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योगेंद्र यादव ने कहा,अब पुरानी राजनीति नहीं चलेगी

दिल्ली ब्यूरो : 2014 के आम चुनाव के नतीजों के बाद सबसे ज्यादा चर्चा इस बात की है कि अब भारतीय राजनीति का स्वरूप क्या होगा. क्या अब भाजपा पूरे देश में एकछत्र राज करेगी या फिर कोई दल अथवा समूह इसके सामने चुनौती खड़ी कर पायेगा. चुनौती खड़ी करनेवाली ताकत कौन होगी- कांग्रेस, वाम […]

दिल्ली ब्यूरो : 2014 के आम चुनाव के नतीजों के बाद सबसे ज्यादा चर्चा इस बात की है कि अब भारतीय राजनीति का स्वरूप क्या होगा. क्या अब भाजपा पूरे देश में एकछत्र राज करेगी या फिर कोई दल अथवा समूह इसके सामने चुनौती खड़ी कर पायेगा. चुनौती खड़ी करनेवाली ताकत कौन होगी- कांग्रेस, वाम दल, क्षेत्रीय दल, आम आदमी पार्टी या फिर कोई नया संगठन. इन सवालों का जवाब खोजने की कोशिश में ‘प्रभात खबर’ ने राजनीतिक विश्‍लेषक व ‘आप’ नेता योगेंद्र यादव से लंबी बातचीत की.

योगेंद्र 2014 की ‘चुनावी लहर’ को ‘मोदी लहर’ नहीं मानते. उनकी नजर में इस लहर का सबसे बड़ा कारक था, यूपीए-2 के राज में पैदा हुआ नैतिक और राजनीतिक शून्य. हालांकि, नरेंद्र मोदी की मजबूत नेता की छवि ने भी इसमें भूमिका निभायी, क्योंकि लोग मनमोहन सिंह के लचर व्यक्तित्व से आजिज थे. योगेंद्र इसे अच्छा मानते हैं कि भाजपा देश में आशा का संचार करने में सफल रही, पर आशंकित भी हैं कि कहीं ये आशाएं खोखली साबित न हों.

योगेंद्र इस बार के जनादेश में लंबे समय के लिए कांग्रेस का पतन देख रहे हैं. क्योंकि, अधिकतर राज्यों में कांग्रेस सत्ता से बेदखल है और विपक्ष की भूमिका नहीं निभा पा रही है. राष्ट्रीय स्तर पर वह विपक्षी पार्टी जरूर नजर आती है, पर यह उम्मीद नहीं है कि वह मोदी सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर पायेगी. वाम और ‘आप’ की राजनीति के बारे में योगेंद्र कहते हैं कि लेफ्ट की घिसी-पिटी राजनीति आज जन-आकांक्षाओं की वाहक नहीं बन पा रही है और अप्रासंगिक होती जा रही है.

‘आप’ वामपंथियों जैसे वैचारिक ढांचे से बंधना नहीं चाहती. 20वीं सदी की विचारधाराओं की गिरफ्त से मुक्त हुए बिना 21वीं सदी की राजनीति नहीं हो सकती. क्षेत्रीय दलों के बारे योगेंद्र कहते हैं कि उन राज्यों में क्षेत्रीय दलों को ज्यादा नुकसान पहुंचा है जहां जातीय राजनीति अपने चरम बिंदु पर पहुंचने के बाद अपनी प्रासंगिकता खो रही है.

योगेंद्र यादव का पूरा इंटरव्यू पढ़िए –

21वीं सदी में नहीं चल सकती 20वीं सदी की राजनीति

2014 के जनादेश से निकले विभिन्न राजनीतिक संदेशों की गहराई में उतरने के लिए जहां देशभर में बुद्धिजीवियों के बीच बहस का दौर जारी है, वहीं कई पार्टियां इस नतीजे से सबक हासिल करने के लिए आत्म-मंथन में जुटी हैं. भाजपा की इतनी बड़ी जीत और कांग्रेस की अप्रत्याशित हार के प्रमुख कारक क्या-क्या रहे, इस जनादेश के बाद कांग्रेस, वामपंथी, क्षेत्रीय दलों और आम आदमी पार्टी की राजनीति का भविष्य कैसा होगा, जैसे सवाल अब भी बहुत से लोगों के मन को मथ रहे हैं. ऐसे ही सवालों पर राजनीति के जाने-माने पारखी एवं ‘आप’ नेता योगेंद्र यादव से विस्तार से बात की हमारे विशेष संवाददाता रंजन राजन ने.

– 2014 के जनादेश को आप कैसे देखते हैं? क्या इसे आप ‘मोदी लहर’ का परिणाम मानते हैं?

‘चुनावी लहर’ का मतलब है चुनाव क्षेत्रों और राज्यों की सीमाओं को लांघ कर देश के बड़े इलाके में एक जैसा रुझान दिखना. नतीजे में जब भी ऐसी स्थिति दिखे, तो उसे हम ‘चुनावी लहर’ का नाम दे सकते हैं. जैसे 1971 में हुआ, 1977 में हुआ, 1984 में हुआ. इस लिहाज से 2014 के जनादेश को ‘चुनावी लहर’ कहना बिल्कुल सही होगा. यह सही है कि इस लहर में नरेंद्र मोदी की भी भूमिका है, लेकिन इसे ‘मोदी लहर’ मान लेना या ‘मोदी लहर’ की संज्ञा देना, इस चुनावी लहर के चरित्र को समझने में चूक होगी.

