कांग्रेस अपनी चुनावी राजनीति के सबसे ख़राब दौर से गुज़र रही है.
पश्चिम और उत्तरी भारत में पार्टी को विपक्ष की स्थिति में धकेल दिया गया है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी उसकी यही स्थिति है. और बिहार-यूपी में वह ग़ायब हो चुकी है. तमिलनाडु-बंगाल में वह भारतीय जनता पार्टी से भी पिछड़ गई है.
लेकिन कांग्रेस का नेतृत्व, ख़ास तौर पर राहुल गांधी इससे चिंतित हों ऐसा कहीं से भी नज़र नहीं आ रहा.
वह तो अपनी बहन के परिवार के साथ यूरोप घूमने चले गए हैं. ऐसे में राजनीति में गंभीरता पूर्वक निवेश करने वाले कांग्रेसी आगबबूला होंगे ही.
लेकिन राहुल गांधी को राजनीति और पार्टी में रुचि ही नहीं है. न वह उत्साह दिखाते हैं और न काम करने की इच्छा दर्शाते हैं. ऐसा क्यों है कि गांधी परिवार पराजय में भी संतुष्ट नज़र आता है?
कांग्रेस की स्थिति और राहुल गांधी पर आकार पटेल का लेख
क्या राहुल गांधी को उस संकट की भयावहता का अंदाज़ा है जो नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस के लिए खड़ा किया है?
अगर ऐसा है तो इस ‘युवराज’ के क्रियाकलापों में वह ज़रा भी नज़र नहीं आता. कांग्रेस में असुरक्षा, नाराज़गी और विद्रोह घर करने लगे हैं (उधर अपनी पार्टी पर मोदी की मज़बूत पकड़ से यह अंतर और तीखा नज़र आता है) तो ऐसे वक़्त में इसके नेता कहां हैं?
हालिया ख़बरों में कहा गया है कि वह अपनी बहन प्रियंका और उनके परिवार के साथ यूरोप में छुट्टियां मनाने गए हैं.
कुछ लोगों को इस बात पर अचरज हो सकता है, क्योंकि विपक्ष में होने और सुर्खि़यों से बाहर होने के बावजूद कांग्रेस को प्रेस में नकारात्मक प्रचार ही मिल रहा है.
लेकिन हम ऐसे किसी व्यक्ति से क्या उम्मीद कर सकते हैं जो पार्टी के इतिहास में सबसे ख़राब चुनाव प्रदर्शन करने के बाद बाली जाकर आराम फ़रमाने लगे.
लेकिन जो कांग्रेसी इस भयावह हादसे से सन्न रह गए थे उनके लिए यह परिदृश्य दिन-ब-दिन डरावना होता जा रहा है.
महाराष्ट्र में चुनाव इस बात की पुष्टि कर देंगे कि पार्टी अब अपरिवर्तनीय पतन की ओर अग्रसर है. अपरिवर्तनीय इसलिए नहीं कि क़िस्मत ही ऐसी है, बल्कि इसलिए कि इस पतन को रोकने की कोई कोशिश नहीं की जा रही है.
कांग्रेस की दुर्गति
पूरे पश्चिम और उत्तरी भारत में पार्टी को स्थाई रूप से विपक्ष की स्थिति में धकेल दिया गया है. गुजरात में यह पिछले 30 साल में एक भी चुनाव नहीं जीती है (पिछली बार यह राजीव गांधी के नेतृत्व में 1984-85 में जीती थी).
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी यह इसी स्थिति में है, जहां मौजूदा विधानसभा का कार्यकाल ख़त्म होते-होते इसे सत्ता से बाहर हुए 15 साल हो जाएंगे.
बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे दो महत्वपूर्ण राज्यों में यह पहले ही महत्वहीन हो चुकी है, जहां भाजपा ने शानदार ढंग से अपनी वापसी की है. और तो और तमिलनाडु और बंगाल में भी यह भाजपा से पिछड़ गई है.
महाराष्ट्र में जहां यह आज तक के इतिहास में सिर्फ़ एक बार हारी है, इस साल के अंत में होने वाले चुनावों में यह बुरी तरह मार खाने वाली है और इसी तरह दिल्ली में भी.
