आज, प्रभात खबर की उम्र 30 वर्ष हुई. आज ही के दिन, 14 अगस्त 1984 को इस अखबार का पहला अंक (प्रति) छपा था. रांची (तत्कालीन बिहार) से. जिन लोगों ने भी इस छोटी जगह (तब) रांची से अखबार के प्रकाशन की कल्पना की, उनके पास हौसले थे, बड़े सपने थे, देश के इस पिछड़े अंचल में जागरूकता, ज्ञान और बदलाव का माहौल बनाने का जज्बा था, पर आवश्यक बड़े संसाधन नहीं थे, इस कारण 1989 आते-आते यह समाचारपत्र, बंद होने के कगार पर था.
पर 1989, अक्तूबर अंत में इसका प्रबंधन बदला. नयी टीम आयी. हर क्षेत्र में. प्रबंधन, संपादकीय, प्रसार, विज्ञापन, छपाई, पर्सनल वगैरह विभागों में. मुख्य जगहों पर युवा टीम, शेष सभी पुराने सहयोगी. पर इस टीम के पास भी संसाधन नहीं थे. सपने थे, संकल्प था. बंदी के कगार से संस्थान को खड़ा करने की चुनौती थी. कड़ी बाजार प्रतिस्पर्धा में. यह प्रतिस्पर्धा लगातार बढ़ती गयी.
पहले स्थानीय या राज्य या आसपास के पुराने-स्थापित अखबारों से मुकाबला था. बाद में बड़ी पूंजी के, देश के बड़े घरानों (जिनके पास शेयर बाजार की अपार पूंजी है, विदेशी निवेश (एफडीआइ) की ताकत या इक्विटी है) की चुनौती मिली. एक नहीं, ऐसे कई बड़े संस्थानों से. एक के मुकाबले अनेक. इस तरह प्रभात खबर , जन्म (1984), बदलाव (1989 में नया प्रबंधन) से अब तक इसी कड़ी प्रतिस्पर्धा के बीच, अपनी यात्रा पथ पर अग्रसर है.
अभावों के बीच. आज के दौर में भी, जब मीडिया बड़ी पूंजी का ‘उद्योग’ है!
यह यात्रा, जो इसमें साझीदार रहे हैं, या इसे नजदीक से जानते हैं, उन्हें पता है कि बिना आत्मप्रचार-प्रसार के, एक धुन, जिद, संकल्प और कुछ करने के मानस के तहत हुई. तटस्थ रहते अपने कर्म संसार में डूब कर. हर अवरोध-मुसीबत और अकल्पनीय कठिनाई के बीच भी अपराजेय संकल्प के साथ. महज टीम की आपसी एकता-समझ और सामूहिक प्रतिबद्धता की पूंजी की बदौलत.
एक मामूली उदाहरण. 1991-92 के दौर में, अयोध्या प्रसंग में रांची में कफ्यरू था. अखबार के पास छापने के लिए न्यूजप्रिंट नहीं था. कहीं से रात में एक उधार रील (कागज) मिला, तो ढोने की समस्या आयी. आज प्रभात खबर प्रबंधन में जो लोग शीर्ष पर हैं, उन लोगों ने ठेले पर यह रील कई किलोमीटर ढोया. उसी तरह संपादकीय में अनेक लोग प्रमुख जगहों पर आज हैं, उनके ऐसे कामों की फेहरिस्त बने, तो सूची बड़ी होगी. यह सब किस माहौल में हो रहा था? अखबार उद्योग के एक बड़े प्रबंधन विशेषज्ञ (जो बाद में एक आइआइएम के डायरेक्टर बने) अपनी रिपोर्ट दे चुके थे कि इस अखबार का भविष्य महीनों में है, वर्ष में नहीं. जायज कारणों के आधार पर उनका यह निष्कर्ष था. टाप टीम को यह पता था.
