।। कुमार प्रशांत ।।
(वरिष्ठ पत्रकार )
यह कहना कठिन है कि सीमा पर भारत-पाकिस्तान के बीच पिछले दिनों जैसी गोली-बारी हुई है, उससे ज्यादा शोर हुआ कि महाराष्ट्र में हुई नरेंद्र मोदी की कोई दो दर्जन चुनावी रैलियों से ज्यादा शोर हुआ? जो साफ दिख रहा है, वह यह है कि आज महाराष्ट्र की राजनीति भारतीय जनता पार्टी के शोर-शराबे में डूब गयी है; और भाजपा का सच यह है कि वहां एक ही आवाज, एक ही मुहावरे और एक ही रणनीति का बोलबाला है. एक ही कोण का यह त्रिकोण महाराष्ट्र की राजनीति को सिर के बल खड़ा कर रहा है.
चुनावी हवा देखते-देखते कैसे गर्म और फिर बहुत गर्म होती जाती है, यह देखना हो तो महाराष्ट्र की राजनीति को देखिए! वर्षों से इस राजनीति का चेहरा स्थिर रहा है; इतना कि कइयों को शक हो रहा था कि इसमें जान भी है या नहीं? आज वे सारे लोग हलकान हुए जा रहे हैं कि इसमें इतनी जान किधर से आ गयी?
देखें तो पिछले दो दशकों से महाराष्ट्र की राजनीति के दो ही चेहरे रहे हैं- एक चेहरा शरद पवार का है- स्वार्थी और नाक से आगे न देखनेवाली क्षेत्रीय राजनीति का चेहरा! दूसरा चेहरा शिवसेना के संस्थापक व सुप्रीमो बाल ठाकरे का है, जो शरद पवार की राजनीति के सारे गुणों के साथ-साथ, क्षेत्रीयता और सांप्रदायिकता की चादर भी ओढ़ कर चलते थे. कभी पलड़ा इधर, तो कभी उधर झुकता रहा, लेकिन तराजू की डंडी हमेशा इन दोनों के हाथों में ही रही. यह भी हुआ कि दोनों एक-दूसरे का इस्तेमाल करने खुले में या पोशीदा साथ भी आये; और खुले में या पोशीदा चाकूबाजी भी करते रहे. ऐसा नहीं है कि महाराष्ट्र में कांग्रेस और भाजपा की कोई राजनीतिक औकात नहीं रही है. लेकिन, संभावना भरी इन दोनों पार्टियों की त्रासदी यह रही है कि इनके पास महाराष्ट्र में कभी, कोई कद्दावर नेता नहीं रहा.
कांग्रेस की देखें तो वसंत दादा पाटील उसके आखिरी कद्दावर नेता थे. उनके समय से ही कांग्रेस का क्षरण शुरू हुआ. शरद पवार महाराष्ट्र की और देश की राजनीति में कोई कद हासिल कर पाये, तो सिर्फ इस बिना पर कि यह आदमी वसंत दादा पाटील को टांग मार सका! भाजपा के सबसे कद्दावर नेता का नाम था प्रमोद महाजन- एक ऐसा सर्वप्रिय व्यक्ति, जो बना ही था सत्ता की राजनीति की बंदरबांट करने के लिए!
बाल ठाकरे को नाथने का करिश्मा प्रमोद महाजन ने ही किया था और इस नफासत से किया था कि शिवसेना में कोई चूं भी नहीं कर सका था. लेकिन सितारे हैं, सितारों का क्या! कब चमके, कब गर्दिश में गये, कौन आंके! भारत को चमकीला बनाने के भ्रम में, भाजपा ऐसी डूबी कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार भी ले डूबी! यह सारा आलम प्रमोद महाजन ने रचा था. इसका ठीकरा भी उनके ही सिर फूटा. और अभागा काल देखिए कि भाई ही काल बन कर आया और कई गोलियां उनके सीने में उतार गया. प्रमोद महाजन को लगी एक-एक गोली महाराष्ट्र की भाजपा को लगी. प्रमोद महाजन तो गये, भाजपा को घायल छोड़ गये! घायल पार्टी को शरण मिली शिवसेना प्रमुख के चरणों में! तब से भाजपा शिवसेना की बी टीम बन कर काम करती आ रही है.
