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नयी किताब आरटीआइ का इतिहास

लोकतंत्र में अगर सब कुछ जनता के हित के लिए ही है, तो फिर उसके हक वाली जरूरी सूचनाएं उसे बिन मांगे ही मिलनी चाहिए. शासन कोई भी हो, उसका स्वभाव ही है सूचनाओं को छुपाना. सूचनाओं को छुपाने से ताकत का इजहार होता है. अगर आपको अपने हित की बातों की जानकारी ही नहीं […]

लोकतंत्र में अगर सब कुछ जनता के हित के लिए ही है, तो फिर उसके हक वाली जरूरी सूचनाएं उसे बिन मांगे ही मिलनी चाहिए. शासन कोई भी हो, उसका स्वभाव ही है सूचनाओं को छुपाना. सूचनाओं को छुपाने से ताकत का इजहार होता है. अगर आपको अपने हित की बातों की जानकारी ही नहीं होगी, तो आप न तो अपने हित के लिए आगाह हो सकते हैं और न ही हित के उल्लंघन की हालत में किसी से जवाब-तलब कर सकते हैं. ‘सवाल मत पूछिए- हमारा फरमान सुनिए’- आजादी के बाद से विभागों ने लोगों से ऐसा बरताव किया. यह बरताव उन्हें ताकत देता था, जवाबदेही से मुक्त रखता था.

डेढ़ दशक पहले (2005) देश की संसद ने सूचना के अधिकार अधिनियम (आरटीआइ) की मंजूरी दी थी. कानून के लागू होने के साथ पहली बार लोगों के हाथ में शासन के बंद ताले की चाबी आयी. लोग अब पंचायत-प्रधान से लेकर प्रधानमंत्री दफ्तर तक से एक अर्जी डालकर वैसी कोई भी जानकारी मांग सकते हैं, जो उन्हें निजी या सार्वजनिक हित में जरूरी लगती हो. आरटीआइ कानून बनने के बाद पहली बार ‘शासन’ लोगों के प्रति जवाबदेह बनने को मजबूर हुआ.
इस कानून के पीछे जन-संघर्ष का एक लंबा इतिहास रहा है. मैग्सेसे पुरस्कार-प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय और मजदूर किसान शक्ति संगठन के साथियों के हाथों दस्तावेजी साक्ष्यों के आधार पर तैयार की गयी यह किताब आरटीआइ कानून बनाने के लिए चले जन-संघर्ष को शब्दों में संजोने का सराहनीय उपक्रम है. जन-अधिकारिता का कोई भी संघर्ष तभी सफल हो सकता है, जब देश का मध्यवर्ग उसमें हिस्सेदारी करे. आरटीआइ कानून के छोटे से गांव देवडूंगरी (राजस्थान) से लेकर दिल्ली और पूरे देश में फैलने के पीछे जितना संगठन (मजदूर किसान शक्ति संगठन) और इससे जुड़े कार्यकर्ताओं का योगदान है,
उतना ही मध्यवर्गीय शहरी लोगों (पत्रकार, वकील, प्रोफेसर) का भी, जिन्होंने इस कानून की पैरोकारी की. किताब में दर्ज प्रसंग कहते हैं कि देश का गांव-देहात सिर्फ जाति-गोत्र के बंधनों-निष्ठाओं के निर्वाह में जीनेवाले समुदाय की ठहरी हुई तस्वीर नहीं, बल्कि वहां हर व्यक्ति के भीतर एक न्यायबोध मौजूद है, जिसके आधार पर जाति-धर्म के बंधनों से ऊपर उठकर ग्रामीण जनता शासन के न्याय-अन्याय का फर्क करती है. जरूरत इसे महसूस करनेवाली जनता को जोड़ने की है.
यह किताब एक जन-आंदोलन के उठ खड़े होने की परिस्थितियों, जरूरतों, बाधाओं, कामयाबियों और संघर्ष-पथ पर हासिल नाकामियों का तटस्थ ब्योरा पेश करती है और इसी कारण हमारे समय के राजनीतिक जीवन के एक हिस्से का जरूरी इतिहास-लेखन बनकर सामने आती है. डेढ़ दशक बाद भी देश की करीब 0.5 फीसद आबादी ही आरटीआइ का उपयोग कर पायी है. सरकार और समाज के ताकतवर तबके ने कानून के अमल में अड़ंगे डालने की हरचंद कोशिशें की. आरटीआइ की अर्जियां बड़े पैमाने पर ठुकरायी जाती हैं. सूचना आयोग वांछित गति से अर्जियों का निबटारा नहीं करते और कई राज्यों में तो सूचना आयुक्त ही गायब हैं.
आरटीआइ कार्यकर्ताओं पर हमले और जान से मारने की घटनाएं भी बढ़ी हैं. एक तरफ सरकार लोगों को जरूरी सूचनाएं देने से मुकर रही है, तो दूसरी तरफ लोगों की निजी सूचनाओं में ‘आधार-संख्या’ के मार्फत सेंधमारी कर रही है. इस किताब को पढ़कर शासन के ऐसे विरोधाभासों को भांपा जा सकता है. पुस्तक के अनुवादक अभिषेक श्रीवास्तव विशेष साधुवाद के पात्र हैं. उनकी सहज भाषा ने इस पुस्तक को हिंदी के पाठकों के लिए बोधगम्य बना दिया है.- चंदन श्रीवास्तव
पुस्तक : RTI कैसे आई!
लेखक : अरुणा रॉय एवं मजदूर किसान शक्ति संगठन
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य: 299 रुपये (पेपरबैक)

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