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23 जलविद्युत परियोजनाओं को बंद करने की सिफारिश से विकास मॉडल पर सवाल

पिछले साल जून में उत्तराखंड में बाढ़ से मची तबाही से लोग एक साल बाद भी उबर नहीं पाये हैं. आपदा के वक्त पर्यावरणविदों ने कहा था कि विकास के नाम पर राज्य में निर्माण कार्यो को जिस तरह से अंजाम दिया जा रहा है, वही तबाही के कारण बने हैं. विशेषज्ञों के ये अनुमान […]

पिछले साल जून में उत्तराखंड में बाढ़ से मची तबाही से लोग एक साल बाद भी उबर नहीं पाये हैं. आपदा के वक्त पर्यावरणविदों ने कहा था कि विकास के नाम पर राज्य में निर्माण कार्यो को जिस तरह से अंजाम दिया जा रहा है, वही तबाही के कारण बने हैं. विशेषज्ञों के ये अनुमान सही साबित हुए हैं. सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर गठित 11 सदस्यीय एक्सपर्ट पैनल ने राज्य की 24 जलविद्युत परियोजनाओं की जांच के बाद इनमें से 23 को बंद करने की सिफारिश की है. पैनल की प्रमुख सिफारिशों और इसके निहितार्थ की जानकारी दे रहा है आज का नॉलेज.

नयी दिल्लीः प्रख्यात फिल्म निर्माता-निर्देशक सुभाष घई की नयी फिल्म ‘कांची’ पहाड़ की जमीनों पर गिद्ध दृष्टि जमाये भूमाफिया के खिलाफ पहाड़ की ही एक लड़की के संघर्ष की कहानी है. सुभाष घई ने ‘कांची’ के संघर्ष के बहाने मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था पर करारा प्रहार किया है. इस फिल्म का पूरा ताना-बाना नैनीताल के आसपास की वादियों को आधार बना कर बुना गया है. दैनिक उत्तराखंड की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सुभाष घई की फिल्म ‘कांची’ का केंद्र बिंदु है नैनीताल के पंगूट के पास का एक गांव सिगड़ी. यह पूर्व सैनिकों का गांव है. इसी गांव के एक जवान की बेटी है कांची यानी मिष्टी. स्वभाव से बेहद शरारती और बहादुर. एक स्थानीय युवक बिंदा यानी कार्तिक और मिष्टी यानी कांची के बीच प्यार पनपता है. लेकिन इस खूबसूरत गांव की जमीन पर मुंबई के एक भूमाफिया परिवार के आने के साथ ही गांव में उथल-पुथल का दौर शुरू हो जाता है. इस भूमाफिया परिवार का लड़का मिष्टी को किसी भी कीमत पर पाना चाहता है और इसके लिए वह बिंदा का खून कर देता है. यहीं से मिष्टी का संघर्ष शुरू होता है और महानगर में जाकर वह इस भूमाफिया परिवार में शामिल होकर उसे तबाह करती है. मिष्टी के संघर्ष के बहाने फिल्मकार घई ने राजनीतिक व्यवस्था को उजागर किया है.

इस फिल्म में भले ही मिष्टी यानी कांची को पहाड़ को भूमाफिया से बचाने में कामयाब होते हुए दिखाया गया है, पर हिमालय के अनेक हिस्सों में मुनाफे के लिए फैल चुके भूमाफिया और ठेकेदारों के चंगुल से इन इलाकों को बचाना मुश्किल होता जा रहा है. पिछले वर्ष जून माह में केदार घाटी इलाके में आयी प्राकृतिक आपदा इसका स्पष्ट इशारा कर चुकी है. जून, 2013 में उत्तराखंड में भूस्खलन और भयावह बाढ़ से न केवल हजारों लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा था, बल्कि बड़े पैमाने पर संपत्ति का भी नुकसान हुआ था. इस त्रसदी में लाखों तीर्थयात्रियों और पर्यटकों समेत राज्य के निवासियों को मुश्किलों का सामना करना पड़ा था. भयावह बाढ़ से पूरे इलाके में अर्थव्यवस्था बुरी तरह से प्रभावित हुई थी. लोग अब तक इस तबाही से उबर नहीं पाये हैं.

आपदा के वक्त पर्यावरण विशेषज्ञों द्वारा कहा गया था कि भविष्य में इस तरह की तबाही को टालने के लिए विकास की मौजूदा नीतियों को बदलना होगा और कई प्रस्तावित परियोजनाओं को रोकना होगा. कई रिपोर्टो के मुताबिक, उत्तराखंड दुनिया के उन क्षेत्रों में से एक है, जहां जलविद्युत परियोजनाओं का घनत्व सबसे ज्यादा है.

