साल 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में उर्दू माध्यम के सरकारी स्कूल खोलने का वादा किया था.
मुख्यमंत्री बनने के बाद अप्रैल 2012 में मोआलिम-ए-उर्दू वेलफ़ेयर एसोसिएशन के सदस्यों से मुलाक़ात के बाद अखिलेश यादव ने मुस्लिम बहुसंख्यक इलाकों में उर्दू-माध्यम के प्राइमरी, बेसिक और हायर सेकेंडरी स्कूल खोलने की घोषणा की थी ताकि उर्दू को बढ़ावा मिल सके.
अपने दो वर्षों के कार्यकाल के बाद भी अखिलेश यादव इस वादे को पूरा नहीं कर सके हैं.
यह पूछने पर कि उस वादे का क्या हुआ, पार्टी के प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी कहते हैं, "यह वादा हमने चुनावी घोषणापत्र में भी किया था. लेकिन इस बारे में क्या हुआ यह पूछ कर बताऊंगा."
अतुल चंद्रा की रिपोर्ट
यूँ तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उर्दू अब कानूनी तौर से उत्तर प्रदेश की दूसरी राज भाषा हो गई है लेकिन आधिकारिक रूप से उसे अभी भी वो स्थान पूरी तरह से नहीं मिल पाया है.
प्रदेश का सूचना विभाग तो उर्दू में प्रेस विज्ञप्तियां जारी करता है लेकिन सरकार के अन्य विभागों में उर्दू में कामकाज न के बराबर है.
इसका कारण उर्दू जानने वालों की कमी है.
लखनऊ स्थित सचिवालय में लगी कुछ ही नाम पट्टिकाओं में उर्दू में नाम लिखा है. अधिकारी हिंदी में सरकारी काम करना पसंद करते हैं.
सरकार ने 5000 से अधिक उर्दू अनुवादक नियुक्त किए थे, उन्हें प्रमुख विभागों में रखने के बजाय नगर निगम और अन्य स्थानीय निकायों में भेज दिया गया.
बेसिक शिक्षा निदेशक डीबी शर्मा के अनुसार अभी तक प्रदेश के कक्षा आठ तक के सरकारी स्कूलों में उर्दू शिक्षकों के 4280 पद खाड़ी पड़े हैं.
बाजार की शक्तियां
डीबी शर्मा कहते हैं, "उर्दू शिक्षक ही नहीं मिल रहे हैं."
छह माह पहले तक उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी के सचिव रहे एस रिज़वान कहते हैं, "हुकूमत तो कोशिश कर रही है. तकरीबन सभी ज़िलों में उर्दू सिखाने के लिए केंद्र खोले गए हैं जहां 16 वर्ष से अधिक आयु के लोगों को उर्दू मुफ्त सिखाई जाती है."
"उनका वक़्त भी शाम पांच बजे से शुरू होता है ताकि ज़्यादा लोगों के लिए इन केन्द्रों पर पहुंचना आसान हो. साथ ही यह केंद्र सभी सम्प्रदाय के लोगों के लिए हैं."
लेकिन रिज़वान के अनुसार सभी जगह ये कोशिशें पूरी तरह से कामयाब नहीं हो पाई हैं. उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग के एक उच्च अधिकारी का मानना है कि उर्दू भाषा बाज़ार की शक्तियों का शिकार हो गई है.
उर्दू माध्यम के स्कूल
रिज़वान का कहना है कि यदि उर्दू को रोज़गार से जोड़ा जा सके तो यकीनन वो अपनी पुरानी ऊंचाई दोबारा छू सकेगी.
उर्दू लेखक आबिद सुहैल कहते हैं कि जब तक उर्दू जानने वाले लोग सरकारी नौकरियों में नहीं होंगे तब तक उसे दूसरी राजभाषा होने का कोई लाभ नहीं होगा.
वे कहते हैं, "इसके लिए ज़रूरी है कि उर्दू माध्यम के स्कूल खोले जाएँ."
आबिद सुहैल ने यह भी कहा कि मुलायम सिंह यादव का हिन्दू वोट खोने का डर भी उर्दू की तरक़्क़ी की राह में आड़े आ रहा है.
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