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शहरों-खेतों के बीच पानी युद्ध

।। रमेश कुमार दुबे।। -नयी दिल्ली- शहरीकरण दुनियाभर में एक जरूरी प्रक्रिया बन गयी है. धरती के दो फीसदी हिस्से में बसे शहरों में आज दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी रह रही है. इससे शहरों में पानी की मांग अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है, जिसका असर खेती के पानी पर पड़ रहा है. विशेषज्ञों […]

।। रमेश कुमार दुबे।।

-नयी दिल्ली-

शहरीकरण दुनियाभर में एक जरूरी प्रक्रिया बन गयी है. धरती के दो फीसदी हिस्से में बसे शहरों में आज दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी रह रही है. इससे शहरों में पानी की मांग अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है, जिसका असर खेती के पानी पर पड़ रहा है. विशेषज्ञों का मानना है कि शहरों और खेतों के बीच पानी के लिए गलाकाट प्रतिस्पर्धा शुरू हो चुकी है. इसके विभिन्न आयामों पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज..

पानी को लेकर लोगों, राज्यों और देशों के बीच लड़ाई तो प्राय: अखबारों की सुर्खियां बनती रहती हैं, लेकिन शहरों और खेतों के बीच जो पानी युद्ध जारी है उसकी चर्चा शायद ही कभी होती हो. जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ रहा है, वैसे-वैसे यह खामोश युद्ध रफ्तार पकड़ता जा रहा है. पिछले दिनों शहरीकरण पर जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया के सबसे ज्यादा आबादीवाले 10 शहरों में भारत के तीन महानगर शामिल हैं. इसमें दिल्ली पहले, मुंबई चौथे व कोलकाता सातवें स्थान पर है. इस सूची की सबसे खास बात यह है कि विकसित देशों का कोई भी शहर इसमें नहीं है. विकसित देशों में शहरीकरण ‘पीक प्वाइंट’ पर पहुंच चुका है. इसीलिए शहरी जनसंख्या में वृद्धि का 95 फीसदी विकासशील देशों के खाते में जा रहा है. शहरों में लोगों की बढ़ती आमद का नमूना है कि जहां विश्व की जनसंख्या में हर साल आठ करोड़ की वृद्धि हो रही है, वहीं शहरी जनसंख्या इससे दोगुनी (15 करोड़) रफ्तार से बढ़ रही है.

शहरीकरण से बढ़ी समस्या

शहरीकरण अब ऐसी प्रक्रिया बन गयी है, जिसे रोकना नामुमकिन है. इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहां 1900 में डेढ़ अरब लोगों में से 15 फीसदी शहरों में रहते थे, वहीं आज यह अनुपात 50 फीसदी से अधिक हो गया है. उम्मीद है कि 2050 तक दुनिया की 70 फीसदी आबादी शहरों में रहने लगेगी. उस समय विकसित देशों की 14 फीसदी और विकासशील देशों की मात्र 33 फीसदी आबादी शहरी सीमा से बाहर होगी. शहरीकरण के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि बड़े-बड़े महानगर आपस में मिल कर बृहत महानगर या मेगा रीजन बना रहे हैं. जैसे भारत में दिल्ली- गाजियाबाद- नोएडा- गुड़गांव- फरीदाबाद और जापान में नगोया- ओसाका- क्योटो. ये मेगा रीजन देशों की तुलना में संपदा के ड्राइवर बन कर उभरे हैं. उदाहरण के लिए चोटी के 25 शहरों के खाते में दुनिया की आधी संपत्ति आती है. भारत और चीन के पांच सबसे बड़े महानगर इन देशों की आधी संपदा रखते हैं. लेकिन इन शहरों में पेयजल और स्वच्छता जैसी मूलभूत सुविधाओं का घोर अभाव है. भारतीय संदर्भ में देखें तो महानगर ही नहीं छोटे नगर और कसबे भी मलिन बस्तियों में बदलते जा रहे हैं. शहर से जुड़ी सुविधाएं सिकुड़ती जा रही हैं, जिनमें सबसे गंभीर स्थिति पानी की है.

