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रोके न रुके मोदी

-अरुण भोले- कांग्रेस सहित तमाम तथाकथित सेक्युलरिस्टों के प्रचंड विरोध के बावजूद नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बन ही गये. चुनाव नतीजे आते ही सभी धुरंधरों को सांप सूंघ गया. राहुल गांधी, मुलायम सिंह, मायावती, ममता बनर्जी, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार. सब एक-दूसरे का मुंह ताकते रह गये. यूपी की 80 लोकसभा सीटों में अकेली […]

-अरुण भोले-

कांग्रेस सहित तमाम तथाकथित सेक्युलरिस्टों के प्रचंड विरोध के बावजूद नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बन ही गये. चुनाव नतीजे आते ही सभी धुरंधरों को सांप सूंघ गया. राहुल गांधी, मुलायम सिंह, मायावती, ममता बनर्जी, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार. सब एक-दूसरे का मुंह ताकते रह गये. यूपी की 80 लोकसभा सीटों में अकेली भाजपा 73 बटोर ले गयी. मुलायम केवल अपने पांच परिजनों तक सिमट गये. कांग्रेस की लाज किसी कदर मां-बेटे (सोनिया और राहुल गांधी) की जीत ने बचा ली. बहनजी (मायावती) का तो सूपड़ा ही साफहो गया. उधर, बिहार के दोनों सेक्युलर सूरमा – लालू और नीतीश कुमार भी अपना आधार नहीं बचा सके. लालू के केवल चार प्रत्याशी जीत पाये. पत्नी और पुत्री पराजित हो गयीं. जदयू की संसदीय ताकत खत्म हो गयी. नीतीश ने मुख्यमंत्री की कुरसी खाली करना बेहतर समझा. गुजरात ही नहीं, उत्तर और मध्य भारत के कई राज्यों में भाजपा के अलावा कोई दल जीत न पाया. भारतीय जनता पार्टी अपने बूते लोकसभा में बहुमत की सीमा-रेखा पार कर गयी. सहयोगी दलों के साथ उसे 336 सीटें हासिल हुईं. यह अनहोनी कैसे घटी!

बेशक यह अपूर्व चुनाव परिणाम मोदी की साख, उनके प्रति चतुर्दिक जनाकर्षण तथा उनके अथक चुनाव अभियान का सुफल था. 1952 में हुए देश के प्रथम आम चुनाव के दिन मुङो अच्छी तरह याद है. दूसरे चुनाव में तो बिहार के केसरिया लोकसभा क्षेत्र से खुद मेरे पिताजी (रामेश्वर प्रसाद वर्मा) प्रजा सोशिलस्ट पार्टी के प्रत्याशी थे. उस जमाने के सबसे बड़े ‘स्टार-कैम्पेनर’ पंडित नेहरू हुआ करते थे. लेकिन, मैं बेहिचक कह सकता हूं कि इस बार के संसदीय चुनाव अभियान में नरेंद्र भाई पंडितजी से आगे निकल गये. इतना व्यापक और सघन अभियान मैंने किसी का नहीं देखा. आज भाजपा को इतने अच्छे दिन दिखाने का सर्वाधिक श्रेय मोदी को है. तथापि, चुनावी दृष्टि से उन्हें चुंबकीय केंद्र बना देने में सबसे ज्यादा हाथ उन राजनितिक दलों और तथाकथित ‘सेक्युलर फोर्सेज’ का रहा, जिनके पास मोदी निंदा के सिवा कोई ‘टॉकिंग प्वॉइंट’ था ही नहीं. उन्हीं निंदकों ने अपने प्रचार के द्वारा मोदी को घर-घर पहुंचा दिया. मोदी चुपचाप सब देखते-सहते चले. लेकिन अंदर-अंदर जनता में उसकी ऐसी तीव्र प्रतिक्रि या होती रही कि बड़ी तादाद में लोग मोदी के पक्ष-विपक्ष में लामबंद होते गये.

तटस्थ रह पाना किसी के लिए भी मुश्किल हो गया, क्योंकि मोदी का कृतसंकल्प व्यक्तित्व और गुजरात का विकास सबकी नजरों के सामने था. अतएव, अतिशय मतदान भाजपा के पक्ष में चला गया. मेरी समझ में मोदी-भर्त्सना का अखंड जाप और सेक्युलरिज्म का ओवरडोज भाजपा को संसद में प्रबल बहुमत दिलाने में सर्वाधिक सहायक बना है.

एक सोशलिस्ट होने के नाते मैं खुद सेक्युलरिज्म का पक्षधर हूं. लेकिन यह सिद्धांत जब आस्था के बजाय महज राजनीतिक ढकोसलेपन और स्वार्थसिद्धि का साधन बन जाये, तो वैसे छल से दूर रहना मुनासिब है. कुछ चुनिंदा लफ्जों के हेर-फेर अगर सांप्रदायिकता को धर्मनिरपेक्षता तथा धर्मनिरपेक्षता को सांप्रदायिकता में तब्दील कर देते हों, तो उसे शब्द-प्रपंच के सिवा और कुछ नहीं माना जायेगा. रामविलास पासवान, रामकृपाल यादव, जगदंबिका पाल, साबिर अली की ताजातरीन मिसाल पेशे-नजर है. उन जैसे बाकी लोग आगे भी समय-समय पर प्रकट होते रहेंगे.

