भारत के आदिम लोगों में एक कथा प्रचलित है- कहते हैं कि भगवान ने पहले-पहल आदमी को ऐसा बनाया था कि उसे काम-धाम की जरूरत नहीं थी. न रहने को मकान चाहिए था, न पहनने को कपड़े. तन यों ही पलता था और सबकी सौ बरस की उमर होती थी. और रोग-शोक का किसी को पता न था.
कुछ काल बाद भगवान ने अपनी सृष्टि की ओर मुंह फेर कर देखा कि उसका क्या हाल है? देखते क्या हैं कि कोई अपने जीवन से खुश नहीं है और वहां कलह मची हुई है. सबको अपनी-अपनी लगी है और हालत ऐसी बना डाली है कि जीवन आनंद के बदले क्लेश का मूल हो रहा है.
ईश्वर ने सोचा कि यह बात इसलिए हुई कि सब अलग-अलग अपने-अपने लिए रहते हैं. हालात को बदलने के लिए ईश्वर ने ऐसा बंदोबस्त कर दिया कि काम बिना जीवन संभव ही न रहे. सरदी के दुख से बचने के लिए रहने को जगह बनानी पड़े-चाहे खोद कर गुफा बनाओ, चाहे चिन कर मकान खड़े करो. और भूख मिटाने के लिए फल या अनाज बोना, उगाना, काटना पड़े.
ईश्वर ने सोचा कि काम से उनमें संघ पैदा होगा और वे सम्मिलित बनेंगे. उन्हें औजार बनाने पड़ेंगे. यहां से वहां तैयार माल ले जाना होगा. मकान बनायेंगे. खेत जोते और अनाज बोयेंगे. कात-बुन कर कपड़ा बनायेंगे और इनमें से कोई काम एक अकेले से हो न सकेगा. तब उन्हें समझ आ जायेगी कि जितने एक मन के साथ वे काम करेंगे उतनी ही बढ़वारी होगी और जीवन फले-फूलेगा. यह बात उनमें एका ले आयेगी और सबकी ऐसे बरकत होगी.
कुछ काल बीता और भगवान ने फिर सृष्टि की ओर ध्यान दिया कि अब क्या हाल है. अब लोग पहले से चैन से तो हैं न!
लेकिन देखने में आया कि हालत पहले से खराब है. काम तो साथ करते हैं (क्योंकि और कुछ वश ही नहीं है) पर सब साथ नहीं होते. उनमें दल-वर्ग बन गये हैं. अलग-अलग वर्ग एक-दूसरे के काम के लिए छीना-झपटी करते हैं और एक-दूसरे की राह में रोड़ा बनते हैं. इस खींच-तान में समय और शक्ति बरबाद हो जाती है. सो सबकी हालत बिगड़ी है और दिन-दिन बिगड़ती जाती है.
भगवान ने सोचा कि यह भी ठीक नहीं. अब ऐसा करें कि आदमी को अपनी मौत का कुछ पता न रहे. जाने किस घड़ी मौत आ जाये, ये सोच कर आदमी आप ही संभल जायेगा. सो इस प्रकार की व्यवस्था भगवान ने कर दी. उन्होंने सोचा मौत का ठीक ठिकाना नहीं रहेगा तो आदमी एक-दूसरे से छीना-झपटी भी नहीं करेगा. उसे ख्याल रहेगा कि जाने कितनी घड़ी की जिंदगी है, सो ऐसे जिंदगी के थोड़े से क्षणों को क्यों हम नाहक बिगाड़ें.
लेकिन बात उल्टी हुई. भगवान जब फिर अपनी सृष्टि को देखने आये, तो क्या देखते हैं कि वहां तो जीवन पहले से, बल्कि उससे ज्यादा खराब है.
जो बलवान थे उन्होंने यह देख कर कि आदमी तो चाहे जब मर सकता है, कमजोरों को मौत का डर दिखा कर बस में कर लिया है. कुछ को मार दिया, औरों को डर से ही डरा दिया. होते-होते यह होने लगा कि ताकतवर लोग और उनकी संतानें काम से जी चुराने लगीं. उन्हें समय काटना ही सवाल हो गया और अपना आलस बहलाने के नाना उपाय वे करने लगे. और जो कमजोर थे, उन्हें इतना काम करना पड़ने लगा कि दम मारने की फुर्सत न मिलती. ऐसे दोनों तरह के लोग एक-दूसरे से खार खाते थे और बचते और डरते थे. दोनों दुखी थे और आदमी का जीवन पहले से गया-बीता और दूभर होता जाता था.