शरद पवार महाराष्ट्र में कांग्रेस के आधार-स्तंभ रहे, लेकिन जल्दी ही उनकी नजरें दिल्ली पर टिक गयीं, क्योंकि महाराष्ट्र उनकी महत्वाकांक्षा के कद से छोटा पड़ने लगा. सीताराम केसरी के हाथों से छीन कर कांग्रेस सोनिया गांधी के हाथों में न दी गयी होती, तो दिल्ली भी और कांग्रेस भी शरद पवार की हो सकती थी. ऐसा नहीं हुआ. नेहरू-परिवार की कम-उम्र सोनिया का कांग्रेस अध्यक्ष बनना, शरद पवार की हसरतों का दरवाजा बंद होने सरीखा था. वे समझ गये कि अब नहीं, तो कभी नहीं! परदे के पीछे से, दूसरों के समर्थन के कई संकेत पाकर वे सोनिया के विदेशी मूल का सवाल लेकर कांग्रेस से अलग हो गये.
पवार की पार्टी एनसीपी की यही जन्मगाथा है. न कोई विचार, न कोई उद्देश्य, न कोई कार्यक्रम और न कोई सपना- केवल निजी महत्वाकांक्षा! इसलिए जो स्वाभाविक था, वही हुआ. परदे के पीछे के संकेत परदे समेत लुप्त हो गये, देश में कहीं कोई जड़ जमी नहीं, महाराष्ट्र में शक्कर कोऑपरेटिवों की मदद से और पश्चिम महाराष्ट्र के बड़े भूपतियों के प्रतिनिधि बन कर शरद पवार ने अपनी हैसियत बचायी, लेकिन अपना राजनीतिक वजन गंवाया. फिर वे नाम बदल कर कांग्रेसी बन गये.
यह नया समीकरण कांग्रेस को भी रास आया. उसने शरद पवार और उनके दो-चार लोगों को दिल्ली में पाल-पोस कर रखा, ताकि महाराष्ट्र में वे अपनी धमा-चौकड़ी कम करें. लेकिन, जल्दी ही यह हुआ कि महाराष्ट्र में कांग्रेस का नेतृत्व पवार की कांग्रेस को बैसाखी की तरह इस्तेमाल करने लगा. इससे पवार-कांग्रेस की हैसियत बढ़ी. इसके बाद कांग्रेस की राजनीति शरद पवार को पर्दे के पीछे कर, उनका लाभ उठाने की चातुरी में बदल गयी.
पवार ने भी इस समीकरण को खूब निचोड़ा- तब तक, जब तक उनसे यह सहा गया! वे दिल्ली में अपनी स्थिति व हैसियत मजबूत करते गये. लेकिन दो कारणों से यह समीकरण गड़बड़ाने लगा. मनमोहन सिंह उम्मीद से लंबी पारी खेल गये और राहुल नये उम्मीदवार घोषित कर दिये गये. शरद पवार और उनकी पार्टी का रंग धुंधला पड़ने लगा और उनकी विरासत घर और पार्टी दोनों में महाभारत मचाने लगी. उम्र भी और स्वास्थ्य भी शरद पवार के पक्ष में नहीं रहा.
