एशियन गेम्स को शुरू हुए शनिवार को आठ दिन हो गए लेकिन परेशानियां हैं कि आयोजकों का पीछा ही नहीं छोड़ रही हैं.
मुख्य स्टेडियम में शनिवार से एथलेटिक्स की इवेंट शुरू हुए.
लेकिन ऐसा लगता है कि प्रेस के लिए बस चलाने वाले ड्राइवरों को रास्ता ही नहीं दिखाया गया है.
शनिवार को दो बसों के ड्राइवर मीडियाकर्मियों को वक़्त पर स्टेडियम नहीं पहुंचा सके. एक ड्राइवर क्रिकेट स्टेडियम ले गया जहां सुबह ही प्रतियोगिता समाप्त हो गई थी.
अंधेरे मे दो तीन चक्कर लगा कर ड्राइवर ने किसी से रास्ता पूछा लेकिन फिर भारी ट्रैफ़िक मे बस फंस गई और पत्रकार आधे से ज़्यादा इवेंट मिस कर गए.
दूसरी बस का ड्राइवर पूरा शहर घूमकर कर दो घंटे बाद स्टेडियम पहुंचा.
अख़बारों पर रोक
लोकल मीडिया में आयोजन के ख़िलाफ़ ख़बर छपने से आयोजकों ने मुख्य प्रेस सेंटर में बाहर के अख़बारों पर रोक लगा दी है.
वहाँ सिर्फ़ गेम्स का अख़बार ‘एशियाड डेली’ ही मिलता है. लेकिन कुछ विदेशी पत्रकारों ने ऑनलाइन अख़बारों के प्रिंट आउट निकाल कर आयोजकों के काम पर पानी डाल दिया है.
मलेशिया का एक घुड़सवार ख़ुद तो इंचियोन पहुंच गया लेकिन उसका घोड़ा नहीं पहुंच सका. आमिर अब्दुल बकर का घोड़ा बेल्जियम से एम्सटरडम होकर कोरिया आना था.
घोड़े को इंचियोन लाने का काम कोरिया की उस कंपनी को सुपर्द किया गया था जिसे आयोजकों ने ही चुना था.
लेकिन वो कंपनी समय पर घोड़े का ज़रूरी टेस्ट नहीं करा सकी और एम्सटरडम के अधिकारियों ने घोड़े को बिना टेस्ट के इंचियोन के लिए हवाई जहाज़ में नहीं चढ़ने दिया.
अब मलेशियाई घुड़सवार के पास इसके इलावा कोई चारा नहीं था कि वो खेलों मे बिना हिस्सा लिए वापस मलेशिया चला जाए.
मां की मुश्किल
महिलाओं के बॉक्सिंग कम्पीटीशन में भारत की सरिता देवी अगले राउंड में तो पहुंच गईं लेकिन उनको फ़िक्र इस बात की थी कि वापस घर लौटने पर उनका दो साल का बेटा उन्हे पहचानेगा या नहीं.
लम्बे समय तक ट्रेनिंग कैम्प में घर से बाहर रहने से उन्हें यह कठिनाई महसूस हो रही है.
लेकिन सरिता ने कहा कि अगर देश को मेडल दिलाना है तो इतना तो करना ही पड़ेगा.
सरिता को धक्का तब लगा था जब ग्लासगो कॉमनवेल्थ खेलों के बाद उनके बेटे ने उन्हें पहचानने से इंकार कर दिया था.
भारत को मेडल
पिछले तीन चार दिन से भारतीय पत्रकार शिकायत कर रहे थे कि भारत के खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं.
और जब शनिवार को 11 मेडल आए, जिनमें दो गोल्ड भी थे तो पत्रकार फिर परेशान थे.
अब परेशानी यह थी कि कहाँ जाएं और कौन से स्टेडियम में जाएं. एक स्टेडियम का दूसरे स्टडियम का कम से कम 20 या 25 किलोमीटर का फ़ासला है.
और किसी भी स्टेडियम पर जाने के लिए पहले मेन प्रेस सेंटर आना पड़ता है. इस से आधी इवेंट तो छूट रही होती है.
लेकिन अब किया क्या जाए. मेडल ना आए तो परेशानी और जो आ जाए तो परेशानी.
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