यह देखकर ईश्वर ने सुधार की एक और तबदीर की. सोचा कि उपाय पक्का होगा. बहुत सोच-समझ कर भगवान ने आदमी के बीच तरह-तरह की बीमारियां भेज दीं. सोचा कि हरेक के सिर पर जब बीमारियां खेलती रहा करेंगी तो जो अच्छे होंगे, वे बीमार पर और दुर्बल पर दया करेंगे और सहायता करेंगे, क्योंकि जाने वे खुद बीमारी में कब फंस जायें. वे औरों पर दया करेंगे, तभी अपने पर दया की आस उन्हें हो सकेगी.
यह इंतजाम करके भगवान निश्ंिचत हुए. लेकिन फिर जब अपनी उस सृष्टि को देखने आये, जिसे अपनी करुणा में उन्होंने बीमारियों का दान दिया था, तो देखते हैं कि आदमी की हालत बद-से-बदतर है. उसकी भेजी बीमारियों से वह मिलना तो क्या, उलटे आपस में और भी फटने-बंटने लगे हैं. ताकतवर लोग अपनी बीमारी में कमजोरों से और भी मेहनत कराने और अपनी सेवा लेने लगे हैं, लेकिन जब वे सेवक बीमार पड़ते हैं, तो उन्हें पूछने भी नहीं आते हैं. और जिन्हें इस तरह खूब काम में जोता जाता और बीमारी में सेवा ली जाती है, वे खिदमत करते-करते थकान से ऐसे चूर हो जाते हैं कि बीमारी में अपनी या अपनों की कोई मदद नहीं कर सकते, और बस भाग भरोसे हो रहते हैं. तिस पर धनी आदमियों ने इन गरीब लोगों के लिए खैराती अस्पताल वगैरह खड़े कर दिये हैं कि जिससे उनकी मौज में विघ्न न पड़े और बीमार गरीब उनसे दूर ही दूर रहें. वहां अस्पताल में गरीब बेचारे ऐसे किराये के आदमियों और नर्सों के पल्ले पे पड़ते हैं कि जो बिना किसी दया-ममता के, बल्कि कभी तो झींक और तिरस्कार के साथ, दवा उनके गले उतार दिया करते हैं. तिस पर कुछ बीमारियों को छूत की मान लिया जाता है, और कहीं वह लग न जाये, इस डर से बीमारों से बचा जाता है और जो बीमार के पास रहते हैं, उन तक से दूर रहा जाता है.
यह देख कर भगवान ने मन में कहा कि अगर ऐसे भी इन लोगों को यह समझ नहीं आता है कि इनका सुख किसमें है तो फिर इन्हें दुख ही मिलने दो. दुख भोग कर ही वे समङोंगे. यह सोच भगवान ने उन्हें उन पर ही छोड़ दिया.
इस तरह आदमी को आजाद हुए मुद्दत बीत गयी कि अब कहीं कुछ उनमें से समङो हैं कि कैसे वे प्रसन्न रह सकते हैं और रहना चाहिए. काम कुछ के लिए हौआ हो और दूसरों के लिए नित का कोल्हू, यह ठीक नहीं है. बल्कि काम से तो मिल-जुल कर आपस में हेल-मेल और खुशी के साथ रहना सीखने की सुगमता होनी चाहिए. सिर पर जब मौत अड़ी-खड़ी है और किसी पल भी वह आ सकती है, तो ऐसी हालत में आदमी के लिए समझदारी का काम यही हो सकता है कि वह अपनी आयु के क्षण, छिनपल और वर्ष प्रीति, सेवा और भक्ति में बिताये. अब कही-कहीं कुछ लोग समझने लगे हैं कि बीमारी एक-से-एक को हटाने को नहीं है, बल्कि एक-दूसरे को प्रेम के और सेवा के सूत्र में पास लाने के लिए मिली है.
(‘लियो टॉल्सटॉस : प्रतिनिधि रचनाएं’ से साभार)