संदीप कुमार
हल्दी एक महत्वपूर्ण मसाले वाली फसल है जिसका उपयोग औषिध से लेकर अनेकों कार्यो में किया जाता है. इसके गुणों का जितना भी बखान किया जाए थोड़ा ही है, क्योंकि यह फसल गुणों से परिपूर्ण है इसकी खेती आसानी से की जा सकती है तथा कम लागत तकनीक को अपनाकर इसे आमदनी का एक अच्छा साधन बनाया जा सकता है. यदि किसान भाई इसकी खेती ज्यादा मात्र में नहीं करना चाहते तो कम से कम इतना अवश्य करें जिसका उनकी प्रति दिन की हल्दी की मांग को पूरा किया जा सकें. निम्नलिखित शास्त्र वैज्ञानिक पद्धतियों को अपना कर हल्दी की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है.
भूमि का चुनाव
हल्दी की खेती बलुई दोमट या मटियार दोमट मृदा में सफलतापूर्वक की जाती है. जल निकास की उचित व्यवस्था होना चाहिए. यदि जमीन थोड़ी अम्लीय है तो उसमें हल्दी की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है.
भूमि की तैयारी
हल्दी की खेती हेतु भूमि की अच्छी तैयारी करने की आवश्यकता है क्योंकि यह जमीन के अंदर होती है जिससे जमीन को अच्छी तरह से भुरभुरी बनाया जाना आवश्यक है. मोल्ड बोल्ड प्लाऊ से कम से कम एक फीट गहरी जुताई करने के बाद दो तीन बार कल्टीवेटर चलाकर जमीन को अच्छी तरह से तैयार कर लेना चाहिए और इसमें पाटा चलाकर जमीन को समतल कर लें एवं बड़े ढ़ेलो को छोटा कर लेना चाहिए.
खाद तथा उर्वरक
20 से 25 टन हेक्टेयर के मान से अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद का उपयोग करना चाहिए क्योंकि गोबर की खाद डालने से जमीन अच्छी तरह से भुरभुरी बन जायेगी तथा जो भी रासायनिक उर्वरक दी जायेगी उसका समुचित उपयोग हो सकेगा. इसके बाद 100-120 किलो ग्राम नत्रजन 60-80 किलोग्राम स्फुर 80-100 तथा किलोग्राम हेक्टेयर के मान से पोटाश का प्रयोग करना चाहिए. हल्दी की खेती हेतु पोटाश का बहुत महत्व है जो किसान इसका प्रयोग नही करते है हल्दी की गुणवत्ता तथा उपज दोनों ही प्रभावित होती है. नाइट्रोजन की एक चैथाई मात्र तथा स्फुर एवं पोटाश की पूरी मात्र बोनी के समय दी जानी चाहिए एवं नाइट्रोजन की बची मात्र की दो भागों में बांटकर पहली मात्र बुआई के 40 से 60 दिनों बाद तथा दूसरी मात्र 80 से 100 दिनों बाद देना चाहिए.
फसल चक्र
हल्दी की सफल खेती के लिए उचित फसल चक्र का अपनाना अति आवश्यक है. इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि हल्दी की खेती लगातार उसी जमीन पर न की जावें क्योंकि यह फसल जमीन से ज्यादा से ज्यादा पोषक तत्वों को खींचती है जिससे दूसरे साल उसी जमीन में इसकी खेती नहीं करें तो ज्याद अच्छा होगा. सिंचित क्षेत्रों में मक्का, आलू, मिर्च, ज्वार, धान, मूंगफल्ली आदि फसलों के साथ फसल चक्र अपनाकर हल्दी की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है.
विकसित किस्में
मसाले वाली किस्म, पूना, सोनिया, गौतम, रशिम, सुरोमा, रोमा, क्र ष्णा, गुन्टूर, मेघा, हल्दा1, सुकर्ण, सुगंधन तथा सी.ओ.1 आदि प्रमुख जातियां है जिनका चुनाव किसान कर सकते है. थोड़ी सी मात्र यदि एक बार मिल जाती है तो फिर अपना बीज तैयार किया जा सकता है.
बुआई
जिन किसान भाइयों के पास पानी की पर्याप्त सुविधा है वे अप्रैल के दूसरे पखवाड़े से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक हल्दी को लगा सकते है. लेकिन जिनके पास सिंचाई सुविधा का पर्याप्त मात्र में अभाव है वे मानसून की बारिश शुरू होते ही हल्दी लगा सकते है किंतु खेती की तेयारी पहले से ही करके रखना चाहिए. जमीन अच्छी तरह से तैयार करने के बाद पांच-सात मीटर, लंबी तथा दो-तीन मीटर चौड़ी क्यारियां बनाकर 30 से 45 सेंटी मीटर कतार से कातर तथा 20 – 25 सेंटी मीटर पौध से पौध की दूरी रखते हुए चार-पांच सेंटीमीटर गहराई पर गाठी कंदो को लगाना चाहिए. इस तरह से हल्दी लगाने से 12 – 15 क्विंटल है. गाठों की जरूरत पड़ती है.
