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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जापान यात्रा: 21वीं सदी एशिया की, हम नेतृत्व को तैयार

तोक्यो से ब्रजेश कुमार सिंह (संपादक-गुजरात, एबीपी न्यूज) अपनी जापान यात्रा के तीसरे दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जापान के उद्योग जगत की बड़ी हस्तियों से मुखातिब हुए. कार्यक्रम का आयोजन जापान चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री और जापान-इंडिया बिजनेस को-ऑपरेशन कमेटी के बैनर तले किया गया था. माना ये जा रहा था कि मोदी जापान […]

तोक्यो से ब्रजेश कुमार सिंह

(संपादक-गुजरात, एबीपी न्यूज)

अपनी जापान यात्रा के तीसरे दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जापान के उद्योग जगत की बड़ी हस्तियों से मुखातिब हुए. कार्यक्रम का आयोजन जापान चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री और जापान-इंडिया बिजनेस को-ऑपरेशन कमेटी के बैनर तले किया गया था.

माना ये जा रहा था कि मोदी जापान के उद्यमियों को भारत में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे. मोदी ने किया भी ऐसा. पीएमओ में जापान प्लस नाम से विशेष सेल बनाने की घोषणा भी की, साथ में ये तक कह दिया कि वो जापान के दो औद्योगिक प्रतिनिधियों को इस सेल में रखने को तैयार हैं.

लेकिन जापान के उद्योग जगत को भारत की तरफ आकर्षित करने के दौरान ही मोदी ने अपने भाषण में कुछ ऐसा भी कहा, जिससे एशिया में नये सामरिक रिश्तों के उभरने की तैयारी के तौर पर देखा जा सकता है. मोदी का कहना था कि फिलहाल विस्तारवाद और विकासवाद की धारा के बीच संघर्ष चल रहा है और इसमें भारत और जापान मिल कर विकासवाद की धारा को आगे बढायेंगे. मोदी ने जब विस्तारवाद की बात की, तो कह डाला कि कुछ शक्तियां ऐसी भी हैं, जो दूसरे के भौगोलिक इलाके और समुद्री टापू में घुसपैठ करने से बाज नहीं आ रही हैं. मोदी ने इस सिलसिले में चीन का नाम तो नहीं लिया, लेकिन पिछले कुछ महीनों के घटनाक्र म पर निगाह रखने वाले किसी भी शख्स के लिए ये समझना मुश्किल नहीं था कि मोदी का इशारा चीन की तरफ है.

दरअसल हाल के महीनों में ही सेनकाकू द्वीप समूह के तौर पर पहचान रखने वाले आठ द्वीपों पर चीन ने अपना अधिकार जताने के लिए आक्र ामक रु ख अख्तियार कर लिया है. हालांकि ये द्वीप 19वीं सदी से ही जापान के नियंत्रण में हैं. इन द्वीप समूहों को लेकर ही चीन और जापान के कूटनीतिक संबंधों में फिलहाल काफी कड़वाहट है. ऐसे में समुद्र में घुस जाना या फिर किसी के इलाके में प्रवेश कर जाना जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर मोदी ने साफ संकेत दे दिया कि वो चीन के विस्तारवाद की बात कर रहे हैं. बिना नाम लिये चीन के विस्तारवाद की चर्चा करने के साथ ही मोदी ने दूसरी महत्वपूर्ण बात ये कही कि 21वीं सदी एशिया की सदी है और इसमें अगुआई देने का काम भारत और जापान मिल कर करेंगे. मोदी ने एशिया की चर्चा और अगुआई की बात करने के दौरान चीन का नाम तक नहीं लिया. और ऐसा अनायास नहीं है. मोदी प्रधानमंत्री की कुरसी संभालने के बाद से ही लगातार ये संकेत देने में लगे हैं कि वो अपने उन पड़ोसी देशों को चीन के असर से बाहर निकालने की कोशिश में हैं, जो धीरे-धीरे चीन के प्रभाव में आ रहे थे. इसलिए प्रधानमंत्री की कुरसी संभालने के बाद ही वो सबसे पहले भूटान गये और उसे अपना सबसे विश्वस्त पड़ोसी कह कर सहलाया. इसके बाद वो नेपाल की यात्रा भी कर गये, जहां संविधान सभा के अंदर अपने भाषण से उन्होंने ऐसा समा बांधा कि चीन से विचारों की टॉनिक लेने वाले माओवादी नेता और पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड तक ने मोदी की जम कर तारीफ कर डाली.