पर हमेशा टीम की आपसी समझ ऐसी रही कि ऐसे कामों से ही हर पल, हर रोज जूझते, हल करते भी. किसी ने यह एहसास नहीं कराया कि मै अपनी मूल भूमिका से अलग हट कर ऐसे कितने काम हर दिन करता हूं. याद रखिए, यह ऐसे लोग रहे, जिन्हें बराबर दूसरी जगहों से अच्छे अवसर व अच्छी तनख्वाह-सुविधाओं के प्रस्ताव थे. जो मध्य वर्ग परिवारों से रहें, अच्छी डिग्री रही, कभी जीवन में ठेले पर रील ढोने जैसा काम इसके पहले नहीं किया.
पर बिना पूंजी या संसाधन के प्रभात खबर के पास बाजार में टिकने-बढ़ने के लिए यही टीम भावना या एकजुटता एकमात्र पूंजी या दौलत थी. टीम (चाहे जिस विभाग में हो) एक उद्देश्य के प्रति समर्पित. एक मामूली-अचर्चित (तब रांची ’84 या ’89 में अचर्चित ही थी), जगह से निकलकर अन्य जगहों पर पहुंचना मकसद था. बड़ी जगहों (दिल्ली वगैरह) या बड़ी पूंजी के बल तो सब पसरते-फैलते-बढ़ते हैं. आज की भौतिक दुनिया में पूंजी के बल सफलता के उदाहरण पग-पग पर मिलेंगे.
पर भारी पूंजी संकट (पूंजी प्रधान अखबार उद्योग में) व संसाधनों के अभावों के बावजूद, प्रभात खबर ने अपनी जगह बनायी. आज देश के हिंदी अखबारों में प्रभात खबर सातवें स्थान पर है. देश के तीन राज्यों (झारखंड, बिहार और बंगाल) के दस (रांची, जमशेदपुर, धनबाद, देवघर, पटना, मुजफ्फरपुर, भागलपुर, गया, कोलकाता एवं सिलीगुड़ी) स्थानों से रोज छपनेवाला अखबार. रोज की कुल प्रसार संख्या 8,34,000 है, और कुल पाठक संख्या 89 लाख.
यह सब कुछ संभव हो पाया, पाठकों के स्नेह और समर्थन के कारण. हर पग पर पाठकों ने ताकत दी, सुझाव दिये, भटके तो चेताया-सावधान किया और अनेक सूचनाएं दी, जिनके बल प्रभात खबर ने एक भिन्न पत्रकारिता की.
शुरू से ही समाज के शासकवर्ग के बदले सामान्य आदमी की पत्रकारिता. आसपास हो रहे अच्छे कामों को फोकस कर, नयी पहल की. पर शासन की अंदरूनी अव्यवस्था के अनेक ऐसे प्रकरण भी उजागर किये, जो राष्ट्रीय या राज्यों की राजनीति में बदलाव की धुरी बने. साहस के साथ पत्रकारिता. पर बिना किसी निजी राग-द्वेष या बैर के.
पत्रकारिता में नये प्रयोगों के असंख्य प्रकरण हैं, जिनकी शुरुआत का श्रेय प्रभात खबर की टीम को रहा. इस लंबी यात्रा में अनेक लोग रहें, जो आज सेवानिवृत्त हैं या अन्य जगहों पर हैं, उनकी उल्लेखनीय भूमिका भी प्रभात खबर नींव को पुख्ता करने में निर्णायक रही है.
इसी यात्रा में अपने पाठक संसार से आत्मीयता का, साख का वह रिश्ता बना, जिसने प्रभात खबर को इस मुकाम तक पहुंचाया. समय के साथ अखबार के विषय वस्तु (कंटेंट) में बदलाव, हर वर्ग को जोड़ने की कोशिश और एक सार्थक पत्रकारिता की प्रेरणा लगातार इसे पाठकों से मिलती रही.
