पिछले दिनों ऑस्ट्रेलिया के गोल्ड कोस्ट शहर में समाप्त हुए राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान 26 बार भारत का तिरंगा पदक मंच पर राष्ट्रीय गान के साथ लहराया.
यह इस बात का सबूत था कि भारत के खाते में इतने ही स्वर्ण पदक आ चुके हैं.
वैसे तो 20 रजत और 20 कांस्य पदकों के वितरण के समय भी भारत का तिरंगा लहराया.
यह पल ना सिर्फ खिलाड़ी को रोमांचित करते हैं, बल्कि देशवासियों को भी अभिभूत कर देते हैं. भीतर ही भीतर कुछ ऐसा महसूस होने लगता है कि उसकी पहली झलक आंखों में आंसू बनकर नज़र आने लगती है.
क्या है भविष्य की डगर?
तो क्या राष्ट्रमंडल खेलों में मिले 66 पदकों ने भारतीय ओलंपिक संघ में इतना जोश भर दिया है कि वह साल 2026 के युवा ओलंपिक खेल, 2030 के एशियाई खेल और 2036 के ओलंपिक खेलों की मेज़बानी के दावे कर रही है.
यहां तक कि इसी सिलसिले में उसने पिछले सप्ताह अंतराष्ट्रीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष थामस बाक़ और एशियाई ओलंपिक परिषद के अध्यक्ष शेख अहमद अल सबाह के साथ बैठक भी की.
भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष नरेंद्र बत्रा ने एक कदम आगे बढ़कर कहा कि हमें मेज़बानी मिले या नही हम दावेदारी करेंगे.
क्या ओलंपिक की मेजबानी संभव?
लेकिन पिछले रियो ओलंपिक खेलों में महज़ एक रजत और एक कांस्य पदक जीतने वाले भारत के क्या इतने बड़े खेल मेले की मेज़बानी करनी चाहिए.
हमारे सवाल का जवाब कुछ ऐसे अंदाज़ में साल 1975 में अपने गोल से मलेशिया में आयोजित हुए विश्व कप हॉकी टूर्नामेंट का फाइनल जीताने और भारत को चैंपियन बनाने वाले पूर्व ओलंपियन अशोक कुमार ने दिया.
उन्होंने कहा कि पदक तालिका में हम हमेशा नीचे की तरफ रहते हैं.
भारत में सबसे अधिक खेलों के आयोजन होते है. इसमें कोई कमी या कोर-कसर नही रहती. इसके बावजूद हमें अपने खिलाड़ियों की तैयारी पर ध्यान देना चाहिए.
अगर खिलाड़ी चैंपियन बनने का यकीन दिलाए, अधिक से अधिक पदक आएं तो ओलंपिक की मेज़बानी करें. ऐसा ना हो कि स्टेडियमों में सिर्फ तालियां बजाने जाएं वह भी दूसरी टीमों के लिए.
यह सच है कि भारत में आईपीएल से लेकर विश्व हॉकी लीग, राष्ट्रमंडल, एशियाई खेल, वर्ल्ड कबड्डी लीग, ढ़ेरों क्रिकेट सिरीज़, यहां तक कि विश्व कप जैसे आयोजन भी कामयाबी से हो चुके हैं. लेकिन इनकी तुलना ओलंपिक खेलों से नहीं की जा सकती.
2010 राष्ट्रमंडल खेल हैं उदाहरण
अरबों-खरबों रुपये लगने के बाद स्टेडियम खेलों के समाप्त होने के बाद कैसे खिलाड़ियों से दूर हो जाते है इसका जीता जागता उदाहरण 2010 के बाद दिल्ली के स्टेडियम हैं, जिनका रोज़ाना का खर्चा उठाना नाकों चने चबाना जैसा है.
तो क्या भारत पदक मंच तक पहुंचने वाले खिलाड़ियों को तैयार करे और फिर उसके बाद ओलंपिक कराने की सोचे. खेल पत्रकार और बीते राष्ट्रमंडल खेलों में समीक्षक की भूमिका निभाने वाले अयाज़ मेमन का मानना है कि ओलंपिक खेल कराने से देश का मान तो बढ़ता है, खिलाड़ियों को भी प्रोत्साहन मिलता है. लेकिन ऐसा ना हो कि ओलंपिक तो हो गए लेकिन एथलीट को भूल गए. वह तो फिर फिज़ूल ही है.
अयाज़ आगे कहते है कि पहले यूथ ओलंपिक की सोचें और उसके बाद ओलंपिक की.
वैसे भी साल 2028 तक के ओलंपिक मेजबान तो तय हो चुके हैं.
छोटे-बड़े खेल मेलों में पदक हासिल करते ही खिलाड़ियों पर पैसे की बौछार होना बुरा नहीं है. लेकिन काश कि इसी बौछार की कुछ बूंदे तैयारी की उस जलती रेत पर भी पडतीं जिसमें झुलसकर खिलाड़ी तैयार होते है, तो शायद ही किसी को ओलंपिक कराने पर एतराज़ होता.
दरअसल तब यकीन भी होता कि अब हम पदक तालिका को नीचे से नही ऊपर से देखेंगे.
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