जब मोदी जापान के दौरे पर हैं, तो उनकी कोशिश सिर्फआर्थिक मोरचे पर भारत और जापान को करीब लाना नहीं है. सामरिक और कूटनीतिक तौर पर भी वो जापान को भारत के ज्यादा से ज्यादा करीब लाने में जुटे हैं. जापान के जो मौजूदा राजनीतिक समीकरण हैं, उसकी वजह से उन्हें मदद भी मिल रही है. जिस तरह से खुद मोदी अपने दम पर बीजेपी को केंद्र की सत्ता में लाये हैं, वैसे ही जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे भी मजबूत और स्थिर सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं. निजी तौर पर तो दोनों एक-दूसरे से करीब हैं ही, विचारधारा के स्तर पर भी वो समान हैं. जिस तरह बीजेपी के सबसे लोकप्रिय नेता के तौर पर नरेंद्र मोदी आक्रामक राष्ट्रवाद की सियासत करते हैं, वैसे ही जापान में शिंजो एबे भी.

मोदी को लग रहा है कि एशिया में भारत और जापान दोनों के लिए बड़ी चुनौती चीन की ताकत के खिलाफ साझा मोरचा बनाना है. अगर जापान और भारत सामरिक स्तर पर एक-दूसरे के साथ सहयोग बढ़ाते हैं, तो चीन के असर को एशिया की सियासत में कम करने में मदद मिलेगी. जापान और भारत का करीब आना विश्व राजनीति के हिसाब से भी महत्वपूर्ण होगा. भारत के लिए तमाम अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जापान का साथ होना लाभकारी होगा.

मोदी को पता है कि जापान को अपने साथ जोड़ना लंबी प्रक्रि या है. वो इसके लिए कोशिश 2007 से कर भी रहे हैं, जब वो पहली बार गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर जापान आये थे. दोबारा वो 2012 में भी आये, शिंजो एबे से उस वक्त भी उनकी मुलाकात हुई थी. एबे ने तब तक सत्ता में वापसी नहीं की थी. लेकिन 2012 के आखिर में ही जापान में एबे सत्ता में आ गये, तो दो साल के अंदर मोदी देश के प्रधानमंत्री बन गये. अपने मौजूदा दौरे में भी पहले दो दिन मोदी सांस्कृतिक कूटनीति का उदाहरण पेश करते हुए क्योतो में रहे और जापान और भारत के लोगों को सांस्कृतिक तौर पर एक-दूसरे के करीब लाने में लगे रहे. व्यापार, सामरिक और कूटनीतिक मसलों पर गंभीर चर्चा करने के पहले जापान के लोगों से गर्मजोशी से मिलते रहे मोदी. जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे ने अपनी तरफ से भी काफी उत्साह दिखाया. औपचारिकताओं को ताक पर रखते हुए मोदी के स्वागत के लिए क्योतो गये और निजी रात्रिभोज तो रखा ही, अगले दिन क्योतो के तोजी मंदिर में भी मोदी को साथ लेकर गये.

जाहिर है, निजी तौर पर एक-दूसरे का जम कर सम्मान करने वाली नमो-शिंजो की जोड़ी अपनी मजबूत सरकारों के साथ चीन के खिलाफ साझा आक्र ामक रवैया अख्तियार कर सकती है. मोदी और एबे के हाल के रु ख से तो यही लगता है. सीमा पर भी इसकी निशानियां मिल रही हैं. दोनों की अगुआई वाली सरकारें चीन की तरफ से होनेवाली किसी भी घुसपैठ की उपेक्षा करने की जगह उसका जवाब उसी अंदाज में देने की कोशिश में लगी हैं.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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