आगे भी इसी पूंजी के बल यह अखबार नयी पहल, नये विषय-वस्तु के साथ आपके बौद्धिक संसार को प्रखर बनाने की भूमिका में रहेगा. इस यात्रा में कभी गलतियां भी हुईं. पर हमने तुरंत पाठकों को बताया. सार्वजनिक किया. आज भी कभी-कभार गलतियां होती हैं, तो हम शायद अकेले हिंदी अखबार हैं, जो अगले दिन पाठकों को बताते हैं. भविष्य में ऐसा न हो, इसके लिए कदम उठाते हैं.
आज हम स्मरण करते हैं, धन्यवाद देते हैं, आभार प्रकट करते हैं, उन हॉकरों-एजेंटों या विज्ञापनदाताओं के प्रति, जो तीन दशक की इस यात्रा में हर क्षण साथ, सहयोग और सार्थक सुझाव नहीं दिये होते, तो यह यात्रा पूरी नहीं होती.
इस अवसर पर पाठकों समेत, हॉकरों-एजेंटों, विज्ञापनदाताओं को श्रेय देते हुए, हम पूरे समाज के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं. यह समाज है, राज्य है, देश है, तभी हम हैं. इसलिए हमारी पत्रकारिता का मूल धर्म भी इसी समाज, राज्य और देश को बेहतर बनाने के संकल्प से जुड़ा है. आपका भरपूर सहयोग और समर्थन ही हमारी ताकत है. शुभकामनाएं.
जिनकी जिंदगी बदल दी प्रभात खबर ने
पाठकों और समाज से हमारा रिश्ता सिर्फ समाचार का नहीं
प्रभात खबर आज अपनी स्थापना के 30 साल पूरे कर रहा है. इस यात्रा के दौरान अखबार ने कई बड़े मुकामों को छुआ है. यह संभव हो पाया, पाठकों के स्नेह और भरोसे की बदौलत. पाठकों से, समाज से, हमारा रिश्ता सिर्फ खबर देनेवाले और लेनेवाले का नहीं, बल्कि इससे कहीं बढ़ कर है.
देश, प्रदेश, समाज की आखिरी कतार में खड़े लोगों, गांधीजी के उस अंतिम आदमी, को इंसाफ दिलाने, उसकी मदद करने के लिए प्रभात खबर हमेशा तत्पर रहा है. हमारी पूरी यात्रा में ऐसे न जाने कितने मौके आये. पिछले दिनों हमारी रिपोर्ट के बाद कैसे कुछ लोगों की जिंदगी बदल गयी, इसे हम अपने सभी पाठकों के साथ साझा करना चाहते हैं
नहीं तो मैं टॉपर होकर भी सड़क पर होता
सुबोध चंद्र महतो
देश और समाज के लिए अखबार की भूमिका क्या होती है, इसका पता मुझे तब चला जब प्रभात खबर मेरे साथ खड़ा हुआ. सच तो यही है कि अगर यह अखबार मेरी मदद के लिए सामने नहीं आता, तो शायद मैं आज शिक्षक नहीं, बल्कि सड़क पर होता.
मैं था अपने विषय का टॉपर, लेकिन मुझे फेल कर दिया गया था. पूरी कहानी सुनाता हूं. मैं तमाड़ के सलगाडीह के सुंदरडीह का रहनेवाला हूं. बचपन से प्रभात खबर पढ़ता था. मेरे गांव में अखबार नहीं आता था.
इसके लिए मुझे रोज चार किलोमीटर जाना पड़ता था. प्रभात खबर में कई ऐसी रिपोर्ट छपती थीं, जिससे लगता था कि यह उन लोगों की लड़ाई लड़ता है जिनका कोई सहारा नहीं होता है. मुझे लगा कि मेरी भी मदद प्रभात खबर ही कर सकता है.
पढ़ाई पूरी करने के बाद, मैं वर्ष 2012 में हुई प्लस टू उच्च विद्यालय शिक्षक नियुक्ति परीक्षा में शामिल हुआ था. परीक्षा अच्छी गयी थी. मुझे सफलता का पूरा भरोसा था. लेकिन जब रिजल्ट निकला, तो मेरा नाम नहीं था. मुझे यकीन नहीं हुआ. मैंने सूचना के अधिकार का सहारा लिया और अपनी कॉपी देखने के लिए आवेदन दिया.जब उत्तर पुस्तिका देखी तो पता चला कि मेरी कॉपी तो जांची ही नहीं गयी है. मुझे हैरानी हुई. मैंने फिर शिकायत की.