दरअसल, 2014 की ‘चुनावी लहर’ के तीन प्रमुख कारक हैं. पहला, जो शायद सबसे बड़ा कारक था, यूपीए-2 के राज ने देश में एक तरह का नैतिक और राजनीतिक शून्य पैदा कर दिया था. इसलिए जनता के मन में असंतोष नहीं, बल्कि गुस्सा घर कर गया था. लोग कह रहे थे कि यूपीए को छोड़ कर जो मर्जी सत्ता में आ जाये. दूसरा, इस गुस्से में लोग एक पुख्ता और जाना-पहचाना विकल्प भी ढूंढ रहे थे. इस लिहाज से भारतीय जनता पार्टी एक जानी-पहचानी पार्टी थी, पायदार दिखाई दे रही थी और लोगों को भरोसा था कि यह पार्टी देशभर में जीत हासिल कर सकती है, 272 के आंकड़े को छू सकती है, केंद्र में सरकार बना सकती है.

नरेंद्र मोदी इस चुनावी लहर के तीसरे कारक थे. उनका योगदान यह था कि उन्हें देश में एक मजबूत नेता के रूप में पेश किया गया. ऐसे में मोदी की छवि ने चुनावी रुझान को एक लहर में तब्दील कर दिया. मोदी की छवि में लोगों को वह शून्य भरने की संभावना दिखाई देने लगी. मनमोहन सिंह के लचर एवं कमजोर व्यक्तित्व के सामने लोग अगर एक मजबूत एवं निर्णायक व्यक्तित्व देखना चाह रहे थे, तो नरेंद्र मोदी की छवि ने उस कमी को पूरा किया. मोदी की छवि में लोगों को भविष्य के लिए आशा दिखाई दी. जिन-जिन बातों को लेकर लोगों के मन में एक कसक थी, वह पूरी होती दिखायी दी. ऐसा अकसर होता है कि इस तरह की किसी छवि में जो कोई व्यक्ति जो कुछ भी ढूंढ़ना चाहता है, ढूंढ़ लेता है.

– नरेंद्र मोदी ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान जो वादे किये हैं, उसके आधार पर बहुत से लोगों को लग रहा है कि देश में ‘अच्छे दिन’ बस आने ही वाले हैं. आप कितने आशान्वित हैं?

सपने देखना अच्छी बात है. जब कोई समूह या देश सपने देखता है, तो उससे उसका मनोबल बढ़ता है. उसकी ऊर्जा बढ़ती है. उसका मन बड़ा होता है. इसलिए अगर आज देश के एक बड़े वर्ग में आशा है, तो मैं न तो उस आशा से झगड़ना चाहूंगा और न ही उस आशा को पंचर करना चाहूंगा. अगर आज इस देश के लोगों को नरेंद्र मोदी में आस्था है, तो जनता में आस्था रखने के नाते मुङो उन लोगों का सम्मान करना सीखना चाहिए. हालांकि मुङो यह डर भी है कि लोगों की आशाएं कहीं खोखली न साबित हो. मुङो डर है कि कहीं नरेंद्र मोदी के कई दावे महज लफ्फाजी न साबित हों. हालांकि मैं चाहूंगा कि मैं इसमें गलत साबित होऊं.

मैं समझता हूं कि देश में अगर अच्छे दिन आ सकते हैं और हमारी पार्टी उसकी वाहक नहीं बनती है, तो इससे क्या फर्क पड़ता है. जो भी पार्टी वाहक बने, देश का भला हो यह बड़ी बात है.

– इस लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की अब तक की सबसे बड़ी एवं अप्रत्याशित पराजय के प्रमुख कारक क्या-क्या रहे?

इस बार के जनादेश को सिर्फ कांग्रेस की हार कहना अपर्याप्त होगा. उसकी यह हार अप्रत्याशित और बहुत गहरी ही नहीं थी, बल्कि साथ-ही-साथ यह दीर्घ काल में कांग्रेस के पतन का संकेत देती है. यूपीए की सरकार को दो मौके मिले. चूकि उसकी पहली बार की जीत भी अप्रत्याशित थी, इसलिए उस सरकार के विरुद्ध असंतोष उभरते-उभरते भी समय लगा. चूंकि यूपीए-1 की जीत अप्रत्याशित थी, इसलिए उसका आशा-निराशा का चक्र सामान्य सरकार की तरह नहीं चला. उस सरकार से आशा बंधनी देर से शुरू हुई और यूपीए की पहली सरकार खत्म होने तक भी आशा का माहौल बना ही रहा. लेकिन यूपीए-2 की शुरुआत होते ही निराशा आरंभ हो गयी. यह निराशा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के चलते चरम सीमा पर पहुंची और 2014 का चुनाव आते-आते नैराश्य में बदल गया.

जनता कांग्रेस से निराश ही नहीं थी, जनता को कांग्रेस से असंतोष ही नहीं था, बल्कि उसमें गुस्सा घर कर गया था. लोग किसी भी सूरत में कांग्रेस से छुटकारा पाना चाह रहे थे. सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की ईमानदारी की चमक उतर चुकी थी. लोग इन्हें एक भ्रष्ट सरकार के मुखौटे के रूप में देखने लगे थे. राजनीतिक रूप से इस सरकार में किसी दिशा बोध का सर्वथा अभाव था. वह चाहे कश्मीर का मसला हो या तेलंगाना का, कांग्रेस सरकार एक के बाद एक आत्मघाती कदम उठाती चली गयी. सरकारी कामकाज के मामले में भी सबकुछ ठहर गया था. एक तरफ आम आदमी परेशान था, तो दूसरी तरफ उद्योगपति और पूंजीपति भी निराश हो गये थे. ऐसे में कांग्रेस की ऐतिहासिक हार अप्रत्याशित नहीं थी. लेकिन कांग्रेस का आंकड़ा 50 से भी नीचे गिर जायेगा, इसकी कल्पना मैंने भी नहीं की थी.