बिजली परियोजनाओं पर पाबंदी

कुछ पर्यावरणविद् लंबे समय से उत्तराखंड में बांधों और सुरंगों के निर्माण को रोकने की बात कर रहे हैं, जिसे अब सरकार के अधिकारियों ने भी सही ठहराया है. एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले वर्ष 13 अगस्त को केंद्र सरकार को इस संदर्भ में जांच के निर्देश दिये थे. इसके बाद पर्यावरण मंत्रलय ने 11 विशेषज्ञों की एक समिति का गठन किया था. इस समिति ने पिछले दिनों अपनी रिपोर्ट पेश की है. रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्तराखंड में मौजूदा और निर्माणाधीन बिजली परियोजनाएं राज्य में पिछले साल आयी आपदा के लिए जिम्मेवार हैं. समिति ने राज्य में पर्यावरण को हो रहे नुकसान के लिए भी इन्हें जिम्मेवार बताया गया है.

इस समिति को यह भी पता लगाने को कहा गया था कि अलकनंदा और भागीरथी बेसिन के जैव-विविधता वाले क्षेत्रों में प्रस्तावित 24 जल विद्युत परियोजनाओं का संभावित असर क्या होगा. समिति ने इनमें से 23 परियोजनाओं को बंद करने की सिफारिश की है. एक तरह से कहा जा सकता है कि इस पर्वतीय राज्य में सभी नयी बिजली परियोजनाएं प्राकृतिक संरक्षण के लिहाज से संदेह के दायरे में आ चुकी हैं. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि छोटी लेकिन प्राकृतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण नदियों समेत राज्य में सभी नदियों के संरक्षण के लिए निर्दिष्ट ‘इको-सेंसिटिव जोन्स’ को संरक्षित करने की जरूरत है. साथ ही मंत्रलय की ओर से ‘रिवर रेगुलेशन जोन’ यानी ‘नदी नियमन क्षेत्र’ के बारे में तत्काल अधिसूचना जारी करने की भी सिफारिश की गयी है. समिति ने यह भी कहा है कि कुछ खास किस्म की परियोजनाओं और एक तय ऊंचाई से ऊपर की परियोजनाओं को प्रतिबंधित किये जाने की जरूरत है. इतना ही नहीं, इस इलाके की जैव-विविधता को कायम रखने के लिए असुरक्षित निर्माण कार्यो पर भी पाबंदी लगानी होगी.

राज्य की खास जियोलॉजी

इनमें से कुछ परियोजनाओं को तमाम विरोधों के बावजूद मौजूदा विकास नीतियों के तहत मंजूरी दी गयी थी, जबकि राज्य के ऊंचाई वाले इलाकों में निर्माणाधीन बिजली परियोजनाओं की पूर्व में व्यापक तौर पर आलोचना हो चुकी है. विशेषज्ञों का मानना है कि उत्तराखंड की जियोलॉजी बहुत ही खास और संवेदी किस्म की है और किसी भी तरह की गतिविधियों को अंजाम दिये जाने से पूर्व इन खासियतों को ध्यान में रखा जाना चाहिए. पिछले वर्ष इस राज्य में आयी आपदा के बारे में कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि वैश्विक तापमान में अचानक भारी बदलाव के कारण ऐसे संकट आते हैं, लेकिन पर्यावरणविद् इस बात पर एकमत हैं कि हिमालय की कोमल पारिस्थितिकी से छेड़छाड़ के चलते इस क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाएं आ रही हैं. पर्यावरणविदों का कहना है कि हिमालय दुनिया का सबसे तरुण पर्वत है, जहां कठोर चटटनों पर भूमि जमा है. इस वजह से हिमालय क्षेत्र में भूक्षरण, भूस्खलन और भूकंपीय गतिविधियों के होने का अंदेशा लगातार कायम रहता है. विशेषज्ञों का कहना है कि अनियोजित व अवैज्ञानिक निर्माण और बांधों की बहुलता से क्षेत्र की नाजुक पारिस्थितिकी को भारी नुकसान पहुंचा है.