जैक ने मेरी कॉपी की जांच करायी. मैं जीव विज्ञान का टॉपर निकला. जैक ने जुलाई 2013 में मेरी नियुक्ति के लिए माध्यमिक शिक्षा निदेशालय से अनुशंसा की. कुछ नहीं हुआ. सिर्फ आश्वासन मिलता रहा. मैं अदालत भी जा सकता था, लेकिन उसमें काफी समय लगता. साधन का भी अभाव था. मुझे विश्वास था कि अगर प्रभात खबर के पास जाता हूं, तो मुझे न्याय मिलेगा.
मैंने 17 अगस्त को पत्रकार सुनील झा से बात की. उनसे मिला. सबूत दिखाये. उन्होंने कहा कि अखबार उनकी लड़ाई लड़ेगा. 19 दिसंबर 2013 के अंक में पहले पेपर मेरी कहानी छपी. उस दौरान विधानसभा का सत्र चल रहा था. प्रभात खबर में रिपोर्ट छपते ही प्रदीप यादव और बंधु तिर्की ने विधानसभा में इस मामले को उठा दिया. माहौल गरमा गया. शिक्षा मंत्री को सदन में आश्वासन देना पड़ा.
शिक्षा विभाग सक्रिय हो गया. मेरी नियुक्ति का प्रस्ताव बना. लेकिन, मामला फिर लटक गया. प्रभात खबर इसे मार्च में फिर छापा. अंतत: 22 जुलाई 2014 को शिक्षा विभाग से मुझे नियुक्ति पत्र मिला. अब मैं शिक्षक हूं. मेरा जीवन बदल गया है. अगर प्रभात खबर नहीं होता, तो शायद आज भी मैं नियुक्ति के लिए सड़क पर मारा-मारा फिरता.
अखबार ने मेरा घर-संसार बसा दिया
रेशम
10 जून, 2014 को मेरे पिता ने आत्महत्या कर ली थी. सिर्फ इसलिए, क्योंकि वे मेरी शादी के लिए पूरा दहेज नहीं जुटा पाये थे. 15 जून को मेरी शादी थी. शादी के ठीक पांच दिन पहले मेरे परिवार पर पहाड़ टूट पड़ा. मैं सोच भी नहीं सकती थी कि अब मेरी शादी होगी. ऐसे संकट के वक्त में प्रभात खबर मेरे साथ खड़ा हुआ. शादी उसी दिन हुई जो तिथि पिताजी ने तय की थी.
आज मैं अपने ससुराल में पति के साथ हूं.
मैं रेशम गढ़वा जिले के धुरकी के शिवरी गांव की रहनेवाली हूं. मेरे पिता गिरिजा राम चंद्रवंशी ने मेरे लिए एक अच्छा लड़का खोजा था. उत्तरप्रदेश के कोन थाना के केवाल गांव के विशुनदेव चंद्रवंशी के पुत्र शशिकांत से मेरी शादी तय हुई थी. 12 जून को तिलक था और 15 को बारात आनी थी. लड़केवालों ने 41 हजार रुपये और एक मोटरसाइकिल की मांग की थी. पिताजी ने घर की बकरी और मुर्गी बेच कर पैसा जमा किया.
पांच हजार छेका में खत्म हो गये. काफी प्रयास के बावजूद पिताजी सिर्फ 26 हजार रुपये जमा कर पाये. पिताजी काफी चिंतित थे. उन्हें और 15 हजार रुपये नकद भी देना था.
मोटरसाइकिल के लिए भी पैसा नहीं था. पिताजी कर्ज के लिए कई लोगों के पास गये. पैसा नहीं मिला. तनाव में थे. उन्हें लगा कि अब वे बेटी की शादी नहीं कर पायेंगे. तिलक में सिर्फ दो दिन रह गये थे. लाचार पिता इस स्थिति को बरदाश्त नहीं कर पाये और 10 जून को फांसी लगा ली. सारे सपने टूट चुके थे.