कांग्रेस की यह अभूतपूर्व हार एक सामान्य चुनावी हार नहीं है, कि पार्टी इससे पांच साल में उबर जायेगी. यह कांग्रेस के पतन का एक नया दौर हो सकता है. 1989-91 के दौरान कांग्रेस इस देश में राजनीति की धुरी की जगह कई राष्ट्रीय पार्टियों में से एक पार्टी बन गयी थी. उसके बाद से जिस-जिस राज्य में कांग्रेस एक बार बैठ गयी, वहां वापस खड़ी नहीं हो पायी. उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु इसके बड़े उदाहरण हैं. मुङो लगता है कि इस चुनाव के बाद देश की जो मध्य पट्टी है, कांग्रेस उसमें बहुत बड़े संकट में आ सकती है. गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओड़िशा में कांग्रेस बीते 15 साल से विपक्ष में रही है, लेकिन किसी भी तरह का विपक्ष देने में असमर्थ रही है. इस बार कांग्रेस का इस सारी पट्टी से सफाया होने के बाद संभव है कि कांग्रेस इस इलाके में बैठ जाये और फिर कभी उबर नहीं पाये. यही दिल्ली और हरियाणा में भी संभव है. राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस विपक्ष में तो है, लेकिन नरेंद्र मोदी के खिलाफ सड़क पर विपक्ष की भूमिका निभा पायेगी, इसमें मुङो संदेह है. और अगर ऐसा हुआ तो राष्ट्रीय स्तर पर भी कांग्रेस के अप्रासंगिक होने की संभावना पैदा हो गयी है.

– कुछ विश्लेषक कह रहे हैं कि ‘आप’ के चुनाव मैदान में उतरने से भाजपा विरोधी मतों का बिखराव बढ़ा, जिससे भाजपा को बहुमत पाने में सुविधा हुई. दूसरी ओर यह भी कहा जा रहा है कि आप ने कांग्रेस के मुसलिम वोट बैंक में सेंध लगायी, जिससे उसकी सबसे बड़ी हार हुई. आप इन विचारों को कैसे देखते हैं?

यह बहुत ही सतही समझ है. कौन किसके वोट काट रहा है, यह समझने के लिए हमें यह नहीं पूछना चाहिए कि उस वोटर ने पिछले चुनावों में किसे वोट दिया था. हमें यह प्रश्न पूछना चाहिए कि वह वोटर अगर आम आदमी पार्टी मैदान में नहीं होती तो किसे वोट देता. यह कांग्रेस की खुशफहमी है कि जिन लोगों ने आम आदमी पार्टी को वोट दिया, वे ‘आप’ के नहीं रहने पर कांग्रेस को वोट देते. हकीकत यह है कि उनमें से काफी लोगों ने पिछली बार कांग्रेस को भले ही वोट दिया हो, लेकिन उनमें से एक बड़ा वर्ग इस बार के चुनाव में कोई विकल्प नहीं होने पर झक मार कर भाजपा को ही वोट देता. इसीलिए आम आदमी पार्टी से भाजपा जितनी बौखलायी हुई थी, उतनी तो कांग्रेस भी नहीं बौखलायी थी.

दिल्ली विधानसभा चुनाव पर गौर करें. अगर उसमें आम आदमी पार्टी चुनाव नहीं लड़ती, तो जाहिर है भाजपा को बहुत बड़ी सफलता मिलती. अब तो दिल्ली का राजनीतिक नक्शा पूरी तरह बदल गया है और कम-से-कम दिल्ली के बारे में तो हमें यही कहना चाहिए कि वहां कांग्रेस ही आम आदमी पार्टी के वोट काट रही है. अगर कांग्रेस ने एक-दो संसदीय क्षेत्रों में वोट न काटा होता, तो शायद लोकसभा चुनाव में भी दिल्ली में ‘आप’ को एक-दो सीटें मिल जाती. लेकिन राजनीति का गुणा-भाग केवल इस आधार पर नहीं किया जा सकता. मैं समझता हूं कि अगर आम आदमी पार्टी चुनाव में नहीं होती, तो देश के लिए, देश के भविष्य की दिशा ढूंढनेवाले काफी लोगों का मन नैराश्य में डूब जाता. नरेंद्र मोदी में देश का भविष्य न देखनेवाले लोगों को इस चुनाव में देश के भविष्य के लिहाज से कुछ नजर ही नहीं आता. आम आदमी पार्टी ने इस देश के आदर्शवादियों, और खास कर देश के युवाओं, के मन में देश के भविष्य के प्रति एक उम्मीद जगायी है. यह किसी भी चुनावी गणित से बड़ी बात है.

– इस बार के जनादेश में वामपंथी दलों की जमीन और खिसकी है. अब वाम दलों की राजनीति की दशा-दिशा और भविष्य की चुनौतियों को आप कैसे देखते हैं?