उनके लिए अच्छा शायद यह होता कि वे अच्छा मौका व सौदा देख कर अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर देते. लेकिन निजी स्वार्थ ने सारे माहौल को अविश्वास से भर दिया. हमेशा की तरह शरद पवार-अजित पवार ने पर्दे के पीछे अपने कई विकल्प तैयार करने की कोशिश तेज कर दी और बातें शिवसेना और भाजपा से कभी भी, किसी भी शर्त पर साझेदारी तक गयीं. कांग्रेस के कान खड़े हुए. दूसरी तरफ अजित पवार व पवार-कांग्रेस के सभी मंत्री राजनीतिक व्यवहार और मंत्रिपद की मर्यादाएं तोड़ कर पैसे बटोरने में जुटे थे.
महाराष्ट्र की राजनीति के एक गहरे जानकार को उद्धृत करूं तो : भ्रष्टाचार तो सत्ता के दोनों तरफ खड़े लोगों में समान रूप से फैला हुआ है, लेकिन पवार-पार्टी की रगों में खून की जगह भ्रष्टाचार का विषाणु ही दौड़ता है! यह शरद पवार से शुरू होकर नीचे तक जाता है, जिसे अजित पवार ने पतन की हद तक पहुंचा दिया है. तो फैसला हुआ- शरद पवार अपनी पार्टी में कमजोर पड़ते जा रहे हैं और राजनीति में कमजोर को ढोना कभी बुद्धिमानी नहीं होती है. कांग्रेस ने तय किया- पवार-पार्टी अपनी नाव खुद खे कर देखे! दोनों डूबे तो दोनों ज्यादा समझदारी से साथ आयेंगे और पूरी संभावना है कि उनका एकाकार उभरेगा.
तो सब ने एक-दूसरे को तौला और अपनी-अपनी जगह तय कर ली. शिवसेना ने इससे पहले एक बार ही सरकार बनायी है, जिसमें भाजपा उसके साथ थी. तब मनोहर जोशी मुख्यमंत्री बने थे और बाल ठाकरे ने सार्वजनिक घोषणा की थी कि उस कुर्सी पर बैठे कोई भी, रिमोट उनके पास ही रहेगा. रिमोट से सरकार चलाने की उनकी यह शैली मनोहर जोशी को रास नहीं आयी थी और मुख्यमंत्री दिखने की उनकी कोशिश सुप्रीमो को भी रास नहीं आयी थी. वहां से ही मनोहर जोशी का पतन शुरू हुआ था. आज वे निर्विकल्प अवस्था में, सारे अपमान झेलते हुए शिवसेना में बने हुए हैं. शिवसेना ने यह भी देखा कि उस सरकार के रिमोट भी दो थे- घोषित रिमोट बाल ठाकरे का था; अघोषित प्रमोद महाजन का! इससे शिवसेना ने सीखा यह कि सरकार अपनी बननी चाहिए, उसमें बहुमत अपना होना चाहिए और दूसरा कोई रिमोट की स्थिति में नहीं रहना चाहिए.
यह ठीक वही रणनीति है, जिसकी नकल इस साल लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने सफलतापूर्वक की. उसी कारण शिवसेना ने केंद्र सरकार में अपनी जगह पाने के मामले में वह सारा अपमान झेला, जिसे वह भूल नहीं सकी है. अत: उसने निर्णय लिया- भाजपा के साथ अगर कोई रिश्ता बनेगा, तो उसकी शर्तों पर बनेगा, अन्यथा वह अकेले चलेगी. ऐसे ही निष्कर्ष पर भाजपा भी पहुंची- अब शिवसेना से उसका रिश्ता क्षेत्रीय व राष्ट्रीय पार्टी के बीच के रिश्ते से अधिक कुछ नहीं होगा.
आखिर उसने पूर्ण बहुमत की सरकार दिल्ली में बनायी है, तो उस कद का शिवसेना को सम्मान करना सीखना ही होगा. उसने यह भी पक्का कर लिया है कि उसे अब महाराष्ट्र में कोई दूसरा बाल ठाकरे नहीं चाहिए. दोनों को पता है कि इस जुए में दांव उल्टा भी पड़ सकता है, लेकिन दोनों को पता है शतरंज की ऐसी बिसात दोबारा बिछेगी नहीं! इसलिए आज की स्थिति में से जो भी और जितना भी निचोड़ा जा सकता है, वह निचोड़ कर देख लेना चाहिए. पिट गये तो साथ हो लेंगे, साथ रो लेंगे!