ऐसे मौके पर प्रभात खबर सामने आया. प्रभात खबर के विनोद पाठक खुद आये. पूरी घटना को लेकर न सिर्फ खबर छापी, बल्कि उन्होंने एक टीम भी बनायी. खबर छपते ही सहायता के लिए लोग आने लगे.
प्रभात खबर द्वारा बनायी गयी टीम की ओर से विनोदजी ने मेरे भावी ससुर से टेलीफोन पर बात की और निर्धारित समय पर शादी करने का आग्रह किया. खबर सुन कर मेरे ससुर भी दुखी हुए और आग्रह को मानते हुए तय किया कि आदर्श विवाह होगा, वह भी 15 जून को ही.
पंचायत के मुखिया, समाजसेवी, सब पैसा जमा करने में लग गये. प्रभात खबर ने आदर्श विवाह समारोह आयोजन समिति बनायी. आदर्श विवाह हुआ. ससुरालवालों ने उदाहरण पेश किया. शादी का सारा खर्च इस समिति ने उठाया. प्रभात खबर और समाजसेवियों तथा ग्रामीणों ने वह सारी जिम्मेवारी निभायी जो एक पिता निभाता है. मेरी शादी उसी दिन हो गयी, जिस दिन मेरे दिवंगत पिता चाहते थे. मेरी शादी के लिए पिता का श्रद्धकर्म रोक दिया गया था.
शादी के बाद पिता का श्रद्धकर्म हुआ. मैं तो पिता को खो चुकी थी, लेकिन प्रभात खबर की पहल ने मेरे पिता का सपना पूरा किया. पिता को खोने के बाद मैं रोती हुई ससुराल पहुंची. मुझे जहां प्रभात खबर की पहल का गर्व है, वहीं पिता को खोने का गम भी.
.. तो मेरा आइआइटी में दाखिला नहीं होता
रमेश ठाकुर
विज्ञान (गणित) के हर छात्र का सपना होता है, आइआइटी की परीक्षा पास करना. मेरा भी सपना था. वह पूरा भी हो गया. 21 जून 2013 को रिजल्ट निकला था और मैंने आइआइटी एडवांस की परीक्षा पास कर ली थी. 1075 वां रैंक आया था. लेकिन आगे चुनौतियां थीं. उदास हो गया था.
गरीब परिवार से हूं. कहां से आयेगा बीटेक की पढ़ाई का खर्च? उसके पहले काउंसिलिंग के लिए जाने के खर्च का सवाल था. ऐसे मौके पर प्रभात खबर का साथ मिला, समाज आगे आया और आज मैं आइआइटी खड़गपुर से बीटेक कर रहा हूं.
मैं बहरागोड़ा (पूर्वी सिंहभूम) के राजलाबंध का निवासी हूं. ऐसे मेरा पैतृक निवास जमुई के भुल्लो गांव में है. मेरे पिता राजेंद्र ठाकुर राजलाबंध में घर-घर जा कर बाल-दाढ़ी बनाने का काम करते हैं. परिवार को पालना मुश्किल होता है, तो आइआइटी में पढ़ाने का खर्च कहां से आता? जब मैंने आइआइटी (जेईई-एडवांस) की परीक्षा पास की, तो पिता को बताया. उन्हें पता भी नहीं था कि आइआइटी क्या होता है.
उन्होंने सोचा कि होगी कोई छोटी-मोटी परीक्षा. पिता कहां से लाते पैसा? मैं खुद छुट्टी के दिन पिता के काम में (बाल-दाढ़ी बनाने में) हाथ बंटाता था, ताकि दो पैसा घर में आ जाये. सरस्वती शिशु मंदिर, बहरागोड़ा उच्च विद्यालय और जवाहर नवोदय विद्यालय से पढ़ाई की थी. आइआइटी के लिए कोचिंग करना चाह रहा था.
