हिमालय क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाओं के न्यूनीकरण के लिए भरसक प्रयास होने चाहिए और भारत, चीन, नेपाल और भूटान को पारिस्थितिक संयुक्त मोर्चा बनाना चाहिए.
कोसी और घाघरा (गंगा की सहायक नदियां) सियांग (ब्रह्मपुत्र) और सतलज जैसी नदियों की बाढ़ों से सुरक्षा के लिए यह संयुक्त मोर्चा बेहद ज़रूरी है.
साथ ही स्थानीय, हिमालयी, एशियाई और वैश्विक स्तर पर पूर्व सूचना तंत्र होना चाहिए ताकि मानव जीवन को आपदाओं से बचाया जा सके.
इससे संयुक्त नीति और संयुक्त सुरक्षा की बात विकसित हो सकेगी.
मानवीय हस्तक्षेप से त्रासदी?
दरअसल, हिमालय जन्मजात ही नाज़ुक पर्वत है. टूटना और बनना इसके स्वभाव में है. अति मानवीय हस्तक्षेप को यह बर्दाश्त नहीं करता है.
भूकंप, हिमस्खलन, भूस्खलन, बाढ़, ग्लेशियरों का टूटना और नदियों का अवरुद्ध होना आदि इसके अस्तित्व से जुड़े हैं.
उन्नीसवीं और बीसवीं सदी की आपदाओं को अगर छोड़ भी दिया जाए तो साल 2000 से अब तक लगभग हर साल कोई न कोई बड़ी आपदा ज़रूर आई है.
फिर चाहे वह साल 2000 की सिंधु-सतलज और सियांग-ब्रह्मपुत्र की बाढ़ हो या फिर 2004 में पारिचू झील बनने और टूटने से आई सतलज की बाढ़. 2008 की कोसी की बाढ़ हो या फिर 2013 में उत्तराखंड में भारी भूस्खलन और बाढ़.
पड़ताल ज़रूरी
आपदाओं के प्राकृतिक के साथ-साथ मानव निर्मित कारणों की भी गंभीरता से पड़ताल होनी चाहिए.
वैज्ञानिक बताते हैं कि 1894 में अलकनंदा में आई बाढ़ जहां पूरी तरह प्राकृतिक थी, वहीं 1970 की अलकनंदा की बाढ़ को विध्वंशक बनाने में जंगलों के कटान का योगदान रहा.
इसके बाद ही हमने वनों को बचाने और बढ़ाने के लिए चिपको आंदोलन शुरू किया था.
उत्तराखंड की 2013 की आपदा की बात करें तो इसमें बेहिसाब जल विद्युत परिजनाओं, सड़कों का अवैज्ञानिक निर्माण, विस्फ़ोटकों का अनियंत्रित इस्तेमाल और नदीं क्षेत्रों में निर्माण कार्यों का भी योगदान रहा.
हिमनदों, बुग्यालों से छेड़छाड़ भी इस आपदा के कारणों में से रहे.
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