अब सवाल है तो इतना ही कि दो से चार हो जाने का यह आलम किसे सबसे अधिक फायदा पहुंचायेगा? फिलहाल इसका जवाब सीधा लग रहा है- भाजपा सबसे फायदे में रहेगी. कारण? उसके साथ नरेंद्र मोदी हैं, जिनका आभामंडल अभी इतना तो बना हुआ है ही कि एक चुनाव पार करा दे! दूसरा, शिवसेना से छूट कर वह मराठी मानुस के तंग दायरे से बाहर निकल आयी है.
अब वह संघ परिवार के सारे शुभचिंतकों को एक साथ समेट सकेगी- अगर संघ परिवार ने अपनी तरफ से कोई संकोच नहीं किया! कांग्रेस पराजित मनोभूमिका से मैदान में उतर रही है, शिवसेना रक्षात्मक मुद्रा में है, पवार-कांग्रेस अस्तित्व बचाने का अंतिम प्रयास कर रही है. ऐसे में भाजपा ही है जो आक्रामक मुद्रा में है. वह दिल्ली की सरकार की अच्छी छवि का पूरा श्रेय ले रही है और महाराष्ट्र में दिल्ली उतारने का वादा कर रही है. दिल्ली के साथ-साथ मोदी ही महाराष्ट्र भी चलाएं, यह बात सामान्यत: मतदाता को आकर्षित कर रही है.
अब तक भाजपा समेत देश के सारे राजनीतिक दल अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए एक ही राग अलापते थे- अब मिलीजुली सरकारें ही चलेंगी; किसी एक के बहुमत का जमाना लद गया! यह झूठा सिद्धांत मोदी ने तार-तार कर दिया. यह बात प्रमाणित हो गयी कि यदि मतदाता को यह भरोसा हो कि कोई है जो दूसरे से एकदम अलग है, तो वह उसे पूरे बहुमत के साथ मौका देने को तैयार है. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा इस मौके को कितना भुना पाती है. फिलहाल इतना तो तय है कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भारतीय राजनीति की एक नयी कुंडली लिखी जा रही है, जिसे कल सारा देश पढ़ेगा.
* राजनीति पर हावी रहा है परिवारवाद
।। आशुतोष कुमार ।।
(प्रोफेसर, पंजाब विवि)
हरियाणा का राजनीतिक इतिहास देश के अन्य राज्यों से अहलदा रहा है. हरियाणा राज्य के गठन के बाद से ही वहां क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व रहा है. कांग्रेस कभी भी राज्य में प्रमुख ताकत के तौर पर नहीं उभरी, भले ही राज्य की सत्ता पर सर्वाधिक समय तक कांग्रेस ही कायम रही हो. भाजपा भी हरियाणा की राजनीति में कभी प्रभावी नहीं रही है. वर्ष 1992 में रथयात्रा के दौरान भले ही राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को व्यापक जनसमर्थन मिला हो, लेकिन हरियाणा की राजनीति पर इसका कोई असर नहीं पड़ा था. हरियाणा में कभी मजबूत एक दलीय व्यवस्था नहीं देखी गयी है.
हरियाणा के राजनीतिक इतिहास में क्षेत्रीय पार्टियों की भूमिका हमेशा महत्वपूर्ण रही है. लोकदल, इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो), हरियाणा विकास पार्टी से लेकर कई क्षेत्रीय पार्टियों का आगमन वहां के राजनीतिक पटल पर हुआ और इन पार्टियों ने सत्ता की राजनीति में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका भी निभायी है. कांग्रेस 1967 से 80 तक राज्य की सत्ता पर काबिज रही, लेकिन राज्य की पार्टी नहीं बन पायी.