पिछले दो-तीन दशकों से लेफ्ट की राजनीति धीरे-धीरे अप्रासंगिक होती जा रही है. लेफ्ट राष्ट्रीय ताकत की जगह पर एक क्षेत्रीय ताकत में तो पहले ही बदल चुका था, अब उन क्षेत्रों से भी धीरे-धीरे फेल होता जा रहा है. पश्चिम बंगाल में लेफ्ट खत्म भले ही न हो रहा हो, लेकिन ममता बनर्जी से हार के बाद पहले जैसा दबदबा कायम नहीं कर सकता. केरल में तो एलडीएफ एक वामपंथी शक्ति बचा ही नहीं. उधर, मानिक सरकार पुरानी राजनीतिक पूंजी और अपने व्यक्तिगत प्रताप से चुनाव जीत रहे हैं.

हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि जनाभिमुखी और गरीब व्यक्ति के सपनों की राजनीति की जगह नहीं बची है. मैं मानता हूं कि ऐसी राजनीति भारत के लोकतंत्र के केंद्र में है और रहेगी. लेकिन मैं मानता हूं कि लेफ्ट की ‘ऑर्थोडॉक्स राजनीति’ आज जन आकांक्षाओं का वाहक नहीं बन पा रही है. जनता की आकांक्षाओं को एक नयी राजनीति की तलाश है. पिछले दो-तीन दशकों के जनांदोलन इसी तलाश का परिणाम हैं. और मैं चाहता हूं कि आम आदमी पार्टी भी इसी तलाश का वाहक बने.

– आप विकल्प की बात करते हैं, तो आपकी आर्थिक नीतियां कांग्रेस और भाजपा से किस तरह अलग हैं? क्या इस चुनाव में वामपंथी दलों की ओर से खाली हुई राजनीतिक जमीन को भरने की दिशा में आपकी पार्टी बढ़ेगी?

किसी भी नयी राजनीति की यह नियति होती है कि उसे शुरुआत में पुराने चश्मे से ही देखा जाता है. हमारे साथ भी यही हो रहा है. हम स्थापित राजनीतिक खांचों के बाहर अपनी राजनीति स्थापित कर रहे हैं, लेकिन हमारे हर कदम को अब भी उन्हीं पुराने राजनीतिक खांचों में फिट करने की कोशिश की जाती है. मैंने बार-बार कहा है कि हमारी राजनीति न तो लेफ्ट की है, न ही राइट की.

आर्थिक नीतियों को लेकर इस देश में जो जड़ता आयी है, आर्थिक नीतियों के बारे में सोच जिस तरह से दो खांचों में बंध गयी है, हम उससे बाहर निकलना चाहते हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि हम सामाजिक न्याय या आर्थिक समता के विरुद्ध हैं. इस देश का संविधान समता, न्याय और बंधुत्व की बुनियाद पर ही खड़ा है. लेकिन हम अंतिम व्यक्ति की भलाई को किसी पुराने वैचारिक खांचे से बांध कर नहीं देखते. हमारा साध्य है अंतिम व्यक्ति के हाथ में संसाधन पहुंचना, लेकिन हमारे साधन और औजार किसी बने-बनाये मॉडल से नहीं आते. अंतिम इनसान की खुशहाली अगर सरकार के दखल देने से बेहतर होती है, तो हम दखल के पक्ष में हैं और अगर सरकार के हाथ खींचने से बेहतर होती है, तो हम हाथ खींचने के पक्ष में हैं.

कुछ सेक्टर हैं- जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य-जहां हम सरकार की पहले से ज्यादा दखल चाहते हैं, लेकिन व्यापार और उद्योग में हम चाहेंगे कि सरकार कुछ न्यूनतम नियमन के अलावा बहुत ज्यादा दखलंदाजी न करे. यह बात चूंकि नयी है, इसलिए लोगों को अटपटी लगती है और वे कहते हैं कि हमारे विचार स्पष्ट नहीं हैं. लेफ्ट के साथी सोचते हैं कि हम अभी उनकी तरह हो नहीं पाये हैं. सच यह है कि हम उस तरह के वैचारिक ढांचे से बंधना ही नहीं चाहते. बीसवीं सदी की विचारधाराओं के गिरफ्त से मुक्त हुए बिना इक्कीसवीं सदी के विचारों को, इक्कीसवीं सदी की राजनीति को स्थापित नहीं किया जा सकता.

– इस जनादेश के बाद विरोध की राजनीति को आप गैर-कांग्रेसवाद से गैर-भाजपावाद में शिफ्ट होते देख रहे हैं? क्या विरोध की राजनीति को दिशा देने के लिए आम आदमी पार्टी अन्य दलों के बीच तालमेल का प्रयास करेगी, या चुनाव से पहले की एकला चलो की नीति पर ही चलती रहेगी?

नरेंद्र मोदी की राजनीति के विरोध के दो अलग-अलग स्वरूप होंगे और इसकी दो अलग-अलग जमीन होगी. इसमें कोई शक नहीं है कि संसद के भीतर गैर-भाजपाई ताकतें किसी न किसी किस्म का गैर-भाजपावाद चलाने की कोशिश करेंगी. यह कोई नयी चीज नहीं है. पिछले तीस साल में कांग्रेस, वामपंथी दलों और कुछ अन्य संगठनों ने मिल कर इस तरह की कोशिशें कई बार की हैं.