पर्यावरणविद् कहते हैं कि उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनाओं के अंधाधुंध निर्माण की वजह से हिमालय के ऊपरी हिस्से पर व्यापक असर पड़ा है. इन परियोजनाओं के लिए निर्मित किये गये जलाशय पर्वत के निचले हिस्से के संतुलन को गड़बड़ा सकते हैं और यह गंगा के प्रवाह में दिखाई भी दे रहा है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, मौजूदा समय में 10 हजार मेगावाट विद्युत उत्पादन के लिए गंगा पर करीब 70 जल विद्युत परियोजनाएं निर्मित हो गयी हैं या प्रस्तावित हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि इन जल विद्युत परियोजनाओं से गंगा एक दिन या तो सुरंग में परिवर्तित हो जायेगी या वह एक जलाशय में तब्दील हो जायेगी. इससे गंगा के अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो रहा है.

अत्यंत संवेदनशील है हिमालयी क्षेत्र

प्राकृतिक संसाधनों का गलत तरीके से इस्तेमाल किये जाने और प्रकृति से ज्यादा से ज्यादा लाभ निचोड़ने के लिए इसका दोहन करने पर इसके घातक नतीजे देखे जा सकते हैं. उत्तराखंड त्रसदी को लेकर चिंता जताते हुए जानेमाने पर्यावरणविद् हिमांशु ठक्कर ने एक सेमिनार में विगत दिनों कहा था कि देश में अभी 42,000 मेगावाट के हाइड्रो प्रोजेक्ट्स चल रहे हैं और सरकार वर्ष 2032 तक इनको डेढ़ लाख मेगावाट तक पहुंचाने की कोशिश कर रही है. उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में अब तक 98 हाइड्रो प्रोजेक्ट्स ऑपरेशनल हैं, जिनमें 3600 मेगवॉट बिजली बनती है और 41 अभी बन रहे हैं और तकरीबन 200 अभी प्रस्तावित हैं.

भौगोलिक परिस्थितियों के जानकारों का मानना है कि हिमालय का निर्माण तकरीबन चार करोड़ वर्ष पहले हुआ था. निर्माण की यह जटिल प्रक्रिया अभी जारी है. वैज्ञानिक मानते हैं कि धरती के अंदर किसी भी निर्माण प्रक्रिया के चलते रहने के कारण जो घर्षण उत्पन्न होता है, उसके चलते भूकंप आते हैं. हमारा हिमालयी क्षेत्र इस दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है. यहां भू-हलचल के लगातार चलते रहने के कारण भूकंप आने की तीव्र आशंका है. जनसत्ता में प्रकाशित अपूर्व जोशी की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले 65 वर्षो में हिमालय क्षेत्र में पांच बड़े भूकंप आ चुके हैं, जिनमें से दो उत्तराखंड में आये थे. 29 मार्च, 1999 को चमोली जिले में रिक्टर पैमाने पर 6.8 की तीव्रता वाले भूकंप से हमने कोई सबक नहीं लिया.

आनेवाले समय में सबसे बड़े संकट का कारण टिहरी की झील बन सकती है. अपूर्व जोशी के मुताबिक, 260.5 मीटर की ऊंचाई वाला टिहरी बांध विश्व का पांचवें नंबर का सबसे ऊंचा बांध है. जिस भागीरथी के प्रकोप को इस आपदा के दौरान उत्तराखंड ने ङोला है, यह बांध उसी भागीरथी को बांध कर बनाया गया है. यह भूकंप की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील इलाका है. 1991 में यहां रिक्टर पैमाने पर 6.8 की तीव्रता वाला भूकंप आ चुका है. हालांकि, बांध की क्षमता 8.4 की तीव्रता वाले भूकंप को ङोलने की बतायी जाती है, लेकिन पर्यावरणविद् मानते हैं कि इस इलाके में कभी भी इससे ज्यादा तीव्रता का भूकंप आ सकता है. अगर ऐसा हुआ तो वह प्रलय से किसी भी प्रकार कम नहीं होगा.

विशेषज्ञों का मानना है कि इस बांध के टूटने की स्थिति में 80 किलोमीटर दूर ऋषिकेश तक महज एक घंटे में पानी पहुंच जायेगा, जिसकी गहराई होगी 260 मीटर. यह पानी 80 मिनटों में हरिद्वार पहुंच जायेगा और गहराई होगी 232 मीटर. उत्तर प्रदेश के बिजनौर, मेरठ और हापुड़ को जलमग्न करते हुए इसका पानी नोएडा-दिल्ली के मुहाने तक पहुंच जायेगा और इसकी अनुमानित गहराई होगी साढ़े आठ मीटर. सोचिये क्या होगा तब और क्या हमें इस कीमत पर विकास चाहिए? बिजली चाहिए?

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