भाजपा ने भी क्षेत्रीय दलों के सहयोग से ही राज्य में अपनी उपस्थिति का परिचय दिया है. हरियाणा की राजनीति में भाजपा हमेशा छोटे भाई की भूमिका में रही है. इनेलो की सरकार से लेकर बंशीलाल की सरकार तक में भाजपा छोटे भाई की भूमिका में ही उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रही है. भाजपा अकेले लड़ने पर हमेशा चुनाव हारती रही है. लेकिन, इस साल हुए लोकसभा चुनाव के नतीजों को देख कर भाजपा को पहली बार लग रहा है कि वह अपने बूते हरियाणा में सरकार बनाने की स्थिति में है. हालांकि इस सोच को हकीकत में बदलना भाजपा के लिए आसान काम नहीं है.
हरियाणा की राजनीति में परिवारवाद शुरू से ही हावी रहा है. छोटूराम से लेकर देवीलाल, बंशीलाल, भजनलाल, राव इंद्रजीत सिंह, हुड्डा, सूरजेवाला, बीरेंद्र सिंह जैसे कई परिवार यहां की राजनीति पर हावी रहे हैं. हरियाणा की राजनीति ऐसे इलाकाई नेताओं से ही प्रभावित रही है और आज भी इनका प्रभाव काफी मायने रखता है. ये सभी क्षत्रप अपने परिवार को बढ़ाने में शुरू से ही सक्रिय रहे हैं. राव इंद्रजीत अहीर के नेता, हुड्डा रोहतक के पैरोकार तो अन्य अपने क्षेत्र विशेष के नेता के तौर पर ही जाने जाते रहे हैं और इन्हें इन पहचान से दिक्कत नहीं रही है. राज्य की राजनीति पर क्षेत्र विशेष के नेता हमेशा प्रभावी रहे हैं.
इसके अलावा हरियाणा की राजनीति में शुरू से ही जाति का प्रभाव भी रहा है. चौधरी देवीलाल ने किसानों के हितों के लिए जाट पार्टी का गठन किया, तो अन्य जातियों का समर्थन हासिल करने के लिए भी पार्टियां गठित हुई. कुल मिला कर हरियाणा की राजनीति शुरू से ही कुनबापरस्ती, जातिवाद और परिवारवाद के ईद-गिर्द घूमती रही है. यहां की राजनीति पर राष्ट्रीय राजनीति का ज्यादा असर नहीं पड़ा है. राज्य में सत्ता के लिए पार्टियों का गठन और टूटना कोई नयी बात नहीं रही है.
यह देखने में आया है कि हरियाणा के लोगों की भी किसी एक दल के प्रति प्रतिबद्धता नहीं रही है. हरियाणा के राजनीतिक इतिहास में सिर्फ एक पार्टी इनेलो के प्रति वफादार लोगों की एक फौज है. बाकी किसी पार्टी का कोई प्रतिबद्ध मतदाता समूह नहीं है. राज्य में ज्यादातर मुख्यमंत्री जाट ही बने हैं, केवल भजनलाल गैर-जाट के बड़े नेता के तौर पर खुद को स्थापित करने में सफल रहे, पर उनके पुत्र कुलदीप बिश्नाई अपनी छवि को उस स्तर पर ले जाने में नाकाम रहे हैं.
भले ही इनेलो प्रमुख ओमप्रकाश चौटाला और उनके बेटे भ्रष्टाचार के मामले में जेल में बंद हैं, लेकिन अब भी जींद, सोनीपत, हिसार जैसे इलाकों में जाटों के एक बड़े वर्ग में चौटाला के प्रति सहानुभूति है. जबकि रोहतक, भिवानी में मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के प्रति इस वर्ग का रुझान देखा जा सकता है. गुड़गांव, फरीदाबाद जैसे इलाकोें में अहिरों का समर्थन भाजपा की ओर दिख रहा है. भाजपा अगर हरियाणा जनहित कांग्रेस के साथ चुनाव मैदान में होती, तो गैर-जाट मतों का धु्रवीकरण उसकी ओर हो सकता था.
लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी के नाम का फायदा भाजपा को मिला था, लेकिन विधानसभा चुनाव का माहौल इससे अलग होता है. साथ ही भाजपा के पास ऐसा कोई नेता नहीं है, जिसकी राज्य स्तर पर पकड़ हो. अधिकांश प्रत्याशी दूसरे दलों से आये हुए हैं. साथ ही भाजपा का संगठन भी राज्य में कभी मजबूत नहीं रहा है. इसलिए मोदी की छवि का भाजपा कितना फायदा उठा पायेगी, यह अभी नहीं कहा जा सकता है. मोदी की रैलियों में उमड़ रही भीड़ को जीत की गारंटी मानना जल्दबाजी होगी.
कांग्रेस पिछले दस सालों से शासन में है और उसके खिलाफ साफ तौर पर लोगों में नाराजगी है. मुख्यमंत्री पर क्षेत्र-विशेष का ही विकास करने का आरोप विरोधी ही नहीं, बल्कि खुद उनकी पार्टी के लोग लगाते रहे हैं. ऐसे में हुड्डा की वापसी की संभावना काफी कम है. ओमप्रकाश चौटाला को भ्रष्टाचार के मामले में जेल में होने की वजह से सहानुभूति मिल सकती है.
कुल मिलाकर मौजूदा राजनीतिक हालत में हरियाणा विधानसभा चुनाव में किस पार्टी को जीत मिलेगी, यह अभी पुख्ता तौर पर नहीं कहा जा सकता है. शायद हरियाणा की राजनीति में यह पहला चुनाव है, जब मुकाबला त्रिकोणीय दिख रहा है. ऐसे में वहां शायद ही किसी दल को स्पष्ट बहुमत मिले.
(बातचीत पर आधारित)
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव, 2014
4119 कुल उम्मीदवार आजमा रहे हैं किस्मत
2336 उम्मीदवारों द्वारा दी गयी सूचनाओं के आधार पर प्रत्याशियों का आकलन किया गया. ये प्रत्याशी मुख्यत: बड़ी पार्टियों- कांग्रेस, भाजपा, शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना से संबद्ध हैं.
798 प्रत्याशियों के विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें 527 पर गंभीर अपराधों- हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण, महिलाओं के विरुद्ध अपराध, सांप्रदायिक द्वेष फैलाने आदि- के आरोप में मामले चल रहे हैं.
425 प्रत्याशियों, जो पांच बड़ी पार्टियों से संबद्ध हैं, के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले लंबित हैं.
341 उम्मीदवारों के खिलाफ अदालतों में अभियोग-पत्र दाखिल.
156 क्षेत्रों में आपराधिक पृष्ठभूमि के कम-से-कम तीन प्रत्याशी हैं.
1095 करोड़पति उम्मीदवारों में 958 उम्मीदवार पांच बड़ी पार्टियों के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं.
236 उम्मीदवारों की संपत्ति 10 करोड़ रुपये से अधिक की.
8 प्रत्याशी की घोषित संपत्ति 100 करोड़ रुपये से अधिक है.
14 उम्मीदवारों के पास एक पैसे के बराबर भी संपत्ति नहीं.
155 उम्मीदवारों की घोषित संपत्ति एक लाख रुपये से कम.
11 प्रत्याशी पूरी तरह निरक्षर हैं इस बार के चुनाव में.
1276 उम्मीदवार सिर्फ 12वीं कक्षा उत्तीर्ण हैं या उनकी शिक्षा इससे भी कम है.
985 प्रत्याशियों की शिक्षा स्नातक या उससे ऊपर के स्तर की है.
94 महिला उम्मीदवार पांच प्रमुख दलों की ओर से चुनावी मैदान में हैं.