पड़ोसियों ने सहायता की. कोचिंगवाले ने मदद की और मैं सफल हो गया. रिजल्ट के बाद लगा कि मैं आइआइटी में एडमिशन नहीं ले पाऊंगा. 21 को रिजल्ट निकला और 25 जून को मैं प्रभात खबर, जमशेदपुर के दफ्तर में आनंद मिश्र से मिला.
अपनी पीड़ा बतायी. दूसरे दिन (26 जून) प्रभात खबर में रिपोर्ट छपी कि ‘एक होनहार छात्र पैसे के अभाव में आइआइटी में एडमिशन नहीं ले पा रहा’. खबर छपते ही समाज सक्रिय हो गया. मदद के लिए हाथ बढ़ने लगे. रिपोर्ट भी छपती रही. सांसद अजय ने लैपटॉप दिया. आइआइटी की पढ़ाई के लिए यह अनिवार्य है. कई शिक्षकों-बुद्धिजीवियों, समाजसेवियों ने पैसे की व्यवस्था की.
बैंक कर्ज देने को तैयार हो गया. इस प्रकार चार-पांच दिनों में मेरी समस्या का हल निकल चुका था. अब मेरे पास नामांकन के लिए पैसे हो चुके थे. मैंने आइआइटी, खड़गपुर में नामांकन कराया. इंजीनियर बन कर निकलूंगा. जिस प्रकार प्रभात खबर के प्रयास से समाज मेरे लिए आगे आया, मैं भी जरूरतमंद लोगों के लिए जीवन भर उपलब्ध रहूंगा.
बच्चों के ठीक होने की आस बंधी
राजेंद्र प्रसाद
मस्कुलर डिस्ट्राफी : इस लाइलाज बीमारी से लाखों में एक व्यक्ति पीड़ित होता है. मैं बिहार के मोतिहारी का राजेंद्र प्रसाद. मेरे चार बेटों में से तीन इस बीमारी से पीड़ित हैं. इनके इलाज के लिए कई जगहों का चक्कर काटा. घर, दुकान तक बिक गये. 13 सितंबर 2013 को प्रभात खबर ने पहले पन्नों पर हमारी पीड़ा छापी- ‘तिल-तिल कर जीने को मजबूर यीशू, गुरु व देव’.
खबर छपने के बाद हमारी मदद के लिए लोग आगे आये. मस्कुलर डिस्ट्राफी से ही पीड़ित झारखंड के रामगढ़ निवासी संजय कुमार ने मोतिहारी प्रभात खबर कार्यालय से संपर्क किया और पीड़ित परिवार की सहायता की इच्छा जतायी. उन्होंने हमारे पूरे परिवार को रामगढ़ बुलाया, जहां कोरिया निर्मित सेराजीम मशीन से तीनों बच्चों का इलाज शुरू हुआ. दो-तीन महीने बाद लाभ दिखने लगा, लेकिन आर्थिक तंगी की वजह से हमारे लिए पूरे परिवार को लेकर रामगढ़ में रहना मुश्किल था.
हम चाहते थे कि सेराजीम मशीन मोतिहारी में ही उपलब्ध हो जाये. मैंने अपनी इच्छा प्रभात खबर को बतायी. मशीन की कीमत एक लाख 68 हजार रुपये थी. प्रभात खबर की पहल पर मशीन के सप्लायर प्रदीप ने 33 हजार रुपये की छूट दिलायी. समाजसेवी व बुद्धिजीवियों ने हमें एक लाख 35 हजार रुपये का सहयोग दिया. फरवरी 2014 में मशीन आ गयी.
तब से हमारे तीनों पीड़ित बच्चों का इलाज इसी से हो रहा है. पहले जहां गुरु व देव दो-चार कदम चल पाते थे. आज 40-50 कदम चल रहे हैं. खुद अब अपना काम करने लगे हैं. हमें उम्मीद है कि एक दिन हमारे बच्चे ठीक हो जायेंगे.