लेकिन इसके अनुभव ने हमें सिखाया है कि भाजपा के विरोध के लिए मतलबी गंठजोड़ बनाने से कुछ हासिल नहीं होता, बल्कि इससे भाजपा और ज्यादा मजबूत होती है. इस प्रयोग ने यह भी सिखाया है कि भाजपा विरोध के नाम पर सेक्युलर खेमा बनाने की कोशिश भी एक ढकोसला बन कर रह जाती है. कांग्रेस, राजद, सपा सरीखे पार्टियों का सेक्युलरिज्म मुसलमानों को बंधक बनाये रखने का षड्यंत्र है. जनता इसे खारिज कर चुकी है. मुङो नहीं लगता कि इस तरह के किसी प्रयास से भाजपा का विकल्प बनाने में कोई मदद मिलेगी. संसद के भीतर एकाध बार कुछ छोटी सफलता मिल सकती है, लेकिन इससे भाजपा की राजनीति का मुकाबला करने की ऊर्जा खड़ी नहीं हो सकती.

आम आदमी पार्टी कांग्रेस विरोध या भाजपा विरोध के नाम पर अवसरवादी गंठबंधनों के खिलाफ रही है. हमारे लिए भाजपा विरोध का मतलब संसद में भाजपा के खिलाफ कभी-कभार बोल देना या उसके कुछ कानूनों का विरोध करना भर नहीं होगा. हमारे लिए भाजपा विरोध का मतलब होगा उस तरह की राजनीति का विरोध करना, जिसकी प्रतीक आज भाजपा है. हमारे लिए भाजपा के विरोध का मतलब होगा हर किस्म के भ्रष्टाचार का विरोध करना, हर किस्म की सांप्रदायिकता का विरोध करना, देश में लोकतंत्र के हनन का विरोध करना और एक नंगे किस्म के पूंजीवाद का विरोध करना. आज भाजपा इन खतरों का प्रतीक है, लेकिन सिर्फ भाजपा इस अपराध की दोषी नहीं है.

इसमें देश का पूरा सत्ता प्रतिष्ठान शामिल रहता है. इसलिए विपक्ष की राजनीति हमारे लिए ऐसी राजनीति नहीं हो सकती कि हम सिर्फ भाजपा के भ्रष्टाचार के बारे में बोलें, और कांग्रेस के भ्रष्टाचार पर चुप हो जायें. सिर्फ भाजपा की सांप्रदायिकता के बारे में बोलें और सपा या एमआइएम (मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन) की सांप्रदायिकता पर मौन साध लें. विपक्ष की राजनीति हमारे लिए केवल संसद तक सीमित नहीं रहेगी. मैं समझता हूं कि अगले पांच साल तक मोदीमय भाजपा के विरोध का असली मंच संसद नहीं होगा, बल्कि इस लड़ाई को सड़क और मैदान पर लड़ना होगा. मुङो नहीं लगता कि यह कांग्रेस के बस की बात है.

इसलिए आम आदमी पार्टी को यह बीड़ा उठाना पड़ेगा. संसद में भले ही हम एक छोटी विपक्षी पार्टी के रूप में गिने जायेंगे, लेकिन अगले पांच साल में आम आदमी पार्टी जमीन पर इस देश की प्रमुख विपक्षी ताकत के रूप में उभरेगी. जहां तक दूसरी पार्टियों के बीच तालमेल का सवाल है, मेरे अब तक के जवाब में ही इसका उत्तर अंतर्निहित है, यानी कि भाजपा विरोध के नाम पर भानुमति का कुनबा जोड़ने की राजनीति में हमारा विश्वास नहीं है.

– भाजपा के कुछ नेताओं ने कहा है कि इस वक्त भाजपा विरोध की बात करना 2014 के जनादेश का अपमान होगा?

मैं समझता हूं कि लोकतंत्र में यह कहना ही लोकतंत्र का अपमान है, कि किसी भी दल का विरोध करना जनादेश का अपमान होगा. मैं समझता हूं कि अगर कोई पार्टी इतना बड़ा जनादेश लेकर सत्ता में पहुंची है, तो उसे स्वयं इस बात की चिंता होनी चाहिए कि उसके किसी गलत कदम का अच्छा विरोध हो पायेगा या नहीं. विपक्ष तो लोकतंत्र की आत्मा है. उससे डरना लोकतंत्र से डरना होगा.

– यह भी कहा जा रहा है कि इस बार के जनादेश में यूथ फैक्टर काफी अहम रहा है. देश के करोड़ों युवा मतदाताओं की आकांक्षाएं अलग तरह की हैं और उनमें बड़ी उम्मीद है नरेंद्र मोदी को लेकर, इसलिए उन्होंने जाति-धर्म से ऊपर उठ कर विकास के नाम पर, मोदी सरकार बनाने के लिए मतदान किया है. इस संबंध में आपकी क्या राय है?

मैंने इस बार के चुनाव के आंकड़े ठीक से देखे नहीं हैं, क्योंकि मैं किसी भी सव्रेक्षण की टीम में शामिल नहीं था. इसलिए मैं प्रमाण के साथ तो नहीं कह पाऊंगा, लेकिन मुङो इस तरह के दावों में अतिशयोक्ति नजर आती है. इसमें कोई शक नहीं कि भारत में युवाओं और युवा मतदाताओं की संख्या ज्यादा है. और इसमें भी कोई शक नहीं कि बाकी मतदाता-समूहों की तुलना में युवाओं में भाजपा के लिए आकर्षण अपेक्षाकृत ज्यादा है, लेकिन इतना भर से युवा वोट या युवा शक्ति का भाजपामय हो जाना जैसे निष्कर्षो पर हम नहीं पहुंच सकते. हमें अभी देखना है कि युवाओं का यह रुझान झणिक है या दीर्घकालिक. इसके बाद ही किसी बड़े निष्कर्ष पर हम पहुंच सकते हैं.

