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जनसंख्या के बढ़ते बोझ को भोजन उपलब्ध कराने ऊपरी व शुष्क भूमि की उपयोगिता बढ़ाना है जरूरी

वैज्ञानिकों में भ्रम है कि हम उन्नत तकनीक की बात कर रहे हैं, तो पूर्व की परिस्थिति में ही सिर्फ निचली व मध्यम भूमि की उपयोगिता से काम चल जायेगा. लेकिन नयी परिस्थितियों में ऊपरी भूमि का उपयोग बढ़ाना जरूरी है. वहां ऐसी फसलें लगाने की जरूरत है जो कम पानी में और जल्दी तैयार […]

वैज्ञानिकों में भ्रम है कि हम उन्नत तकनीक की बात कर रहे हैं, तो पूर्व की परिस्थिति में ही सिर्फ निचली व मध्यम भूमि की उपयोगिता से काम चल जायेगा. लेकिन नयी परिस्थितियों में ऊपरी भूमि का उपयोग बढ़ाना जरूरी है.

वहां ऐसी फसलें लगाने की जरूरत है जो कम पानी में और जल्दी तैयार हो जायें. जैसे मकई, मडुवा व 100 दिनों में तैयार होने वाला धान. मध्यम व निचली भूमि में अधिक दिनों में होने वाली फसलों को उगा सकते हैं, जबकि ऊपरी भूमि में सब्जी की खेती व वानिकी की जा सकती है. हमारे किसानों ने सोच-समझ कर उसका सृजन किया है. वहां से उन्हें कम दिनों में भोजन मिल जाता है. यह सही है कि तकनीक का आधुनिकीकरण हुआ है. लेकिन हम उस परिस्थिति को छोड़ नहीं सकते हैं.

सामान्य तौर पर लोग सूखाक्षेत्र का मतलब राजस्थान व गुजरात समझते हैं. जबकि सच यह है कि जहां पानी बहुत बरसता है, वहां भी सूखा क्षेत्र की स्थिति उत्पन्न होती है़ अगर पांच-छह दिन वैसे इलाके में बारिश रूक जाती है, तो वहां भी सूखा क्षेत्र जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है और पौधे मुरझाने लगते हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि इस परिस्थिति से निबटने के लिए क्या उपाय किये जायें.

आम तौर पर हम पानी को बहने देते हैं. वे अपने साथ भूमि की उर्वर परत को भी बहा कर ले जाते हैं़ जबकि वह परत काफी महत्वपूर्ण होती है़ जहां एक खेती होती है, वहां पर ऊपरी भूमि की महत्ता बहुत ज्यादा है़ इसलिए झारखंड जैसे पठारी राज्य के हर गांव में ऊपरी भूमि, मध्यम भूमि व निचली भूमि की व्यवस्थ की गयी है.

पहले जनसंख्या का बोझ कम था़ प्रति व्यक्ति भूमि की उपलब्धता अधिक थी़ ऐसे में ऊपरी भूमि की वैसी आवश्यकता नहीं होती थी़ लेकिन अब जनसंख्या का दबाव बढ़ने के साथ उसकी उपयोगिता बढ़ाने की जरूरत हो गयी है़ जो किसान कम भूमिधारी हैं, वे अधिक से अधिक फसल लें और अपनी हर प्रकार की जमीन को उपयोगी बनायें, इसकी जरूरत हो गयी है़ फिलहाल औसत किसान सात से आठ महीने का ही अनाज प्राप्त कर पा रहा है़ ऐसे में जरूरत ऐसे उपायों की है, जिससे उसे सालों भर भोजन मिल सके.

