को आरोग्य का देवता और आयुर्वेद का जनक माना जाता है. साथ ही, धन्वंतरि को वैद्य और चिकित्सा का देवता माना जाता है.
हिंदू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, धन्वंतरि का पृथ्वी लोक में अवतरण समुद्र मंथन के समय हुआ था. शरद पूर्णिमा के दिन चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरी, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या के दिन देवी लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था. इसीलिए दीपावली के दो दिन पूर्व भगवान धन्वंतरि का जन्म दिवस धनतेरस के रूप में मनाया जाता है. इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था. इन्हें भगवान विष्णु का रूप कहते हैं.
इनकी चार भुजाएं हैं. ऊपर की दोनों भुजाओं में धन्वंतरि शंख और चक्र धारण किये हुए हैं, जबकि दो अन्य भुजाओं में से एक में औषधि तथा दूसरे में अमृत कलश लिये हुए हैं. इनकी प्रिय धातु पीतल मानी जाती है. इसीलिए धनतेरस के दिन पीतल आदि के बरतन खरीदने की परंपरा भी है.
माना जाता है कि भगवान धन्वंतरि ने ही अमृतमय औषधियों की खोज की थी. कहा जाता है कि इनके वंश में दिवोदास हुए, जिन्होंने ‘शल्य चिकित्सा’ का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया. इसके प्रधानाचार्य सुश्रुत बनाये गये थे. सुश्रुत दिवोदास के ही शिष्य और ¬षि विश्वामित्र के पुत्र थे. उन्होंने ही सुश्रुत संहिता लिखी थी. सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) थे. कहा जाता है कि भगवान शंकर ने जब विषपान किया था, तब धन्वंतरि ने ही उन्हें अमृत प्रदान किया और इस प्रकार काशी कालजयी नगरी बन गयी.
सटीक मानक निर्धारित करने की जरूरत
सभी हर्बल फॉमरूलेशन को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के दिशानिर्देशों के मुताबिक मानकीकृत करने की जरूरत है. डब्ल्यूएचओ के दिशानिर्देशों का मकसद गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए मूलभूत प्रक्रिया की व्याख्या करते हुए उसे ज्यादा से ज्यादा सुरक्षा बनाना और डुप्लीकेसी से बचाना है. भारत में 16 एग्रो-क्लाइमेटिक जोन, 10 वेजिटेटिव जोन, 15 बायोटिक जोन, 426 बायोमास समेत 15,000 से ज्यादा पौधों की प्रजातियां हैं, जिनमें 7,000 आयुर्वेदिक पौधों की प्रजातियां शामिल हैं.
दुनिया के 12 मेगा बायोडायवर्स देशों में भारत की गिनती होती है. हर्बल बाजार से जुड़े विेषकों का अनुमान है कि 2050 तक इसका वैश्विक कारोबार पांच खरब डॉलर तक पहुंच सकता है. विशेषज्ञों के मुताबिक, इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के बाद हर्बल टेक्नोलॉजी से भारत सबसे ज्यादा आय अजिर्त करने में कामयाब हो पायेगा.
भारत आयुर्वेदिक उत्पादों की न केवल घरेलू जरूरतों को पूरा करने में, बल्कि इसके व्यापक तादाद में निर्यात में भी सक्षम है. हालांकि, अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण से आयुर्वेदिक औषधियों के वैश्विक सप्लायर के तौर पर खुद को स्थापित करने की राह में अभी भी कुछ रोड़े हैं, जिन्हें दूर करने के लिए इन बातों पर ध्यान देना होगा-
– भारतीय औषध प्रणाली के तहत सभी औषधीय पौधों की समुचित बोटेनिकल पहचान कायम करनी होगी. हर्बल सामग्री के निर्माण के समय उसमें मिलायी गयी चीजों के बोटेनिकल नाम के साथ सामान्य/ प्रचलित नामों को भी शामिल करना चाहिए.
– औषधीय पौधों की प्रोसेसिंग वैज्ञानिक, आर्थिक और सुरक्षित तरीके से की जानी चाहिए, ठीक उसी तरह जिस प्रकार आधुनिक पद्धति आधारित दवाओं के निर्माण के लिए किया जाता है.
– जहां तक संभव हो अकार्बनिक तत्वों, रासायनिक गुणों का विवरण देना चाहिए.
– उत्पादों की क्षमता और सुरक्षा का निर्धारण करने के लिए फार्माकोलॉजिकल और क्लीनिकल अध्ययन किया जाना चाहिए.
– समानता या एकरूपता कायम रखने के लिए मानकीकरण होना चाहिए. औषधीय पौधों का इस्तेमाल बढ़ाने और दवाओं के निर्माण के लिए गुणवत्ता नियंत्रण और मानकीकृत पैरामीटर्स को लागू किया जाना चाहिए.
त्न इस संबंध में किये जाने वाले शोधकार्यो का दस्तावेजीकरण होना चाहिए.

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