पानी की गुणवत्ता पर असर

पृथ्वी के दो फीसदी हिस्से को घेरनेवाले शहरों में आज दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी रह रही है. यही कारण है कि शहरों में पानी की मांग अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है. फिर तेजी से बढ़ती शहरी आबादी के लिए फल- सब्जी- अनाज आदि उगाने का दायित्व कृषि पर है, लेकिन जिस ढंग से शहर खेती के पानी को अपनी ओर खींच रहे हैं, उससे जलापूर्ति पर दबाव बढ़ता जा रहा है. संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के मुताबिक, बढ़ते शहरीकरण के चलते शहरों में जलापूर्ति और उसके चारों ओर फल- सब्जी- अनाज की खेती के लिए पानी की गलाकाट प्रतिस्पर्धा शुरू हो चुकी है. शहर न सिर्फ खेती के पानी को हड़प रहे हैं, बल्कि उसे प्रदूषित कर नदी-नालों में छोड़ रहे हैं, जिससे मिट्टी व पानी में जहर भरता जा रहा है. इस प्रदूषित पानी में उगनेवाले सब्जी- फल- अनाज के माध्यम से यह जहर मनुष्य व पशुओं के शरीर में जा रहा है, जिससे वे तरह-तरह की बीमारियों का शिकार बन रहे हैं.

खरीद कर पानी पी रहे हैं

शहरों और खेतों के बीच पानी की जो लड़ाई शुरू हुई है, वह जोर पकड़ती जा रही है. इस लड़ाई का गणित किसानों व गरीबों के पक्ष में कतई नहीं है. लॉस एंजिल्स, काहिरा और नयी दिल्ली जैसे शहर पानी की बढ़ती जरूरत के लिए खेती का पानी ले रहे हैं. शहर और गांवों के बीच पानी की होड़ का सबसे अच्छा उदाहरण चेन्नई है. यहां गांवों से पानी लाने और शहर की जरूरत पूरी करने के लिए बाकायदा एक टैंकर-ट्रक उद्योग विकसित हो गया है. करीब 13,000 टैंकर गांवों से भूगर्भ का पानी लाकर 70 लाख लोगों की प्यास बुझा रहे हैं. चेन्नईवासी हर रोज पीने के पानी के लिए 70 लाख रुपये खर्च कर रहे हैं. कमोबेश यही हालत दिल्ली के उपनगर द्वारका की है. प्रतिदिन सैकड़ों टैंकर गांवों से पानी खींच कर द्वारका के निवासियों की प्यास बुझा रहे हैं, लेकिन इन गांवों में जल स्तर जिस तेजी से नीचे जा रहा है, उससे यहां के लाखों लोगों के प्यासे रहने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है. दूसरी ओर द्वारका के संपन्न लोग खरीदकर पानी पी रहे हैं.

सिंचित क्षेत्र की रफ्तार रुकी

सिंचित इलाके में बढ़ोतरी रुकी पानी के लिए मची गलाकाट प्रतिस्पर्धा का ही परिणाम है कि सिंचित क्षेत्र में बढ़ोतरी रुक सी गयी. उदाहरण के लिए 1975 से 2000 के बीच कुल सिंचित क्षेत्र में तीन गुना बढ़ोतरी हुई थी, लेकिन उसके बाद विस्तार की रफ्तार धीमी पड़ गयी. संभव है जल्द ही सिंचित क्षेत्र घटना शुरू हो जाये, क्योंकि जहां एक ओर नदियों में पानी की मात्र घट रही है, वहीं दूसरी ओर भूजल की गहराई बढ़ती जा रही है. कई इलाकों में भूजल इतने नीचे जा चुका है कि उसे खींचना आर्थिक रूप से कठिन कार्य हो चुका है. इस प्रकार बढ़ती जनसंख्या, घटती कृषि योग्य भूमि और शहरों में पानी की बढ़ती मांग मिल कर दुनिया को खाद्यान्न संकट की ओर धकेल रहे हैं.

सिंगापुर से सीखें जल प्रबंधन

स्पष्ट है कि भारत ही नहीं दुनियाभर के देशों को यदि पानी युद्ध से बचना है, तो उन्हें कारगर जल प्रबंधन अपनाना होगा. इस मामले में सिंगापुर मील का पत्थर है. जब सिंगापुर में पानी का संकट गहराने लगा तो वहां सीवेज पानी की रिसाइकिलिंग शुरू कर दी गयी. वहां गंदे पानी को तीन स्तरों पर रिसाइकिल किया जाता है, जिससे वह पीने लायक बन जाता है. इस तरह के पानी से देश की 30 फीसदी जरूरत पूरी की जाती है. सिंगापुर की नेशनल वाटर एजेंसी ने 2050 तक देश की 50 फीसदी जरूरत को इस रिसाइकिलिंग पानी से पूरा करने की योजना बनायी है. इस पानी को ज्यादातर विनिर्माण व पावर उत्पादन आदि में किया जाता है, लेकिन यह पीने के लिए भी उपयुक्त है.