वैज्ञानिकों में भ्रम है कि अगर हम उन्नत तकनीक की बात कर रहे हैं, तो पूर्व की परिस्थिति में ही सिर्फ निचली व मध्यम भूमि की उपयोगिता से काम चल जायेगा़ लेकिन नयी परिस्थतियों में ऊपरी भूमि का उपयोग बढ़ाना जरूरी है़ वहां ऐसी फसलें लगाने की जरूरत है जो कम पानी में और जल्दी तैयार हो जायें़ जैसे मकई, मडुवा व 100 दिन में तैयार होने वाला धाऩ मध्यम व निचली भूमि में अधिक दिनों में होने वाली फसलों को उगा सकते हैं़ जबकि ऊपरी भूमि में सब्जी की खेती व वानिकी की जा सकती है़ हमारे किसानों ने सोच-समझ कर उसका सृजन किया है़ वहां से उन्हें कम दिनों में भोजन मिल जाता है़ यह सही है कि तकनीक का आधुनिकीकरण हुआ है, लेकिन हम उस परिस्थिति को नहीं छोड़ सकते हैं़

झारखंड के 7970 लाख विस्तृत हैक्टेयर भूभाग में 18़10 लाख हैक्टेयर पर खेती होती है़ इसमें दो लाख हैक्टेयर भूमि सिंचित है, जो कुल कृषि भूमि का बामुश्किल 12 प्रतिशत है़ यहां फसलों की उपज काफी कम है़ सिंचित भूमि की उत्पादकता दो टन प्रति हैक्टेयर है़ वहीं वर्षा आधारित क्षेत्र में एक टन प्रति हैक्टयर से भी कम फसल उत्पादित हो रहा है़ जबकि सभी लोगों को भोजन उपलब्धता सुनिश्चित कराने के लिए आवश्यक है कि प्रति हैक्टेयर भूमि पर दो टन से अधिक उपज हासिल की जाये. सूखा क्षेत्र में सामान्यत: वैसे क्षेत्र आते हैं, जहां 500 मिमी से कम बारिश होती है, लेकिन बिहार-झारख्ांड में 1300 मिमी बारिश होने पर भी यहां के कई क्षेत्र में सूखा क्षेत्र जैसी स्थिति उत्पन्न होती है़ वास्तव में कम उपज का कारण बारिश की अनिश्चित स्वभाव व कुछ समय के लिए सूखा पड़ना है़ अम्लीय मिट्टी भी पौधों के स्वास्थ्य के लिए कम फायदेमंद है़ अत्यधिक बारिश होने से भी खेतों को नुकसान होता है और महत्वपूर्ण पोषक तत्व बह कर चले जाते हैं़ हमें इन परिस्थितियों में बदली हुई कृषि नीति अपनानी होगी़

फसल प्राप्त करने की सूखा क्षेत्र तकनीक

उपरी भूमि में मेड़बंदी करें, ताकि मिट्टी का बहाव रुके व उसमें नमी बनी रह़े

जितनी जल्द हो उसमें फसल बोयें़

हम कम अवधि में होने वाली फसलें लगायें़

जैविक खाद, वर्मी कंपोस्ट खेतों में डालें़ इससे भूमि का स्वास्थ्य तो सुधरेगा ही जलधारण करने व उसे कायम रखने की उसकी क्षमता भी बढ़ेगी़

एक एकड़ खेत में 66 गुणा 10 का तालाब बनायें 10 गुणा 10 गुणा 10 का चार डोभा बनायें़ इसके माध्यम से बारिश के पानी का संचय करें़ तालाब को भूमि के निचले हिस्से में बनायें व खेतों में ऐसे नाले बनायें ताकि उसमें पानी जा सक़े खरीफ की खेती के लिए उन दिनों में जब बारिश नहीं होगी यह उपाय लाभदायक साबित होगा़ यह उपाय अपकी भूमि के भूमिगत जल का स्तर भी बढ़ायेगा, जो रबी के फसलों के लिए लाभदायक होगा़

मानसून के शुरुआती दिनों में फसलों की सीधी बोआई की तकनीक को अपनायें़

बीज को पानी में 12 घंटे भिगोयें और उसके बाद बोने से पहले एक घंटे तक उसे सूखायें़

डीएपी, एमओपी उर्वरक को बोआई के समय उपयोग करें़ साथ ही यूरिया का उपयोग 20 से 25 दिनों के बाद करें़

ऊपरी व सूखी भूमि में धान, मूंगफली, मक्के, मडुए, अरहर, उड़द, सोयाबिन, लोबिया आदि की खेती करें़ रबी फसलों में सरसों, तोरी, तिल, गुंदली, सोयाबिन, लोबिया व पशुओं को खिलाने वाले चारे की खेती कर सकते हैं़ ऐसी भूमि पर रबी फसलों में किसान तोरी, सरसों, चना, तिल, मसूर व कुसुम की खेती कर सकते हैं़ ये उपाय किसानों के लिए लाभादायक होगा़

तीन से चार क्विंटल चूना प्रति हेक्टेयर की दर से खेतों में डालें. मक्के व मूंगफली, अरहर, सोयाबीन, उड़द आदि की खेती के लिए यह उपाय उपयोगी है. यह उपाय ऊपरी अम्लीय मिट्टी के लिए लाभकारी होता है.