– पहले माना जा रहा था कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का जाति आधारित मजबूत जनाधार है, लेकिन अब कहा जा रहा है कि खासकर हिंदी पट्टी में यूथ फैक्टर इतना कारगर रहा कि क्षेत्रीय दलों के किले ध्वस्त हो गये. इस चुनाव में क्षेत्रीय दलों का जनाधार क्यों खिसक गया और इसके बाद क्षेत्रीय दलों की राजनीति के समक्ष क्या प्रमुख चुनौतियां हैं?

इस चुनावी लहर में भाजपा या भाजपा समर्थक दलों को छोड़ कर बाकी ज्यादातर दलों को भारी नुकसान हुआ है. खास कर उत्तर भारत के क्षेत्रीय दल इसी का शिकार हुए हैं. हालांकि यह बात दक्षिण और पूर्वी भारत के क्षेत्रीय दलों पर पूरी तरह लागू नहीं होती है. अन्ना द्रमुक, द्रमुक, वाइएसआर की पार्टी, तेलंगाना राष्ट्रीय समिति, बीजेडी और ममता बनर्जी की पार्टी को तो कोई नुकसान नहीं हुआ. अगर नुकसान हुआ तो मुख्यत: उत्तर प्रदेश, बिहार और हरियाणा के क्षेत्रीय दलों को. इसलिए यहां उत्तर प्रदेश और बिहार के क्षेत्रीय दलों की हार पर अलग से गौर करना बेहतर होगा.

मैं समझता हूं कि इन दोनों राज्यों में मंडलीकरण के बाद की जातीय राजनीति अपने एक चरम बिंदु पर पहुंच कर अप्रासंगिक होने लगी थी. जातिगत राजनीति की यही नियति है कि एक जाति आधारित वोट बैंक मजबूत होते-होते एक ऐसे बिंदु तक पहुंच जाती है, जहां राजनीतिक जड़ता आ जाती है और जहां लोगों को समझ आने लगता है कि इस जड़ता से बाहर निकलने की जरूरत है. खासकर उत्तर प्रदेश में लोगों ने पिछले दस-पंद्रह वर्षो में सभी मुमकिन राजनीतिक समीकरण इस्तेमाल कर लिये थे- अगड़ों का, पिछड़ों का, दलित, यादव, मुसलिम आदि सभी इस्तेमाल हो चुके थे. और यह यात्रा एक ठहराव के बिंदु पर पहुंच गयी थी.

इस बार भाजपा की बड़ी विजय उसके परंपरागत सामाजिक समीकरण की विजय नहीं है. वह सभी जाति-समुदायों के एक बड़े हिस्से को जोड़ कर बेहतर सरकार बनाने की राजनीति की विजय है. इस लिहाज से नरेंद्र मोदी की विजय में कहीं जातिवादी राजनीति से मुक्त होकर एक बेहतर सरकार और बेहतर राजकाज की इच्छा शामिल थी. मुङो नहीं लगता कि भाजपा या नरेंद्र मोदी वास्तव में इस इच्छा को पूरा कर पायेंगे, लेकिन इस इच्छा का होना दोनों राज्यों में, खास तौर पर उत्तर प्रदेश में एक सार्थक राजनीतिक संभावना की ओर इशारा कर रहा है.

– यदि जातीय राजनीति अप्रासंगिक हो जायेगी, तो कई क्षेत्रीय दलों का ‘वोट बैंक’ ही खत्म हो जायेगा. ऐसे में इस जनादेश के बाद क्षेत्रीय दलों को अपनी राजनीति को किस तरह से आगे बढ़ाना होगा?

इस विषय में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय, सभी सभी दलों को विचार करने की जरूरत है. खास कर उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति एक खास दौर से गुजर चुकी है. सामाजिक न्याय के नारे के तहत हुई राजनीति के इस दौर में लोगों के जीवन के, रोजमर्रा के, मुद्दों में बेहतरी के सवाल गौण हो गये थे. मोदी की जीत इस ओर इशारा करती है कि इन सवालों को दबाया नहीं जा सकता. यानी क्षेत्रीय हों या राष्ट्रीय, सभी दलों को खुद को आम लोगों की जिंदगी में खुशहाली के सपने से जोड़ना होगा. मैं नहीं मानता कि नरेंद्र मोदी इस काम को पूरा कर पायेंगे. हालांकि वे इस सपने के वाहक बनते हुए दिखाई दे रहे हैं, इस बात से मैं इनकार नहीं कर सकता.

– क्षेत्रीय दलों की ओर से सामाजिक न्याय का नारा भी तो इसी तर्क के साथ दिया जाता है कि संसाधनों के बंटवारे में जो लोग अपना हिस्सा पाने से वंचित रह गये हैं, उन्हें उनका हक दिलायेंगे. तो इस जनादेश से क्षेत्रीय दलों को क्या सबक लेने की जरूरत है.

सामाजिक न्याय की राजनीति ने इस प्रकार के नारे तो दिये, लेकिन व्यवहार में वह राजनीति केवल प्रतीकात्मक हिस्सेदारी की राजनीति बन गयी. इसमें चेहरों में तो हिस्सेदारी हुई, यानी कितने एमएलए किस समुदाय के बनेंगे, कितने मिनिस्टर किसके बनेंगे; लेकिन विकास के फल में हिस्सेदारी का माहौल नहीं बन पाया.