धरती सुखाती हरित क्रांति

भले ही हम आज खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के लिए हरित क्रांति पर इतरा रहे हों, लेकिन कड़वी हकीकत यह है कि धरती की कोख सुखाने में सबसे अधिक जिम्मेदार यही है. हरित क्रांति में क्षेत्र विशेष की पारिस्थितिक दशाओं की उपेक्षा करके फसलें ऊपर से थोपी गयीं, जैसे पंजाब में धान की खेती. इसीलिए इन्हें सिंचाई, उर्वरक, कीटनाशक की अधिक जरूरत पड़ी. समय पर सिंचाई करने के लिए किसानों को एक ऐसे स्नेत की तलाश थी, जो मांग पर तुरंत उपलब्ध हो और सबसे बढ़ कर किसानों का उस पर मालिकाना हक हो. यह स्नेत था भूजल. यही कारण है कि 1970 से ही देश में नलकूप लगाओ अभियान चला, जिसका परिणाम है कि अब तक दो करोड़ बीस लाख से अधिक निजी नलकूप लग चुके हैं.

भूजल संकट को गहरा करने में वोट बैंक की राजनीति ने आग में घी का काम किया. राजनीतिक दलों ने चुनाव जीतने और अपने वोट बैंक को पक्का करने के लिए मुफ्त बिजली का पांसा फेंका. इससे भूजल दोहन में तेजी आयी. अध्ययन बताते हैं कि जहां सब्सिडी वाली बिजली मिलती है, वहां डीजल वाले क्षेत्र की तुलना में दो गुना पानी खींचा गया. अब किसान पांच हार्सपॉवर के पंपसेटों के बजाय 15 से 20 हार्सपॉवर के सबमर्सिबल पंपों का इस्तेमाल करने लगे हैं. पंजाब में बिजली की कुल खपत का एक-तिहाई हिस्सा अकेले पानी को पंप करने में ही खर्च हो जाता है. हरियाणा में यह आंकड़ा 41 फीसदी और आंध्र प्रदेश में 36 फीसदी है. शोधकतरओ के मुताबिक, किसानों को गन्ने की खेती के लिए एक पैसे में 308 लीटर, गेहूं के लिए 157 लीटर और धान के लिए 412 लीटर पानी दिया जा रहा है. जहां नहरों के पानी का मात्र 25 से 45 फीसदी ही इस्तेमाल हो पाता है, वहां कुओं और नलकूपों के मामले में यह अनुपात 70 से 80 फीसदी तक है. फिर नहरी सिंचाई की तुलना में भूजल से उत्पादकता डेढ़ से दो गुना ज्यादा है. यही कारण है कि निजी क्षेत्र भूजल में ही निवेश को प्राथमिकता दे रहा है.

हरित क्रांति के जिन क्षेत्रों में गेहूं, धान की खेती प्रचलित हुई, वहां उत्पादकता में ठहराव आना शुरू हो गया है. सबसे विडंबनापूर्ण स्थिति यह है कि गेहूं, धान की उत्पादकता में ठहराव और गिरते भूजल स्तर से सीख लेने के बावजूद उन हाइब्रिड किस्मों को उगाने की सलाह दी जा रही है, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे कम पानी मांगती हैं, लेकिन बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों के इन दावों की जमीनी हकीकत एकदम उलटी है. ऐसे में हमें गेहूं, धान की एकफसली खेती से आगे बढ़ कर क्षेत्र विशेष की पारिस्थितिक दशाओं (मिट्टी, भूजल, वर्षा की मात्र) के अनुरूप फसल उगाने की शुरूआत करनी होगी. इससे न केवल भूजल पर दबाव कम होगा बल्कि फसल चक्र का पालन होने से मिट्टी की प्राकृतिक शक्तियों में बढ़ोतरी होगी. फिर गेहूं, चावल की भंडारण समस्या से मुक्ति मिलेगी और देश को दालों व खाद्य तेलों का आयात भी नहीं करना पड़ेगा. भारत के लिए यह कोई नयी पद्धति नहीं है, क्योंकि यहां सैकड़ों वर्षो से इन विधियों का प्रयोग होता रहा है. जिन इलाकों में ऐसी बहुफसली खेती की शुरुआत हुई है, वहां सुखद परिणाम हासिल हुए हैं. भूजल में गिरावट और बढ़ते रेगिस्तान को रोकने का सबसे बढ़िया उपाय यही है.