चुनाव प्रचार के दौरान इस बात का सबसे ज्यादा शोर मचाया गया कि मोदी जैसा सांप्रदायिक दैत्य अगर केंद्रीय सत्ता पर काबिज हो गया, तो धर्मनिरपेक्षता समाप्त हो जायेगी, भारत का बहुलवादी स्वरूप बदल जायेगा, अल्पसंख्यक असुरक्षित हो जायेंगे तथा देश विघटन की ओर अग्रसर होने लगेगा. हमें ईमानदारी से कबूल करना चाहिए कि अपने किसी भी चुनावी भाषण में मोदी ने कोई ऐसी बात नहीं की, जिससे उन आशंकाओं की संपुष्टि होती हो. उन्होंने विकास और सुशासन को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया और सबका साथ, सबके विकास की बात की. दूसरी ओर, उनके प्रतिद्वंद्वियों में किसी ने अल्पविकसित अर्थव्यवस्था, सामाजिक-आर्थिक पिछड़ापन, बेरोजगारी, महंगाई, प्रशासनिक भ्रष्टाचार जैसी मूलभूत समस्याओं के प्रति कोई चिंता न जतायी. उन सेक्युलरिस्टों ने उन्हीं संकीर्ण सांप्रदायिक और जातीय मुद्दों का राग अलापा, जिन्हें सुन कर मतदाता लामबंद हों और उनके पक्ष में अधिक से अधिक मतदान करें. संसद भवन में पहली बार प्रवेश करने से पहले प्रजातंत्र के उस पावन-मंदिर की सीढ़ियों पर माथा टेक नरेंद्र मोदी ने देश और दुनिया के सभी लोगों को साफ संदेश दे दिया कि भारत के लोकतंत्र और संविधान के प्रति वे पूरी तरह निष्ठावान और समर्पित हैं.

अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विशेषज्ञ बताने लगे हैं कि मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के संभावित वैश्विक प्रभाव क्या होनेवाले हैं. पाकिस्तान की मोदी विरोधी फिजाओं में खौफ और हिकारत के जो जुमले तैरते हैं, उनमें ज्यादा हिंदुस्तानी सेक्युलरिस्टों के छोड़े गये शिगूफे हैं. वहां का एक तबका उन लोगों का है, जो मानते हैं कि मोदी के आगमन से पाकिस्तान ही नहीं, संपूर्ण एशिया का राजनीतिक समीकरण अस्त-व्यस्त हो जायेगा. उनका यह भी ख्याल है कि जब तक कश्मीर मसला हल नहीं हो जाता, भारत के साथ रिश्ते सुधरने की कोई भी पहल मुनासिब नहीं. इन सब के मद्देनजर अपने शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान के वजीर-ए-आजम नवाज शरीफ सहित सार्कदेशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित कर मोदी ने एक अच्छा कूटनीतिक कदम उठाया है.

पड़ोसियों के बीच गलतफहमियां दूर हों और रिश्ते सुधरें, इससे बेहतर और कुछ नहीं. दूसरी तरफ, पूर्वी-एशिया के चीन, जापान, वियतनाम, सिंगापुर, म्यांमार जैसे देश मोदी के प्रति विशेष उत्सुक और आशावान हैं. कुछ ही वर्ष पूर्व बहैसियत मुख्यमंत्री वे चीन, जापान और सिंगापुर गये थे, जहां उनकी बड़ी खातिरदारी हुई और कई व्यापारिक समझौते हुए. यद्यपि भारत-चीन सीमा विवाद संबंधी उनके कुछ रूखे शब्द तथा भारतीय प्रतिरक्षा संबंधों के आधुनिकीकरण में उनकी विशेष रुचि से चीन ने अपने कान खड़े कर लिये हैं, लेकिन औद्योगिक, आर्थिक, सामरिक और कूटनीतिक मामलों में पाकिस्तान की अपेक्षा बहुत अधिक सामथ्र्यवान और परिपक्व होने के कारण उतावलेपन से वह यथासंभव परहेज करेगा. खासकर जापान, वियतनाम, फिलीपींस के साथ चीन के अन-बन जब ज्यादा हैं, तो भारत के साथ अपने रिश्तों को सामान्य रखना ही वह ज्यादा उपयुक्त पायेगा. जो भी हो, आनेवाले दिन भारत के लिए चुनौती भरे होंगे और उसकी सफलता-विफलता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संकल्प और उनकी क्षमता पर निर्भर करेगा.

(लेखक स्वराज और समाजवादी आंदोलन से जुड़े बिहार के जाने-माने जनसेवी और विचारक हैं.)

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