मैं समझता हूं कि बिहार में शुरू में यह सबक नीतीश कुमार सरकार ने सीखा, कि लोगों को सिर्फ सामाजिक न्याय का नारा नहीं चाहिए, उसे सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, रोजगार आदि में हिस्सेदारी भी चाहिए, हालांकि बाद में वे भी इस पर पूरी तरह कायम नहीं रह पाये. मुङो लगता है कि इस बार के जनादेश से खास कर उत्तर प्रदेश में सपा एवं बसपा और बिहार में राजद को यह सबक सीखना होगा कि जब तक वे बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के सवालों पर कुछ करेंगे नहीं, तब तक सिर्फ प्रतीकात्मक सामाजिक न्याय की बात करने से उनकी राजनीति बहुत दिन तक टिकनेवाली नहीं है.

– इस लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन उम्मीद से काफी कम क्यों रहा?

आम आदमी पार्टी के लिए यह जनादेश न तो निराशाजनक रहा है और न ही बहुत अप्रत्याशित. संभव है कि हमारे कुछ समर्थकों, शुभचिंतकों के मन में बड़ी उम्मीदें बंध गयी थीं. लेकिन दरअसल अपने पहले लोकसभा चुनाव में किसी पार्टी से इससे ज्यादा अपेक्षा करनी ही नहीं चाहिए. पिछले तीस-चालीस साल में केवल दो नयी राष्ट्रीय पार्टियां इस देश में स्थापित हुईं- भाजपा और बसपा. उन दोनों पार्टियों के पहले लोकसभा चुनाव पर आप गौर कीजिए. 1984 में भाजपा ने अपना पहला राष्ट्रीय चुनाव लड़ा था, उसे सिर्फ दो सीटें आयी थीं. लेकिन चूंकि उसमें एक पुरानी पार्टी का अंश शामिल था, इसलिए उसे सात फीसदी वोट हासिल हो गये थे. 1989 में बसपा ने पहली बार राष्ट्रीय चुनाव लड़ा, उसे दो सीटें आयीं और दो प्रतिशत वोट हासिल हुए. इस तरह पहले चुनाव के लिहाज से हमारा प्रदर्शन बुरा नहीं है.

हां, हमें दिल्ली में निराशा जरूर हुई. दिल्ली में हमारा वोट प्रतिशत भले ही बढ़ा हो, लेकिन हमें कोई सीट नहीं मिली और भाजपा का फासला हमसे बढ़ा. हमें वाराणसी में भी निराशा हुई. मैंने सोचा था कि दिल्ली के बाद हमें हरियाणा में एक नयी शुरुआत मिलेगी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका. लेकिन इस चुनाव में आम आदमी पार्टी को जो हासिल हुआ है, वह कम नहीं है. चार सीटें अपने-आप में कम जरूर लगती हैं, लेकिन दिल्ली से बाहर एक नये राज्य-पंजाब-में हमें कामयाबी मिली है.

– इस चुनाव में ‘आप’ को उम्मीद से काफी कम सीटें मिलने पर कुछ विश्लेषक दो बड़े कारण गिना रहे हैं. पहला, दिल्ली में 49 दिनों में ही सरकार चलाने से इनकार कर देना और दूसरा, पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव तथा ज्यादातर फैसले अरविंद केजरीवाल एवं मनीष सिसोदिया जैसे कुछेक नेताओं द्वारा मनमाने तरीके से लिया जाना. आप क्या कहेंगे?

जहां तक दिल्ली सरकार के इस्तीफा देने का सवाल है, इसमें कोई शक नहीं कि इस्तीफा देने से दिल्ली में भी और दिल्ली के बाहर भी बड़े तबके को धक्का लगा. उन्हें लगा कि कोई सरकार, जो उनके लिए बहुत सारे काम कर सकती थी, अचानक चली गयी. और पूरे चुनाव में यह बात हमें हर जगह और बार-बार सुनने को मिली. हम पर भगोड़े का आरोप कहीं चिपक गया. हम तर्क देते रह गये, लेकिन जनता हमारी बात को नहीं मानी. राजनीति का काम है जनता से सबक लेना. और मैं समझता हूं कि यह एक सबक हमारे लिए है कि हमें दिल्ली सरकार को छोड़ने का फैसला भी हमें जनता के साथ किसी राय-मशविरे के बाद लेना चाहिए था, जैसा कि हमने सरकार बनाने के वक्त किया था. और अगर जनता कहती कि छोड़ना नहीं चाहिए, तो हमें जनता की बात माननी चाहिए थी. उसमें हमारी राजनीतिक समझ की एक चूक हुई, यह मानने में हमें कोई संकोच नहीं है.

रही बात पार्टी की आंतरिक निर्णय प्रक्रिया की, तो मैं समझता हूं कि आम आदमी पार्टी देश की अन्य पार्टियों की तुलना में ज्यादा लोकतांत्रिक है और पूरी तरह से लोकतांत्रिक बनना अपने आप में एक प्रक्रिया है, जिसमें तमाम उतार-चढ़ाव आते हैं. और मुङो यकीन है कि स्वराज के जिस विचार को लेकर यह पार्टी बनी है, उसे यह अपनी कार्यप्रणाली में भी समाहित कर पायेगी.

– इस जनादेश के बाद आपलोगों ने इस पर मंथन किया होगा. आम आदमी पार्टी ने इस जनादेश से क्या-क्या प्रमुख सबक लिये हैं और उनके आधार पर पार्टी आगे अपनी रणनीति में किस तरह की तब्दीली करने जा रही है?