सिंचाई
हल्दी में ज्यादा सिंचाई की आवश्यकता नहीं है लेकिन यदि फसल गर्मी में ही बुवाई जाती है तो वर्षा प्रारंभ होने के पहले तक चार-पांच सिंचाई की आवश्यकता पड़ती हैं. मानसून आने के बाद सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है. किंतु यदि बीच में वर्षा नहीं होती या कि सुखा पड़ जाता है तथा अक्टूबर के बाद यदि बारिश नहीं हो पाती है तो ऐसी परिस्थिति में 20-25 दिन के अंतराल पर सिंचाई करना आवश्यक हो जाता है. नवम्बर माह में पत्तियों का विकास तथा धनकंद की मोटाई बढ़ना आरंभ हो जाता है तो उस समय उपज ज्यादा प्राप्त करने के लिए मिट्टी चढ़ाना आवश्यक हो जाता है जिससे कंदो का विकास अच्छा होता है तथा उत्पादन में वृद्धि हो जाती है.
जल निकास
जल निकास का उचित प्रबंध करना चाहिए अन्यथा हल्दी की फसल पर विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा पौधे एवं पत्तियां पीली पड़ने लगती है अत: समय-समय पर वर्षा के ज्यादा पानी को खेत से बाहर निकालने की उचित व्यवस्था होनी चाहिए.
खरपतवार नियंत्रण
हल्दी की अच्छी फसल होने के लिए दो-तीन निराई करना आवश्यक हो जाता है. पहली निराई बुआई के 80-90 दिनों बाद तथा दूसरी निराई इसके एक माह बाद करना चाहिए किन्तु यदि खरपतवार पहले ही आ जाते है तथा ऐसा लगता है कि फसल प्रभावित हो रही है तो इसके पहले भी एक निराइ की जा सकती है. इसके साथ ही साथ समय-समय पर गुड़ाई भी करते रहना चाहिए जिससे वायु संचार अच्छा हो सके तथा हल्दी की फसल का पूर्ण विकास हो सके जो कि उत्पादन से सीधा संबंध रखता है.
कीट नियंत्रण
आम तौर पर हल्दी में कीड़ो की कोरइ ज्यादा समस्या नहीं देखी गई है कहीं- कहीं पर बेधक तथा रस चुसने वाले कीटों की समस्या आती है. तना बेधक के लिए फोरेट थीमेट दो में से कोई एक दवा का 10 किलो हेक्टेयर के हिसाब से प्रयोग किया जा सकता है.
कटाई
मई- जून में बोई गई फसल फरवरी माह तक खोदने लायक हो जाती है इस समय धन कंदो का विकास हो जाता है और पत्तियां पीली पड़कर सूखने लगती है तभी समझना चाहिए कि हल्दी पक चुकी है तथा अब इसकी कटाइ या खोदाइ की जा सकती है. पहले पौधो के दराती हसिए से काट देना चाहिए तथा बाद में हल से जुताई करके हल्दी के कंदों को आसानी से निकाला जा सकता है जहां पर भी जरूरत समझी जाए कुदाली का भी प्रयोग किया जा सकता है. हल्दी की अगेती फसल सात-आठ आठ-नौ माह तथा देर से पकने वाली 9-10 माह में पककर तैयार होती है.
उपज
जहां पर उपरोक्त मात्र में उर्वरक तथा गोबर की खाद का प्रयोग किया गया है तथा सिचिंत क्षेत्र में फसल बोई गई है तो 50-100 किवंटल प्रति हेक्टेयर तथा असिंचित क्षेत्रों से 50-100 किवंटल प्रति हेक्टेयर कच्ची हल्दी प्राप्त की जा सकती है. यह ध्यान रहे कि कच्ची हल्दी को सूखाने के बाद 15-25 प्रतिशत ही रह जाती है.
उपचार
हल्दी को खोदते समय पूरी तौर से सावधानी बरतनी चाहिए जिससे धन कन्दो की कम हानि हो और समूची गाठें निकाली जा सकें गाठों को पहले छोटा-छोटा कर लिया जाता है इसके बाद बड़े-बड़े कड़ाहों में डालकर इसको उबाला जाता है. उबालते समय थोड़ा गोबर या फिर हल्दी की पत्तियों को ही पानी के साथ डालकर उबाला जाता है. ऐसा करने से रंग कुछ गहरा हो जाता है तथा हल्दी की गुणवता बढ़ जाती है जिससे बाजार में भाव अच्छा मिलता है. लगभग तीन-चार घंटे पकाने के बाद गाठें अंगुलियों की बीच दबाने पर आसानी से दब जाती है तो कड़ाहों से निकाल कर सूखने के लिए धूप में रखा जाता है जिससे गाठें अच्छी तरह से सूख जावें. इसके बाद किसी खुरदूरे चीज से गाठों को रगड़ कर साफ कर लिया जाता है बड़े पैमाने पर यह कार्य मशीनों पर किया जाता है और इस तरह से हल्दी की गाठें तैयार हो जाती है.