राष्ट्रमंडल खेलों में भारतीय महिला खिलाड़ियों ने जैसा उम्दा प्रदर्शन किया है उससे एक नई तस्वीर सामने आई है.
पहलवान बबीता कुमारी, विनेश फोगट, निशानेबाज़ राही सरनोबत, अनीसा सैय्यद, अपूर्वी चंदेल, भारोत्तोलक संजीता चानू खुमुकचाम और सीमा पुनिया वो नाम हैं जिन्होंने खेलों में भारतीय महिला खिलाड़ियों की शान बढ़ाई है.
अपने और साथी खिलाड़ियों के प्रदर्शन से उत्साहित सीमा पुनिया को लगता है कि भारतीय लड़कियां खेलों में इससे भी अच्छा प्रदर्शन कर सकती हैं.
वो कहती हैं कि भारतीय लड़कियों को घरों से निकलकर दुनिया जीतनी चाहिए.
लेकिन जबतक ग़ैरकुलीन खेलों और खिलाड़ियों को लेकर सरकारी रवैया नहीं बदलता है, इस तस्वीर में बहुत सुधार आने की कल्पना करना ज़ल्दबाजी होगी.
पढ़ें विजय राना की पूरी रिपोर्ट
कॉमनवेल्थ में रजत पदक विजेता सीमा पुनिया कहती हैं कि भारतीय लड़कियां घरों से बाहर निकलकर दुनिया जीतें.
ग्लासगो के हैंपडेन पार्क स्टेडियम में 45 हज़ार दर्शकों के सामने सीमा पुनिया को डिस्कस थ्रो में रजत पदक के लिए ज़बर्दस्त कोशिश करते देखना रोमांचक था.
पहला दांव निराशाजनक था. दूसरा ठीक था और उसने उन्हें तीसरे पायदान तक पहुंचाया, लेकिन वह भी उनके अपने सर्वोत्तम प्रदर्शन से नीचे था.
और इसके बाद हमने उनका दृढ़ निश्चय और इरादा देखा, जब उन्होंने अपने डिस्कस को ठीक 45 डिग्री के कोण पर हवा में उछाला और 61.61 मीटर की अधिकतम दूरी हासिल कर रजत पदक पाया.
चाहे भारोत्तोलन हो, कुश्ती, बॉक्सिंग या शूटिंग हो, भारतीय लड़कियों ने भारतीय पुरुषों से बेहतर ही प्रदर्शन किया है.
यह असाधारण बात है कि जिस देश में औरतें पारंपरिक तौर पर घरों तक महदूद हैं और तमाम भेदभाव, अपराध और गालियां सहती हैं, वहां वो पुरुषों से आगे निकलने को तैयार हैं.
यह और भी खुशी की बात है कि सीमा पुनिया या स्वर्ण पदक विजेता भारोत्तोलक संगीता चानू की तरह ये ताक़तवर और कामयाब महिलाएं ग्रामीण इलाक़ों से आती हैं.
पुनिया कहती हैं कि वो सभी माता-पिताओं से अपील करेंगी कि ‘वो अपनी बेटियों को घरों तक न रखें.’ उन्होंने मुझसे खासकर हरियाणा राज्य की बात की जहां युवा महिलाओं को घर से बाहर जाने की इजाज़त नहीं होती.
वह कहती हैं, ‘हरियाणा में हमें घरों से बाहर आने के बहुत कम मौक़े मिलते हैं हालांकि हम हरियाणवी औरतें काफ़ी ताक़तवर होती हैं. अगर हम घरों से बाहर आ पाएं तो देश के लिए और पदक जीत सकती हैं.’
फ़्लैट को तरसता स्वर्ण विजेता
सुखेन डे पश्चिम बंगाल में हावड़ा के रहने वाले हैं. ग्लासगो में वह स्वर्ण जीतने वाले पहले भारतीय खिलाड़ी थे. 2010 में दिल्ली में हुए खेलों के दौरान उन्हें रजत मिला था.
राज्य सरकार ने तब सभी पदक विजेताओं को आवासीय फ़्लैट देने का वादा किया था. चार साल बाद अभी भी वह फ़्लैट पाने के लिए बाबुओं की मिन्नतें कर रहे हैं.
इस बीच राज्य की सीपीआईएम सरकार चुनाव हार चुकी है और ममता बनर्जी के नेतृत्व में नई सरकार सत्ता में है.
नई मुख्यमंत्री से मिलने की उनकी कोशिशें बेकार गईं और जब डे ने राज्य के खेलमंत्री मदन मित्रा से संपर्क किया तो उन्होंने रुखाई से कहा, ‘मैं आपको नहीं पहचानता.’
अब उन्होंने स्वर्ण पदक जीत लिया है, तो उनके पास वादा किया गया फ़्लैट पाने का ज़्यादा बेहतर मौक़ा है. डे कहते हैं कि उन्हें ‘अब कोई उम्मीद नहीं’ है.
आगे वह कहते हैं, ‘फिर भी मैं अपने देश के लिए जो हो सकता है करूंगा, ज़्यादा से ज़्यादा पदक जीतूंगा.’
यह भारत में उन ग़ैरकुलीन खेलों की हालत है जिनमें कई खिलाड़ी ग़रीब और ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते हैं.
उनके लिए खेल ग़रीबी से मुक्ति पाने की एक कोशिश है. फिर भी हमारे राजनीतिज्ञ इस बात को समझ नहीं पाए हैं.
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