अशोक नागपाल
रांची में रावण दहन की शुरुआत 1948 में की गयी. आज से 66 वर्ष पूर्व आयोजनकों ने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि एक छोटा सा आयोजन रांची के लोगों के बीच एक विशाल रूप ले लेगा. पश्चिमी पाकिस्तान के कबायली इलाके (नार्थ वेस्ट फ्रंटीयर) के बन्नू शहर से रिफ्यूजी बन कर रांची आये 10-12 परिवारवालों ने रावण दहन के रूप में अपना पहला दशहरा मनाया.
स्व लाला खिलंदा राम भाटिया, स्व मनोहर लाल, स्व कृष्णा लाल नागपाल तथा स्व अमीर चंद सतीजा, जो बन्नू समाज के मुखिया थे, के नेतृत्व में तब के डिग्री कॉलेज (बाद में रांची कॉलेज मेन रोड डाकखाने के सामने) के प्रांगण में 12 फीट के रावण के पुतले का निर्माण किया गया.
ज्ञात हो कि रांची में दशहरा दुर्गा पूजा के रूप में मानाया जाता था. उस समय पहली बार स्थानीय लोगों ने रावण दहन देखा. रावण दहन के दिन तीन सौ-चार सौ लोगों के बीच नाच-गान किया गया और ढोल-नगाड़ों के बीच रावण के पुतले में अगिAप्रज्वलित की गयी. यहां एक बात बताना जरूरी है कि 1948 से 1953 तक रावण का मुखौटा गधे का बनता था, जो बाद में भारत सरकार के अनुरोध पर बंद कर दिया गया.
उधर, वर्ष 1949 तक रावण दहन डिग्री कॉलेज मैदान में ही होता था. बन्नूवाल बिरादरी ने जगह छोटी होने के कारण 1950 से 1955 तक रावण दहन का आयोजन बारीपार्क शिफटन पैवेलियन में किया. धीरे-धीरे खर्च बढ़ गये और रावण दहन देखनेवालों की संख्या भी छह हजार तक पहुंच गयी. अब पुतलों (रावण) की लंबाई 20 से 30 फीट तक की गयी, जिसका खर्च स्व लाला मनोहर लाल नागपाल, स्व टहलराम मिनोचा तथा स्व अमीर चंद्र सतीजा ने उठाया. बन्नू समाज कभी भी बाजार से चंदा नहीं लेता था. इधर बन्नू समाज के पुराने लोगों के स्वर्गवास होने के बाद तथा रावण के निर्माण में खर्च बढ़ने के कारण स्व मनोहर लाल ने रावण दहन की कमान पंजाबी हिंदू बिरादरी के लाला धीमान साहब लाल, रामस्वरूप शर्मा, लाला भगत राम, लाला कश्मीरी लाल, लाला राधाकृष्ण को सौंपी. आबादी बढ़ती गयी, खर्च भी बढ़ते गये. रावण दहन राजभवन के सामने तथा मोरहाबादी मैदान में होने लगा. 1960 के आसपास रावण दहन एचइसी मैदान तथा अरगोड़ा में भी होने लगा, लेकिन मुख्य आयोजन बिरादरी द्वारा मोरहाबादी में ही होता है.