कांग्रेस के लिए यह राष्ट्रव्यापी संकट है और अपनी हालत सुधारने के लिए इसे महीनों तक लगातार और ध्यान लगाकर मेहनत करनी होगी.
राहुल की अरुचि
लेकिन, जैसा कि मैंने कहा, क्या कहीं से भी ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि राहुल गांधी काम में जुटे हुए हैं.
हफ़्तों तक राहुल यह मांग करते रहे कि कांग्रेस को लोकसभा में विपक्ष के नेता का पद दिया जाए. आख़िर वह इसे चाहते ही क्यों हैं?
ईमानदारी से कहूं तो मुझे यह समझ नहीं आता कि कांग्रेस इस पद का करेगी क्या?
राहुल राजनीति और पार्टी में इतनी कम रुचि लेते हैं (संसद में उनकी उपस्थिति उनकी अरुचि का एक बहुत अच्छा उदाहरण है) कि उनका ऐसी मांगें करना औपचारिकता से ज़्यादा कुछ नहीं लगता.
अगर मोदी झुकते हैं (जो अकल्पनीय बात लगती है) और कांग्रेस को यह विशुद्ध रस्मी पद भेंट कर देते हैं तो भी गांधी परिवार के रवैये में कोई बदलाव नहीं आने वाला.
कांग्रेसियों में आक्रोश
सैकड़ों कांग्रेसियों ने चुनावों में करोड़ों रुपये लगाए और हार गए, कई की तो ज़मानत भी ज़ब्त हो गई. ऐसे लोग जिन्होंने राजनीति में गंभीरता पूर्वक निवेश किया है, जिनके लिए यह शौक़िया नहीं है, वे पार्टी नेतृत्व पर आगबबूला होंगे.
वह यह सोच रहे होंगे कि क्या हारने के लिए और ज़्यादा पैसा ख़र्च करना सही रहेगा. उन्हें यह यक़ीन दिलाए जाने की ज़रूरत है कि कांग्रेस फिर से अपने पैरों पर खड़ी हो सकती है.
और ऐसा किए जाने के संकेत उन्हें सिर्फ़ राहुल गांधी से मिल सकते हैं और हमें अभी तक ऐसे संकेत नहीं दिख रहे हैं कि ऐसा हो रहा है.
भारतीय राजनीति में नेतृत्व के लिए मूल्यों की बहुत ज़रूरत नहीं होती और न ही बहुत बुद्धिमत्ता चाहिए होती है. इसके लिए सिर्फ़ दो ही चीज़ें चाहिए होती हैः उत्साह और कड़ी मेहनत.
राहुल गांधी ज़रा भी उत्साह नहीं दिखाते और न ही काम करने की इच्छा दर्शाते हैं. इस हफ़्ते एक टीवी चैनल में बहस के दौरान मैंने यह बात कही और कांग्रेस प्रवक्ता को बुरा लग गया.
मोदी का अथक परिश्रम
उन्होंने कहा कि राहुल गांधी ने प्रचार के दौरान इतनी सारी चुनावी रैलियों में हिस्सा लिया (जैसे कि वह अपनी पार्टी पर कोई एहसान कर रहे हों).
शायद उन्होंने किया हो, लेकिन फिर भी, यह भी कहा जाना चाहिए कि यह मोदी के मुक़ाबले आधी ही थीं.
लोकसभा चुनावों को जीतने के लिए मोदी कोई बहुत कमाल का आइडिया नहीं लाए थे या जादू की छड़ी नहीं घुमाई थी.
चुनावों के दौरान विश्वसनीय और निरपेक्ष विद्वान ‘गुजरात मॉडल’ पर लगातार सवाल उठाते रहे. लेकिन यह मोदी का दृढ़ निश्चय, संकल्प और अथक परिश्रम ही था जिसने उन्हें सफल बनाया.
वह खेल को इस तरह खेले जैसे इसमें उनका कुछ लगा हुआ हो. गांधी परिवार की तरह नहीं. गांधी परिवार तो पराजय में भी काफ़ी संतुष्ट लगा.
उनके बर्ताव से मुझे आख़िरी मुग़लों की याद आ गई, जो अपने हाथी और परिवार की चांदी को ख़ुशी-ख़ुशी बेच रहे थे ताकि उनके जीर्ण-शीर्ण महल और उच्च पदवियां उनके पास बनी रहें.
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