सूखा बढ़ा रहा है पानी का अदृश्य निर्यात

देश में जल संकट बढ़ाने में पानी के अदृश्य या वचरुअल निर्यात को नकारा नहीं जा सकता. गौरतलब है कि किसी कृषि व औद्योगिक उत्पाद के तैयार करने में जितने पानी की खपत होती है, उसे वचरुअल वाटर कहा जाता है. घरेलू जरूरतों के लिए तो अधिक पानी की खपतवाली वस्तुओं के उत्पादन को तर्कसंगत ठहराया जा सकता है, लेकिन इनका निर्यात किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है. इसका कारण यह है कि जब ये कृषि उत्पाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचे जाते हैं, तो इनको पैदा करने में लगे पानी का भी अदृश्य कारोबार होता है, लेकिन उसका कोई मोल नहीं होता. सबसे बड़ी बात यह है कि एक बार इलाके से निकलने के बाद यह पानी दोबारा उस इलाके में नहीं लौटता है.

उदाहरण के लिए, 2012-13 में भारत ने एक करोड़ टन चावल निर्यात कर अपने प्रतिद्वंद्वी देश थाईलैंड को पीछे छोड़ दिया. लेकिन यदि इस चावल को पैदा करने में लगने वाले अरबों लीटर पानी की गणना की जाये, तो यह भारत के लिए घाटे का सौदा साबित होगा.

पानी की कमीवाले इलाकों में अनाज उगाने पर पानी की प्रचुरतावाले इलाकों की तुलना में दोगुना ज्यादा पानी की खपत होती है. एक अनुमान के मुताबिक पंजाब में एक किलो धान पैदा करने में जितने लीटर पानी की औसत खपत होती है, पश्चिम बंगाल में उससे आधी खपत होती है. इसका कारण पानी की कमीवाले इलाकों का ऊंचा तापमान, अधिक वाष्पीकरण, मिट्टी की दशा और अन्य जलवायु दशाएं हैं. इसके बावजूद पानी की कमी वाले इलाकों में मुनाफा कमाने के लिए अधिक पानी खपत वाली फसलें धड़ल्ले से उगायी जा रही हैं. इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि कई इलाकों में घरेलू जरूरतों के बजाय निर्यात के लिए ऐसी खेती की जा रही है, जैसे पंजाब, हरियाणा में धान और महाराष्ट्र में गन्ने की खेती.

धरती पर 1.4 अरब घन किलोमीटर पानी पाया जाता है, लेकिन इसका एक फीसदी से भी कम हिस्सा मनुष्य के उपभोग लायक है. इस पानी का 70 फीसदी खेती-बाड़ी में खर्च होता है. यह अनुमान है कि खेती-बाड़ी में लगनेवाले पानी का एक-चौथाई हिस्सा कृषि उपजों के कारोबार के रूप में अंतरराष्ट्रीय बाजार में पहुंच जाता है. यदि मात्रत्मक दृष्टि से देखें, तो दुनियाभर में हर साल 1040 अरब घन मीटर पानी का अदृश्य कारोबार होता है. इस कारोबार में 9,500 करोड़ घन मीटर सालाना पानी के अदृश्य निर्यात के साथ भारत शिखर पर है. यह निर्यात खाद्य पदार्थो, कपास, औद्योगिक उत्पादों, चमड़ा आदि के रूप में होता है. 9,200 करोड़ घन मीटर के साथ अर्जेटीना दूसरे और 7,900 करोड़ घन मीटर के साथ अमेरिका तीसरे पायदान पर है.

यदि भारत के आंतरिक कारोबार की गणना की जाये, तो पानी का अदृश्य कारोबार और अधिक होगा, क्योंकि यहां पंजाब, हरियाणा जैसे सूखे इलाकों से बिहार, बंगाल जैसे गीले इलाकों की ओर कई कृषि उपजों का व्यापार होता है.

स्पष्ट है पानी की बढ़ती खपत, ग्लोबल वार्मिग, जलवायु परिवर्तन और गहराते प्रदूषण के बीच पानी का अदृश्य निर्यात अकाल को बढ़ावा दे रहा है. ऐसे में यह समय की मांग है कि हम पानी के वास्तविक मोल को पहचानें और पारिस्थितिकी के अनुरूप कृषि उत्पादन प्रणाली को बढ़ावा देने के साथ-साथ पानी के अदृश्य निर्यात से बचें.

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