अभी हमारी बैठकों का सिलसिला पूरा नहीं हुआ है और हमारी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक होनी अभी बाकी है. इसलिए मैं अपनी समझ के बारे में ज्यादा कह पाऊंगा, पार्टी की सामूहिक समझ के बारे में अभी ज्यादा नहीं कह पाऊंगा.

मुङो लगता है कि हमारे लिए बड़ा सबक यह है कि लोग हमारी ईमानदारी पर तो भरोसा करते हैं, लेकिन हमारी समझदारी के बारे में अभी आश्वस्त नहीं हैं. हमें लोगों के बीच यह साबित करना है कि हम सरकार बनाने और चलाने के बारे में गंभीर हैं. हममें सरकार चलाने की काबिलियत है और हम रोजमर्रा के मुद्दों को हल करने के लिए धैर्य के साथ काम कर सकते हैं.

दूसरा सबक यह है कि पोलिंग बूथ के स्तर पर संगठन बना कर पोलिंग बूथ मैनेजमेंट किये बिना बड़ी पार्टियों के मुकाबले में चुनाव लड़ना और जीतना संभव नहीं है.

तीसरा सबक कह लीजिये या चुनौती, बड़े मीडिया और बड़ी पूंजी का जो सम्मिलित हमला है, उसके सामने टिकना आसान काम नहीं है. इस बार के चुनाव में जिस तरह से इस देश का बड़ा पूंजीपति वर्ग और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा नरेंद्र मोदी के प्रचार-प्रसार में लग गया, उसके सामने खड़ा होने की रणनीति अभी हमारे पास नहीं है. इसकी रणनीति हमें बनानी पड़ेगी.

इसका मतलब है कि आम आदमी के लिए आगे का रास्ता है संगठन का निर्माण करना. हमें नीचे से ऊपर तक, यानी पोलिंग बूथों से लेकर संसदीय क्षेत्रों तक, राज्यों से राष्ट्र स्तर तक अपना संगठन बनाना होगा और आनेवाले विधानसभा चुनावों के लिहाज से जनता को समझाना होगा कि हम गंभीर और सफल सरकार बनाने में सक्षम हैं. यह काम असंभव नहीं है, लेकिन इसके लिए बहुत धीरज की जरूरत है.

– एक जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक से एक संसद सदस्य बनने की दिशा में आपके द्वारा उठाये गये कदम का एक उम्मीदवार के रूप में व्यक्तिगत अनुभव कैसा रहा और इससे आपको क्या-क्या नयी चीजें सीखने को मिलीं?

मेरे लिए पूर्णकालिक राजनीति में आना उतना बड़ा बदलाव नहीं था, जितना बाहर से दिखाई दे रहा था. पिछले तीन दशकों से मैं देश के सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों से जुड़ा रहा हूं, देश भर की खाक छानता रहा हूं, तमाम जनांदोलनों का हमसफर रहा हूं. इसलिए मेरे लिए राजनीति में या जमीन पर काम करना उतनी नयी चीज नहीं थी. लेकिन फिर भी बदलाव तो था और बहुत बड़ा बदलाव था. खास तौर पर जमीन पर चुनाव लड़ना और जीतने के इरादे से चुनाव लड़ना एकदम नया अनुभव था. इसने मुङो बहुत कुछ सिखाया. पहला तो यह सीखा कि मैं राजनीति के बारे में कितना कम जानता हूं. दुनिया मुङो विशेषज्ञ होने का तगमा जरूर देती रही है, लेकिन सच बात यह है कि राजनीति का वह किताबी ज्ञान धरातल पर चुनाव लड़ने के वक्त बहुत काम नहीं आया.

दूसरा यह कि जिस इलाके को मैं अपनी मातृभूमि और कर्मभूमि मानता रहा हूं, उस इलाके को भी मैं कितना कम जानता हूं. मेरे लोकसभा क्षेत्र के कितने गांव, इलाके, क्षेत्र ऐसे थे, जिन्हें मैंने कभी देखा भी नहीं था, जिनके दुख-तकलीफ को मैं समझता भी नहीं था. इसलिए चुनाव में असफल होने पर पहला विचार मेरे मन में यही आया कि शायद अभी मैं इसके काबिल ही नहीं था. मुङो तो अभी अपने इलाके के बारे में बहुत कुछ जानना है, समझना है.

तीसरा, कुछ खट्टे-मीठे अनुभव भी हुए. कुछ इस किस्म के अनर्गल और व्यक्तिगत आरोप लगे, जो तीखे तो थे ही, बहुत छिछले भी थे और मेरी चमड़ी अभी इतनी मोटी नहीं है कि इन बातों का कोई असर नहीं पड़े. जाहिर है, दिल को चोट भी पहुंची और मैं अभी समझ नहीं पाया हूं कि उस किस्म की घटिया हरकतों से कैसे निपटा जाये, जिससे मानसिक द्वेष न हो.

लेकिन सबसे बड़ा अनुभव यह रहा कि आम लोगों का इतना प्यार मिला, जितना पहले न तो कभी मुङो मिला था और न ही जिसके मैं काबिल हूं. केवल अपने गांव के इर्द-गिर्द नहीं, केवल स्वजातीय लोगों में नहीं, बल्कि तमाम इलाकों में वोट मिला या न मिला हो, लेकिन मुङो लोगों का भरपूर स्नेह मिला. क्षेत्र के भीतर से और बाहर से इतने सारे कार्यकर्ताओं ने खुद आकर धन दिया, ऊर्जा दी और इस चुनाव अभियान को अपना अभियान बना दिया.

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