भारत के गांवों, क़स्बों और छोटे शहरों की इन लड़कियों ने खेल के मैदान में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई है.
तमाम बाधाओं और सामाजिक बंधनों को तोड़ा है और लोगों के अटपटे बर्ताव के बावजूद अपने लक्ष्य से नहीं डिगीं.
हाल के दिनों में भारत की कई महिला खिलाड़ियों ने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलों में जीत हासिल की.
उन्होंने साबित कर दिया कि वो किसी से कम नहीं है.
ऐसी ही कुछ लड़कियों की दास्तां पढ़िए, जिन्हें परिजनों का साथ मिला और उन्होंने निराश नहीं किया.
पढ़ें भारतीय महिला खिलाड़ियों पर एक विशेष रिपोर्ट
हरियाणा के सोनीपत के एक छोटे से गांव की दो बहनें हैं. दोनों के कान टूटे हुए, बाल छोटे हैं और दोनों शॉर्ट्स पहनकर कुश्ती करती हैं. ये लड़कियां हाल ही में भारत के लिए ग्लासगो कॉमनवेल्थ खेलों में स्वर्ण पदक लेकर आई हैं.
अखाड़े में महिलाएं भी
ऐसे क्षेत्र से खेलों में आना, जहां खाप पंचायत और दूसरी वजहों से महिलाओं को घर से बाहर निकलने की भी मनाही है, अपने आप में चुनौतीपूर्ण है.
हालांकि इस मामले में दोनों बहनें ख़ुशनसीब रहीं.
बबीता कहती हैं, "घर से हमें कोई रोक-टोक नहीं हुई, क्योंकि पापा ने हमें बचपन से लड़कों की तरह पाला है. जब हम लड़कों के साथ ट्रेनिंग करते थे या शॉर्ट्स पहनते थे तब गांव के लोग ज़रूर बातें किया करते थे."
"लेकिन मम्मी-पापा कहते रहे कि तुम अपना ध्यान खेल पर रखो और अपनी मेहनत करो."
विनेश कहती हैं कि परेशानी कभी-कभी ये होती है कि पुरुष पहलवान उन्हें भी लड़का समझ लेते हैं. कभी जानबूझकर या कभी अनजाने में उनके कंधे पर हाथ रख देते हैं.
वो कहती हैं, "एक तो हमारे कान टूटे हुए, ऊपर से बाल कटवाने से चेहरा भी लड़कों जैसा लगता है."
निशाने पर निगाहें
25 मीटर पिस्टल शूटर अनीसा सैय्यद ने 2010 दिल्ली कॉमनवेल्थ में दो स्वर्ण पदक जीते थे. ग्लासगो कॉमनवेल्थ में उन्होंने रजत पदक जीता. अनीसा के लिए खेल में आगे आना काफ़ी मुश्किलों भरा था.
अनीसा कहती हैं, "सबसे बड़ी चुनौती तो ये थी कि मैं मध्यम वर्गीय मुस्लिम परिवार से आती हूं. हमारे परिवार को काफ़ी कुछ सुनने को मिलता था."
वो बताती हैं, "तब मेरे पापा कहते थे कि अगर लड़की आगे बढ़ने के क़ाबिल ना हो तो उसके ऊपर काफ़ी मुसीबत आ सकती है."
अनीसा कहती हैं, "दिल्ली कॉमनवेल्थ खेल लड़कियों के लिए सकारात्मक रहे. माता-पिता भी जानने लगे हैं कि खेलों को भी एक करियर के रूप में देखा जा सकता है."
जहां चाह, वहां राह
शूटर लज्जा गोस्वामी दिल्ली कॉमनवेल्थ में रजत और ग्लासगो में कांस्य पदक जीत चुकी हैं. तीन से चार लाख रुपए में आने वाली राइफ़ल ख़रीदने के लिए लज्जा को शुरुआत में काफ़ी जूझना पड़ा, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी.
वो कहती हैं, "जब मैंने शूटिंग शुरू की थी तब सौ या दो सौ लड़कियां ही शूटिंग कर रही थीं, लेकिन अब यह संख्या हज़ार से ऊपर पहुंच चुकी है. लड़कियां जागरूक हो चुकी हैं."
तीरंदाज़ी से पहचान
दीपिका कुमारी हाल ही में पोलैंड में भारतीय महिला टीम को तीरंदाज़ी विश्व कप स्टेज चार में गोल्ड दिलाकर लौटी हैं. तीरंदाज़ी जैसे भारत में गुमनाम खेल में आना उनके लिए भी आसान नहीं था.
वो कहती हैं, "मेरे परिवार में कोई भी खेल से जुड़ा हुआ नहीं है. शुरुआत में मेरे पापा चाहते थे कि मैं पढ़ाई करूं और उसी से ही नौकरी पाऊं. उन्हें काफ़ी मनाना पड़ा क्योंकि उन्हें तीरंदाज़ी के बारे में ज़्यादा पता नहीं था."
फ़िलहाल दीपिका, 19 सितंबर से दक्षिण कोरिया में होने वाले एशियन गेम्स की तैयारियां कर रही हैं.
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