"कबड्डी, कबड्डी, कबड्डी…” पूरे भारत मे ना भी सही कम से कम देश के उत्तरी भागों में तो सबने इन शब्दों को जरूर सुना होगा.
जब टीवी, इंटरनेट और मोबाइल फोन ने हमारे जीवन मे दखलअंदाज़ी नहीं की थी तो शायद रात के खाने के बाद घर के पास छोटे से मैदान मे कबड्डी के खेल का लुत्फ भी उठाया होगा.
कबड्डी का खेल भले ही उत्तर भारत मे अधिक खेला जाता हो लेकिन मज़े की बात यह है कि कबड्डी शब्द का जन्म तमिल भाषा के शब्द ‘कई-पीडि’ से हुआ जिसका मतलब होता है चलो हाथ पकड़ें.
और कबड्डी में हाथ पकड़ना खेल का मुख्य हिस्सा है. क्रिकेट, हॉकी ओर बैडमिंटन के बाद अब कबड्डी की लीग का दौर शुरू हुआ है और इसका श्रेय किसी हद तक टीवी को भी जाता है.
खेल पत्रकार नॉरिस प्रीतम ने कबड्डी लीग के भविष्य में झांकने की कोशिश की है. पढ़ें उनका विश्लेषण.
पैसा और पहचान
टीवी को विज्ञापन के जरिए कॉरपोरेट का पैसा मिल रहा हैं ओर उस पैसे का कुछ हिस्सा खिलाड़ियों को भी मिल रहा है.
कभी मिट्टी पर भूखे पेट खेले जाना वाला खेल आज खिलाड़ियों को अच्छी खासी रकम दिला रहा है.
यहाँ तक कि 1990 के बीजिंग एशियन गेम्स मे शुरू होकर अब तक छह बार एशियन गेम्स मे लगातार गोल्ड मेडल जीत कर भारतीय खिलाड़ियों को इतना पैसा और पहचान नहीं मिली, जो लीग ने दी है.
इस समय देश के अलग-अलग शहरों मे चल रही कबड्डी लीग में ना सिर्फ भारत के टॉप खिलाड़ी बल्कि ईरान, बांग्लादेश, पाकिस्तान और कोरिया के खिलाड़ी भी अलग-अलग टीम से हिस्सा ले रहे हैं.
भरपूर आनंद
इतना ही नहीं, वे अच्छा खासा पैसा बना रहे हैं… और अगले महीने कोरिया में होने वाले एशियन गेम्स के मद्देनज़र इस लीग को बेहद अहम माना जा रहा है.
इस लीग को सफल बनाने के लिए खेल में कुछ बदलाव भी किए गए हैं. जैसे खुली हवा मे मिट्टी पर खेले जाना वाला खेल अब इनडोर स्टेडियम मे फोम के गद्दों पर हो रहा है.
और टीवी पर देखने वालो के लिहाज से रोचक बनाने के लिए हमला करने का सामय 30 सेकेंड निर्धारित किया गया है. लीग के अभी तक के मुकाबलों मे दर्शकों ने भरपूर आनंद लिया है.
लीग का हश्र?
उधर एशियन गेम्स मे खेले जानी वाली इस कबड्डी से हट कर इंग्लैंड मे सर्कल प्रणाली की तर्ज़ पर खेले जानी वाली वर्ल्ड कबड्डी लीग भी बहुत सफल हो रही है.
हालांकि इस प्रणाली को एशियन गेम्स मे मान्यता प्राप्त नहीं है लेकिन दर्शक इसका भरपूर लुत्फ उठा रहे हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सिर्फ एक प्रयोग बनकर बनकर रह जाएगा या चलता रहेगा.
देखा जाए तो क्रिकेट लीग में भी लोगों की रुचि कम तो हुई है और हॉकी का तो उससे भी बुरा हाल हुआ है और बैडमिंटन में और भी बदतर. ऐसे में कबड्डी लीग का क्या हश्र होगा?
नए खिलाड़ी
कबड्डी के पक्ष में यह बात है कि इस खेल मे बहुत ज़्यादा सुविधाओं की ज़रूरत नहीं होती इसलिए शायद यह लीग चल पड़े.
लेकिन क्योंकि इस खेल के बहुत अधिक खिलाड़ी नहीं हैं इसलिए दर्शक कब तक एक ही खिलाड़ी को देखता रहेगा?
खिलाड़ियों मे बदलाव बहुत ज़रूरी है और जब नए खिलाड़ी नहीं होंगे और लुभाने वाली नई चीज़ें नहीं होंगी तो ज़ाहिर है विज्ञापन देने वाली कंपनिया भी पीछे हट जाएंगी.
तब शायद कबड्डी लीग टीवी पर खेलों की महज़ ‘सास भी कभी बहू थी’ की तर्ज पर ‘कबड्डी की भी कभी लीग थी’ बनकर रह जाएगी.
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