दलहन की फसलों का राइजोबियम कल्चर से उपचार कर लें.

पशुधन के लिए चारा वाली फसलों की खेती अवश्य करें.

किसान इस तरह की भूमि में एक साथ दो फसलों की खेती के तरीके को अपना सकते हैं.

अरहर व मक्के की खेती एक साथ करें. इसे 1 : 1 में 60 सेंटीमीटर की दूरी पर लगायें.

अरहर व ज्वार की खेती एक साथ 1 : 1 में करें और पौधे को 60 सेंटीमीटर की दूरी पर लगायें.

अरहर व धान की खेती एक साथ करें. इन्हें 1 : 2 में लगायें और पौधे को 60 सेमी की दूरी पर रखें.

अरहर व मूंगफली की खेती एक साथ करें. इन्हें 1 : 2 में 60 सेमी की दूरी पर लगायें.

अरहर व उड़द की खेती एक साथ करें. इन्हें 1 : 2 में 60 सेमी की दूरी पर लगायें.

अरहर व सोयाबीन की खेती साथ करें. इन्हें 1 : 2 में 60 सेमी दूरी पर लगायें.

अरहर व भिंडी की खेती एक साथ करें. इन्हें 1 : 1 में 60 सेमी की दूरी पर लगायें.

भिंडी व ऊपरी भूमि पर लगने वाली धान की किस्में 1 : 2 में 60 सेमी की दूरी पर लगायें.

सूखे की परिस्थितियां

यह देखने में आया है कि दो दशक से मॉनसून हर तीन साल पर 10 से 15 दिन विलंब से आता है. ऐसा भी स्थिति उत्पन्न होती है कि पर्याप्त बारिश नहीं होती है, ताकि फसलों की बोआई की जा सके. फिर फसल की बीज की अवधि में भी पांच से छह दिन सूखे जैसी स्थिति उत्पन्न होती है.

ऐसे में फसल उपजाने के आकस्मिक उपाय किये जाने चाहिए. जो इस प्रकार हैं :

1 से 15 अगस्त : ललाट, नवीन, सहभागी किस्म की धान की फसलें लगायें. कम अवधि में होने वाले मक्का बिरसा 1 व बिरसा विकास मक्का – 2 लगायें. उड़द, अरहर बिरसा – 1, रागी ए – 404 लगायें. सब्जी में टमाटर, भिंडी, लोबिया लगायें. पशुओं को खिलाने वाले चारे लगायें.

15 से 30 अगस्त : उड़द की किस्म बिरसा उड़द – 1, पंत यू – 19 लगायें. कम अवधि में होने वाले मक्का लगायें. अरहर की बिरसा – 1 किस्म लगायें. भिंडी, टमाटर व लोबिया जैसी सब्जी लगायें.

1 से 15 सितंबर : बिरसा विकास मक्का – 1 व सुवन किस्म का मक्का लगायें. कम समय में होने वाले अरहर लगायें. सब्जी भी लगायें. 15-30 सितंबर : जल्द रोपे जाने वाली रबी फसल लगायें.

धान की खेती में उपजाये जाने वाले तरीके

अगर धान का बिचड़ा बोने में 15 जुलाई से अधिक देरी हो तो कम अवधि वाली धान की किस्म का चयन करें, जो 85 से 100 दिन में तैयार हो जाये.

डॉ एमएस यादव

डीन, बीएयू

शस्य विज्ञान विभाग से संबद्ध एवं पूर्व मुख्य वैज्ञानिक, शुष्क भूमि कृषि विभाग, बिरसा कृषि विश्वविद्यालय

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