मैंने यह बात नोटिस की है कि अब पूरे देश में बिहारियों के मन में आस जगी है. अपना सिर गर्व से ऊंचा कर सकते हैं. कोलकाता में एक युवा टैक्सी ड्राइवर ने मुझसे कहा : इंतजार कीजिए और देखिए. किसी बिहारी को रोजगार के लिए घर छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ेगी. हमारे घर में पर्याप्त रोजगार उपलब्ध होगा.
-सुरेंद्र मुंशी-
लोकतंत्र में चुनाव होते हैं और चुनाव से ही एक लोकप्रिय सरकार का गठन होता है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस देश की जनता ने केंद्र में सरकार बनाने के लिए भाजपा और उसके नेता नरेंद्र मोदी को स्पष्ट बहुमत दिया है. लोकतंत्र में विश्वास करने वालों को इस जनादेश का सम्मान करना चाहिए.
लोकतंत्र में चिंतन भी होता है. जब मतदाता अपने वोट का इस्तेमाल कर अपने नेता का चुनाव करता है, तब इस बात का चिंतन करने की जिम्मेदारी कि मेरे लिए क्या बेहतर है, उसी मतदाता की हो जाती है. बेहतरी सिर्फ एक वर्ग के लिएनहीं, बल्कि सामूहिक बेहतरी. इसके साथ ही मतदाता के ऊपर यह भी जिम्मेदारी है कि वह लंबे समय में सभी की बेहतरी के बारे में सोचे. कोई भी पेड़ एक दिन में फल नहीं देता है. पहले पौधा लगाया जाता है. उसके बाद पौधे की सावधानी के साथ देखभाल की जाती है और बढ़ने दिया जाता है. इसके बाद उस पेड़ के फल खाये जाते हैं. ये फल सिर्फ हमारे लिए ही नहीं होते, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी होते हैं.
हमलोग अपने राष्ट्रीय जीवन में एक नतीजे पर पहुंचे हैं. लेकिन उतना नहीं, जितना बिहार पहुंचा है. लोकसभा चुनाव में बिहार में भाजपा को जबरदस्त सफलता मिली. इस सफलता ने नीतीश कुमार और उनकी राजनीति पर सवाल खड़े कर दिये हैं. जो हश्र नीतीश कुमार और उनकी राजनीति का हुआ, वह सिर्फ बिहार ही नहीं पूरे देश के लिए महत्वपूर्ण है.
जदयू के खराब प्रदर्शन का यह मतलब निकाला जाये कि सुशासन और विकास पर नीतीश कुमार का जोर हार गया? इसके लिए हमें बिहार की वास्तविकता को नजदीक से देखने की जरूरत है. बिहार, जैसा कि हम जानते हैं, दावा कर सकता है कि उसकी मिट्टी से एक बड़े साम्राज्य का उदय हुआ, जिसने भारत के एक बड़े भू-भाग को एक सूत्र में बांधते हुए एक छत के नीचे लाकर खड़ा कर दिया. इस साम्राज्य का शासन अर्थशास्त्र (उस समय शासन व्यवस्था चलाने की महत्वपूर्ण पुस्तक) में लिखित सिद्धांतों के अनुसार चलता था. अर्थशास्त्र में साफ लिखा है : प्रजा की खुशी में ही राजा की खुशी है, प्रजा के कल्याण में ही राजा का कल्याण है. राजा उन वस्तुओं को अच्छा नहीं कहेगा, जिससे सिर्फ उसे सुकून मिले, बल्कि वह उन वस्तुओं को अच्छा मानेगा जो उसकी प्रजा के लिए अच्छा होगा. बिहार के स्वर्णिम काल के पतन का कारण बुद्धिजीवियों के लिए चर्चा का विषय हो सकता है. दरअसल, अंग्रेजों के आने के पहले से बिहार देश के सबसे धनी इलाकों में से एक था. उनकी नीतियां, विशेषकर परमानेंट सेटलमेंट ने पतन की पटकथा लिखी.
