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एंबेसडर की विदाई पर आंसू न बहाएं!

होरमज़्द सोराबजी एडिटर, ऑटोकार इंडिया भारत की पहली कार एंबेसडर का उत्पादन गिरती हुई मांग के चलते हाल में रोक दिया गया. मॉरिस ऑक्सफ़ोर्ड के डिज़ाइन पर बनी यह कार 1957 से अब तक बहुत कम बदली है. हालांकि मोटरिंग पत्रकार होरमज़्द सोराबजी इसकी विदाई से इतने दुखी नहीं हैं. उनका कहना है एंबेसडर भारत […]

भारत की पहली कार एंबेसडर का उत्पादन गिरती हुई मांग के चलते हाल में रोक दिया गया. मॉरिस ऑक्सफ़ोर्ड के डिज़ाइन पर बनी यह कार 1957 से अब तक बहुत कम बदली है. हालांकि मोटरिंग पत्रकार होरमज़्द सोराबजी इसकी विदाई से इतने दुखी नहीं हैं. उनका कहना है एंबेसडर भारत की नियंत्रित और दमघोंटू अर्थव्यवस्था में जितनी बुराइयां थीं, उन सबका प्रतीक थी.

इस कार के साथ कई पीढ़ियां बड़ी हुईं. कई के लिए यह टैक्सी थी और अमीरों के लिए पारिवारिक कार. इसने प्रधानमंत्रियों, सांसदों और नौकरशाहों को सवारी कराई. यह असल में भारत की राष्ट्रीय कार थी, जिसने दशकों तक सड़कों पर राज किया.

यह सभी के काम आने वाली कार थी जिसमें छह यात्रियों के लिए ज़रूरी जगह थी- मगर यह सेडान की पिछली सीट ही थी, जो इसका तुरुप का पत्ता था.

आकर्षक स्टाइल और बेहतर गति की उम्मीद में आधुनिक कारों की छतें नीची बनाई जाती हैं. वे एंबेसडर की ऊंची सीटों और सिर के ऊपर पर्याप्त जगह का मुक़ाबला नहीं कर सकतीं.

बुराई का प्रतीक

इसमें कोई शक नहीं कि एंबेसडर की मौत एक युग का अंत है. पर मुझे लगता है कि इस युग को भूल जाना ही अच्छा है.

भारत की नियंत्रित और दमघोंटू अर्थव्यवस्था में जितनी बुराइयां थीं, एंबेडसर उन सबका प्रतीक थी. कारनिर्माता सरकार की मर्ज़ी के बगैर न तो कारों के दाम बढ़ा सकते थे, न ज़्यादा कारें बना सकते थे. वो तकनीकी या सामान भी आयात नहीं कर सकते थे. उन्हें यहीं विकसित छिटपुट उपकरणों पर भरोसा करना पड़ता था.

खरीदारों पर घटिया क्वालिटी वाली कारें लाद दी गईं थी, जो लगातार धोखा देती थीं. इसके बावजूद एक कार खरीदने के लिए आपको आठ-आठ साल का इंतज़ार करना पड़ता था.

इसके भारी स्टीयरिंग घुमाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती थी. इसे दूसरे से तीसरा गियर बदलना एक कला थी.

कार रोकने के लिए ज़बर्दस्त ताक़त की ज़रूरत पड़ती थी- आपको ब्रेकों पर तक़रीबन खड़ा होना होता था. और हैंडब्रेक? वह शायद ही काम करता था.

चुटकुला

एंबेसडर की कुछ और अनोखी विशेषताएं थीं. इंडिकेटर कंट्रोल को स्टीयरिंग हब के ऊपर लगाया गया था और फ़्लोर पर लगे एक बटन से हेडलाइट का डिपर चलता था.

90 के दशक में जब मैंने एक ऑटोमोबाइल पत्रिका के लिए एंबेसडर की पड़ताल की तो वह तब भारत की सबसे तेज़ रफ़्तार कार थी और उसने अपने दौर की फ़िएट और मारुति सुज़ूकी को पीछे छोड़ दिया था. यह बात और थी कि उसे रुकने के लिए एयरपोर्ट जैसा रनवे चाहिए होता था.

आधुनिक कारों ने एंबेसडर ख़रीदने की कोई वजह नहीं छोड़ी है, सिवाय इसके कि आपकी गराज में ऑटोमोटिव इतिहास का एक हिस्सा मौजूद रहे.

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