हाल के दिनों में बिहार के पतन के कई कारणों में से एक यह भी है कि (इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता है) यहां के शासकों ने जनता के कल्याण के प्रति कम और अपने कल्याण के प्रति ज्यादा सोचा. वर्ष 2004 में द इकोनॉमिस्ट ने बिहार के बारे में लिखा था – देश का तीसरा सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है बिहार. इसकी आबादी 83 मिलीयन है. यह भारत की खराब छवि का पर्याय बन गया है.
बढ़ती गरीबी, माफियाओं और अंडरवर्ल्ड के सरगनाओं को संरक्षण देते भ्रष्ट राजनेता, जातियों में बंटा समाज, नक्सली हमला, कानून-व्यवस्था के ढहने की वजह से आधारभूत संरचना का विकास डगमगाना, शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था का चरमराना और कानून व्यवस्था यहां से गायब हो गयी है. वर्ष 2010 में इसी पत्रिका ने एक स्टोरी छापी जिसकी हेडिंग थी: ए ट्राइम्फ इन बिहार. रिपोर्ट में बताया गया था कि अपराध पर रोक लगाकर, लोक कल्याण की योजनाओं को लागू कर, सड़कें बनाकर और स्कूलों और अस्पतालों की स्थिति सुधार कर कैसे नीतीश कुमार ने सबसे गरीब राज्यों में से एक का कायापलट किया.
बिहार में जो विकास हुआ है, वह प्रशंसनीय है. वर्ष 2005 से 2011 के बीच बिहार के विकास की रफ्तार 10 फीसदी से ज्यादा थी, यह राष्ट्रीय औसत और गुजरात के विकास से है. इसने सभी का ध्यान आकर्षति किया. लंबे समय तक गतिहीनता और अव्यवस्था का शिकार रहे इस राज्य में जो सकारात्मक बदलाव हुए, वह दिखने लगे. अब लगने लगा कि बिहार फिर से खड़ा हो सकता है. मैंने यह बात नोटिस की है कि अब पूरे देश में बिहारियों के मन में आस जगी है. अपना सिर गर्व से ऊंचा कर सकते हैं. कोलकाता में एक युवा टैक्सी ड्राइवर ने मुझसे कहा : इंतजार कीजिए और देखिए. किसी बिहारी को रोजगार के लिए घर छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ेगी. हमारे घर में पर्याप्त रोजगार उपलब्ध होगा.
बिहार और गुजरात के विकास की तुलना करना असामान्य बात नहीं है. बिहार के विकास को सलाम करने की जरूरत है, क्योंकि गरीबी और कचरे की ढेर पर इस राज्य की विकास गाथा लिखी गयी है. वहीं गुजरात की कहानी दूसरी है. जैसा कि मैत्रिश घटक और संचरी रॉय (दोनों अर्थशास्त्री हैं) ने कहा है : भारत के सबसे अमीर राज्यों में से एक गुजरात 1980 और 1990 के दशक में दूसरे राज्यों की तुलना में हमेशा से आगे रहा है. वर्ष 2000 में, जब से नरेंद्र मोदी ने सत्ता में हैं, उसके विकास में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई है.
फिर उसी सवाल पर आते हैं जिसे मैंने शुरू में उठाया था. क्या जदयू के खराब प्रदर्शन का यह मतलब है कि नीतीश कुमार का विकास और सुशासन मॉडल फेल कर गया है? मैं उम्मीद करता हूं कि इसका जवाब नहीं में हो. यह कहा जा सकता है कि यह जनादेश राज्य सरकार के विरुद्ध नही था. मतदाताओं के सामने यूपीए और एनडीए के रूप में दो ही विकल्प थे. बिहार की जनता को विधानसभा चुनाव में अपने मताधिकार का इस्तेमाल फिर करना है. मैं उम्मीद करता हूं कि उस समय विकास और सुशासन के विकल्प के रूप में गरीबी और अव्यवस्था होगी.
बिहार को हर हाल में अपने गौरवशाली अतीत को वापस पाना चाहिए. इसके लिए कई काम करने होंगे. इन कामों को करने के लिए नीतीश कुमार को बिहार की जनता का साथ चाहिए. वही एकमात्र व्यक्ति हैं जो यह काम कर सकते हैं. इस मामले में क्या बिहार पूरे देश को राह दिखायेगा.